तुम कल भी
माँ थी किसी की,
किसी की थी बहन, बेटी और पत्नी
और आज भी हो
पूजता आ रहा हूँ मैं तुम्हें
दुर्गा, काली, सीता के रूप में
और आराध्य रही हो तुम
सावित्री, भामती, लक्ष्मीबाई के रूप में भी
तुम भले हीना जा सकी
ज्ञान प्राप्त करने किसी वट वृक्ष के नीचे
ना छोड़ सकी
कभी उस मकान को
जिसे तुमने ही घर बनाया
ना त्याग सकी
अपने पति और नवजात शिशु को
मगर यह क्या?
अब तो बदल जायेगा
इसका भी अभिप्राय
तुम्हें भी नहीं दी जायेगी वो संज्ञा
क्योंकि हो ना होकहीं ना कहीं इसके लिए दोषी हो तुम स्वयं
अरे शादी हुई थी हमारी
बंध गए थे सात जन्म के लिए एक पवित्र बंधन में
तुम्हारे देखे हुए सारे सपने हो गए थे अब हमारे
और पूरा करना था हमें इसे मिलकर
पढ़ाया भी तुम्हें मैंने
तुमने जहाँ तक पढ़ना चाहा,
बारहवीं से एमबीए तक की पढ़ाई
कहाँ है आजकल इतना सुलभ
ऑफिस से लेकर घर तक
साहब से मेम साहब तक
सबके काम किए मैंने
क्योंकि जुटाने थे मुझे पैसे
सिर्फ तुम्हारे लिए
तुम्हारे फीस के लिए
ताकि तुम हो सको सफल
पूरे हो वो सपने
जिसे देखे थे सिर्फ तुमने
सफल हो गई हो आज तुम
हो गई हो किसी बड़ी मल्टी नेशनल कम्पनी की मालकिन
तो क्या बदल गए रिश्ते?
तो क्या टूट गया वो सात जन्मों का बंधन ?
अगर नहीं तो
तुम यह कैसे कह सकती हो की
तुम नहीं हो मेरे बराबरी के,
नहीं है तुम्हारी कोई हैसियत
कहीं तुम्हारे कहने का तात्पर्य
यह तो नहीं
की एक चपरासी ने की है कोई बड़ी गलती
अपनी पत्नी को पढ़ा- लिखाकर
खैर जो भी हो
तुम ऐसी कैसे हो सकती हो?