रामलीला में राम का वेश धरे सुरेश्वर रावणसे लड़ तो रहा था, मगर,अपने अभिनय में जान नहीं फूँक पा रहा था। उसे लग रहा था कि उसके मन के भीतर राम नहीं, बल्कि रावण आ बैठा है। अपने-अपने रथों पर बैठे राम और रावण के किरदार एक-दूसरे पर धनुष तो ताने हुए थे, लेकिन, राम भीतर से असहज महसूस कर रहा था। वह सोच रहा था कि एक रावण सामने खड़े दूसरे रावण पर आखिर किस हिम्मत के साथ कैसे तानकर रखे तीर-धनुष? रावण का बल राम के किरदार पर हावी हो रहा था, ऐसे में, पहली बार राम को शंका हो रही थी रावण,रामलीला में ही सही, क्या मार देगा? ऐसा सोचते ही वह अचानक बुदबुदा उठा, “नहीं-नहीं। यह तो बस रामलीला है, सबको अपने-अपने पाठ याद हैं। रावण मुझे कैसे मार सकता है?”
इन्हीं विचारों के जाल में उलझा सुरेश्वर जो वर्षों से राम का अभिनय करते हुए अभ्यस्त हो चुका था, आज मात्र अभिनय के लिए अभिनय किए जा रहा था। वह राम के किरदार में पूरी तरह से उतर नहीं पा रहा था। बरसों से कंठस्थ संवाद और दोहा-चोपाइयाँ प्रभावशाली ढंग से नहीं बोल पा रहा था। वह यह भाँप चुका था कि रामलीला के दर्शकों की तालियाँ उसकी प्रशंसा में आज पिछली बार की तरह नहीं बजपा रही थीं।
रामलीला के डायरेक्टर रोशनलाल का बेटा हरीलाल शहर में पढ़ने-लिखने के बाद वहीं रहने लगा था। वह सुरेश्वर का लगभग हमउम्र था, लेकिन, शहर में रहकर नाटक आदि में काम करने वाला हरीलाल सुरेश्वर से ज्यादा युवा और स्मार्ट दिखता था। दोनों अन्तरंग दोस्त थे। शहर में हरीलाल के काम-धंधे का दारोमदार बहुत हद तक सुरेश्वर के कंधों पर ही टिका था। काम यह था कि वह गाँव और कस्बों की लड़कियों को कलाकार बनने के लिए शहर को हरीलाल के पास भेजता था। हरीलाल इस बार दशहरा के त्योहार में गाँव आया हुआ था।
गाँव की जिन लड़कियों को शहर में कलाकार बनने के लिए सुरेश्वर अब तक हरीलाल के पास भेज चुका था, वे असल में वहाँ किन दुश्वारियों से गुजर रही थीं उसे पता था। पर, समझ में तब आया जब शहर से गाँव आए हुए हरीलाल ने सुरेश्वर की ही बेटी को शहर ले जाकर अच्छी रकम कमवाने की पेशकश रखी। सुरेश्वर तो अवाक ही रह गया, लेकिन, हरीलाल को रोक भी कैसे सकता था? वह उसके साथ व्यावसायिक ही नहीं व्यक्तिगत व्यवहार में भी इस कदर घुलमिल चुका था कि निचले स्तर तक जाकर बातचीत की मर्यादाएँ लाँघ जाना मात्र एक मजाक भर था। उसने हरीलाल के साथ मिलकर चिनकू कहार, शंकर काका, रामऔतारिन और गाँव के अन्य कितने ही लोगों का विश्वास तोड़ा था। इनकी बेटियों को शहर में कलाकार बनाने के नाम पर क्या धंधा चल रहा था? यह उन बेटियों को तो पता चल ही चुकाथा,साथ ही कुछ के माता-पिता को भी। लेकिन, अब उस गंदगी से निकल के आना उनके लिए मुश्किल था।
सिलिया जो शहर में अब मिस रोली हो गई थी, वह रामऔतारिन काकी की बेटी थी। देर से सही पर, एक दिन उस सिलिया ने अपनी माँ को हरीलाल और सुरेश्वर के इस कमीशनखोरीवाले धंधे के बारे में बता दिया था। इसी कारण से रामऔतारिन को सुरेश्वर अब फूटी आँख न सुहाता। वह कर भी क्या सकती थी? रामऔतारिन जैसे लोगों का दर्द कौन समझता? बनी-बनाई साख और इज्ज़त तो जाती ही, साथ में गाँव में उसी का हुक्का-पानी बंद अलग से हो जाता।
रामऔतारिन की आँखों का सामना सुरेश्वर अब नहीं कर पाता था। कन्नी काट कर निकल लेता था। वह कितना बड़ा पाप कर बैठा था? असल में, उसे तब पता चला, जब, वह रामऔतारिन की आँखों का ही नहीं बल्कि रावण के एक पुतले का भी सामना नहीं कर पा रहा था। जबसे हरीलाल ने मजाक में ही सही, पर, उसकी बेटी को कलाकार बनाने की बात छेड़ी थी, वह अपराधबोध से भर गया था। ऐसी मनोदशा के साथ रामलीला के रावण पर तीर ताने हुए वह फिर सेबड़बड़ा उठा, “अरे, मैंने एक नहीं कई सीताओं का हरण किया है। तीर चलाऊँ तो किस पर तुम पर या खुद पर?”
सुरेश्वर जो भी मन के भीतर सोच-समझ रहा था, उन बातों को दशहरा के उत्सव में डूबे लोगों में कोई सुनने-समझने वाला नहीं था। वह एकाकीपन के साथ भीतर ही भीतर टूट रहा था। रामलीला पूरे जोश-ओ-ख़रोश के साथ गतिमान थी। तीर चलने तो तय थे। रावण के पात्र को बेमन से ही सही पर सुरेश्वर घेरे हुआ था। क्वार महीने में बहुत हद तक गर्मी में कमी आ चुकी थी। इसके बावजूद वह अपने भीतर जेठ की तपिश का अनुभव कर रहा था। पसीने से उसका शृंगार बहने को था। फिलहाल, दृश्य बदला और परदे के पीछे जाकर सुरेश्वर ने पानी पिया।
जल्दी ही अगले दृश्य में राम-रावण पुनः मैदान में थे। रावण पर धनुष ताने राम को अपना धनुष भारी लगने लगा था। ऐसा लगा कि जैसे सुरेश्वर के हाथों से धनुष छूटकर गिर ही जाएगा।
“क्या दर्शकों की भीड़ के बीच में कहीं रामऔतारिन खड़ी हुई है? नहीं, नहीं!”
सुरेश्वर ने खुद से ही सवाल-जवाब किया, लेकिन, जब उसके हाथ काँपे तो लगा कि यह भ्रम है। अगले ही पल उसको भीड़ में रामऔतारिन के ही नयन-नक्श वाली सिलिया दिखाई पड़ी, परंतु, यह भी उसका भ्रम ही था।पूरा एक वर्ष बीतने वाला था। सिलिया शहर से गाँव नहीं लौटी थी। फिर वह कैसे गाँव का दशहरा देखने आ सकती थी?
दर्शकों की भीड़ में सिलिया तो नहीं पर उसकी अपनी बेटी ज़रूर खड़ी थी जो अपने पिता की कला को देखकर अपनेपन में मुग्ध तालियाँ पीट रही थी। धनुष लिए रावण का पीछा कर रहे सुरेश्वर को अब भी यह समझ में नही आ रहा था कि उसे भीड़ में रामऔतारिन और सिलिया क्यों नजर आईं? इतना बड़ा ऐसा भ्रम उसे पहले तो नहीं हुआ था। क्या सच में यह भ्रम था? यह सोचते हुए कि संभवतः माँ और बेटी दोनों ही सुरेश्वर रूपी कलियुगी रावण का वध करने के लिए दशहरे के मेले में आए हों, उसने एक बार पुनः विशाल दर्शक दीर्घा की ओर अपनी नज़र दौड़ाई। कोई नज़र नहीं आया।
आज राम बने सुरेश्वर पर अपराधबोध भारी पड़ रहा था। वह स्वयं से पूछ रहा था कि शहर भेजी गईं उन बेटियों और उनके माता-पिता में वह अपनी बेटी और खुद को क्यों नहीं देख पाया? अगर वह समय रहते ऐसा कर पाता तो शायद उससे घिनौने पाप न होते।
उसके हाथ से इसी बीच कब तीर छूट गया? पता नहीं चला। फिर भी निशाना सटीक था। रावण का पुतला धू धू करके जल उठा, मगर, उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि उसने रावण को मार दिया है;रावण के दसों सिर हर लिए गए हैं; राम ने अपने तीर से उसकी नाभि का अमृत सुखा दिया है। विश्वास हो भी तो कैसे? क्योंकि रावण का पुतला ही जला था। असली रावण कहाँ मरा था? अब भी उस जले हुए रावण के सामने सीताओं को छलने वाले हरीलाल और वह स्वयं भी ज़िन्दा रावण बनकर खड़े हुए थे।
“इतने वर्षों से रामलीला में राम का किरदार निभाकर मैंने क्या पाया? क्या किसी भी वर्ष दशहरे में,सच में, मैं एक भी रावण मार पाया?”
सुरेश्वर के भीतर चल रहा राम और रावण का द्वंद्व अभी ख़त्म नहीं हुआ था। उसके भीतर घटित हो रही रामलीला को कोई देख-सुन नहीं पा रहा था। लेकिन सच पूछो तो असली रामलीला जारी थी। अपने भीतर के रावण को मारने की तैयारी में वह जुटा हुआ था। ज्यों-ज्यों उसके भीतर अपराधबोध बढ़ता जा रहा था, उसका तना हुआ शरीर पश्चाताप से निढाल होकर गिरने को था। वह बेहोश होकर गिरे उससे पहले ही कुछ लोगों ने ‘जय सियाराम’ का उद्घोष करते हुए सुरेश्वर को अपने कंधों पर बैठा लिया और परदे के पीछे लेकर चले गए।