(1.) आमद
तितलियों को बुलाने
फूल उगाए
पक्षियों को बुलाने पेड़ लगाए
बारिश खुद ही चली आई
रहने के लिए घर बनाया
खाने के लिए भोजन जुटाया
घर के भीतर घर बनाने
चीटियां खुद ही चली आईं
खिड़की दरवाज़े खुले ही रखे
हवा की टहल के लिए
सामान कम ही रक्खे
रोशनी खुद ब खुद चली आई
श्रम की नदियां बहाई
सोच विचार की सीमा बढ़ाई
सामंजस्य की चाबी घुमाई
मित्रता दौड़े चली आई
अंधकार का भी मान रक्खा
सम विषम का भान रक्खा
बेवजह न पतवार चलाई
समय लगा पर
चेहरे पे रौनक खुद ही चली आई
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(2.) जलमित्र
तुम जल तत्व हो मेरे जीवन के
तुम्हें खर्च नहीं करूंगी बात बेबात
सहेजूंगी उस तरह जैसे मरुभूमि के वासी
सहेजते हैं जल की हर एक बूंद
हरे भरे मन से करूंगी संवर्धन तुम्हारा
तुम्हारे होने से है मेरा होना
मेरी ओर से तुम्हारी ओर
या तुम्हारी ओर से मेरी ओर
गुरुत्व के नियमों के विरुद्ध
मनचन्द्र के आलोड़न से
रहेगा जल का निर्बाध प्रवाह
बांध के बनिस्पत
होगा पानी का पुल हमारे मध्य
इच्छारूपी मछलियां होंगी अनेक
पर कामनारूपी जाल न होगा वहां
होगा इतना विश्वास हमारे आसपास
कि प्रवासी पक्षी भी चले आएंगे हमारी ओर
उर्मिया झिलमिल-झिलमिल नर्तन करेंगी हमारी सतह पर
अन्य जलमित्र पहचान लेंगे
हमारी देह पर जलतत्व की आभा
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(3.) अर्थ की व्यवस्था
अभी दिन भर की मार झेलेंगे
कड़ी धूप सहेंगे,
कबूतरों की चोंच, आवारा पशुओं के प्रहार भोगेंगे
सर्वहारा; जिसे पूंजी के बल पर , सजा-धजा कर
रख दिया गलियारों में, गमलों में, सड़क के एक ओर
अपने दम पर जीने मिलता तो झुकती न ऐसी कमर
जड़ें गहरी और लंबी थीं जिजीविषा थी
बुझा ही लेते वे अपनी प्यास
सर्वहारा जिन्हें जीवन यापन के लिए लाया गया शहरों तक
सर्वहारा जिन्हें बात बे बात लौटाया गया गांवों तक
महामारी है, तालाबंदी है
अब वे आश्रित हैं
यह आश्रय
करुणा जगाता है
कड़ी धूप से पहले रखती हूंं इस बात का ध्यान
कि दे दूं उन्हें उनके हिस्से का पानी
पानी जो उनका खाना है
ताकि, कम से कम मेरे आसपास जितने
सत्तर प्रतिशत; जो ग्रामीण हैं
सत्तर प्रतिशत; जो मेहनतकश हैं
उन सबकी, हम सबकी कमर सीधी रहे
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(4.) आंकड़ा
पार्षद के चुनाव में दो सौ
विधायक के चुनाव में पांच सौ
थोड़े और बड़े चुनाव में
उसका अंगूठा हजार तक में बिका
इस तरह अठारह से साठ की उम्र तक
पहुंचते-पहुंचते
गर जीवित रहता तो
तकरीबन जमा लेता वह बीस हजार रुपए!
पर सड़क दुर्घटना में
असमय हुई उसकी मृत्यु
आम आदमी था वह
आंकड़े में बदलना ही था उसको
महामारी का आंकड़ा बनता तो
न मिलता मुआवजा भी
और बार-बार मरने के एवज में
एक बार में ही कमा लिए उसने तीस हजार रुपए!
जीवन के बनिस्पत कलयुगी तुला में हर बार
मृत्यु का भार दिखा कहीं अधिक!
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(5.) याचना
हे मन!
तू कब तक मुझे सत से दूर रख पाएगा
कब तक तना मजबूत रह पाएगा
मुझमे तो सत का बोध हो जाएगा
तब तेरा कहा अवरोध हो पाएगा
हे मन!
ये दुनिया एक छलावा है
तू ये कब जान पाएगा
कब तक इस भुलावे में तू जी पाएगा
जो जन्मा है मिटेगा
जो खिला है मुरझाएगा
तू कब ये समझ पाएगा
हे मन!
तू तो चंचल है मृग की तरह
कभी शीतल है नीर की तरह
तू तो नश्वर है समीर की तरह
मेरी तो देह माटी की है
मुझ दीये में बाती थोड़ी ही है
तो जलने दे अटल तू झोंका न बन
होने दे समाधिस्त तू रोड़ा न बन
बाद में फिर तू भी पछताएगा
एक बार गया तन तो बुद्धत्व न आ पाएगा
हे मन!
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(6.) उनके जाने के बाद
जब घर हरा भरा था
तब उसकी एक चाबी मेरे पास रहा करती थी
आज जब घर खाली है
तब उस घर की सारी चाबियां मेरे पास है
भरे घर में मेरी पहुंच बैठक तक थी
मन के तल में कहीं गहरे तक थी
खाली घर में बस खालीपन था
निचाट सन्नाटा
मौन धरे फुफकार रहा था
वही दीवारें थीं
वही खिड़कियां थीं
पर अब खालीपन को जकड़े जड़ खड़ी थी
एक नामालूम अजनबीपन की गंध हवा में तैर रही थी
पुराने रिश्ते की चादर को ज्यों समेट रही थी
घर से नहीं घरवालों से मेरा सम्बंध था
उनके स्थानांतरण के बाद
चाबियां होकर भी
उस घर का दरवाजा मेरे लिए बंद था