अभी इश्क़ लिखने का दिल नहीं है
मैं कोशिशें हज़ार करता हूँ
मगर रूह है कि सिहर जाती है
नज़र है कि ठहर जाती है;
सिग्नल पे खड़े उस नंगे बच्चे पे
जो कार के शीशे पार से
बेच रहा है आज़ादी।
तेरे ख़यालों में डूबकर एक ग़ज़ल बुननी थी
मुहब्बत में पड़कर आशिक़ की राह चुननी थी
मगर ज़हन की छत है कि टपक रही है
टीस की धुरी लपक रही है
और बन रही हैं तस्वीरें बेहिसाब।
हैं तस्वीरें, बेवा औरत के ज़र्द चेहरे की
यतीम बूढ़ी आँख में कोहरे की
रोज़मर्रा के फंदे में, फँसते जीवन के मोहरे की ।
एक नौवीं की लड़की जो भटक रही है
एक औरत जो कोठे पे तड़प रही है
चूल्हे और बिस्तर के बीच में बीवी
धीरे-धीरे सदियों से सरक रही है।
और भी कोफ़्त टटोलती तस्वीरें हैं यहाँ
मैं हुस्न-ओ-इश्क़ लिखूँ तो कैसे, कि
हस्पताल में घाव लिये मरीज़ों की कमी नहीं है
यहाँ शहीदों की मौत पे आँखों में नमी नहीं है
बस किसानों तक जो कभी पहुँची नहीं,
वो तरक्की काग़ज़ों में थमी नहीं है।
कूड़ेदान में कपड़े-जूते और
पुराने सेलफ़ोन के नीचे
हथेली भर की बच्ची की ठंडी लाश छुपी है।
एक परियों की रानी सच्चे प्यार की ख़ातिर
अपनी इज़्ज़त और यक़ीं, धोखे में गँवा चुकी है।
दिल सुलग जाता है,
मन बिखर जाता है देखकर, कि
‘वीमन एम्पावरमेंट’ वाले शहर के भीतर
बड़े फ्लाईओवर और भीड़ की नज़रों से होकर
लक्ष्मी तेज़ाब से अब भी झुलस रही है।
सरकारी फ़ाइलों में खोई वो चप्पल
सालों से अब तक घिसट रही है।
और भी शय हैं दुनिया में मौजूद;
मेरा दोस्त जो कैंसर से घुट घुट के लड़ता है
एक बाप घर खर्च की ख़ातिर ख़ुद से झगड़ता है
घर के पड़ोस में कल ही ‘लिनचिंग’ हुई है
ख़बरें कहती हैं सब क़ाबू है, कैसी ‘चीटिंग’ हुई है।
हीर-रांझा के हिज्र का दर्द यक़ीनन है भारी
जिसमें तिनके भर का भी मुझको भरम नहीं है
मगर, फुटपाथ पे सिकुड़ते पेट की भूख के आगे
जिसका जवान बेटा मरा हो, उस माँ की हूक के आगे,
उस महबूब की जुदाई की कचोट
कुछ भी नहीं है, कुछ भी नहीं है।
और इन सब के बीच में मुहब्बत की बातें
ग़ुलाब ओढ़े सवेरे, लिली फ्लावर की रातें
हाँ, मगर बात ये भी सही है, कि
तेरी हुस्न-ओ-अदा से कभी दिल नहीं भरता
तेरी याद की दरिया में डूबा, मन नहीं उबरता
मगर ज़माने में और भी दर्द बचे हैं
हर चुप्पी के पीछे अफ़साने दबे हैं
क़लम झुक जाती है मेरी
उन बेज़ुबानों की जानिब
जिनके गूंगे फ़साने किसी से सुने नहीं हैं
मगर, ऐ हुस्न-ए-जानां धुएं में आग न उकेरना
तुम मेरी बेरया मुहब्बत से कभी मुँह न फेरना
ऐसा नहीं है कि मुझे प्यार हासिल नहीं है
ऐसा भी नहीं कि दिल दोस्ती मुमकिन नहीं है
मगर, अभी इश्क़ लिखने का दिल नहीं है
मगर, अभी इश्क़ लिखने का दिल नहीं है।
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सुर्ख़ चाँद
एक सुर्ख़ चाँद गोद में लिये हुए
ईव फ़लक़ से उतरी है
तुम्हारी नज़रों में उसकी हिम्मत
किरच के जितनी पतली है
हर महीने की यही टीस है
नहीं कहेगी तुमसे वो, किए
सह रही है तुम्हारी नस्ल के लिए
आने वाली लहराती फ़स्ल के लिए
एक चाँद गढ़ा है कोख में
वो दर्द समेटे तड़प रही है
नब्ज़ फड़कती पेट को थामे
सुर्ख़ चाँदनी सिमट रही है
पूनम से अमावस्या तक कृष्ण पक्ष है अंदर
अमावस्या से पूनम तक शुक्ल पक्ष है भीतर
शबाब पे होता है तो महीना पूरा होता है
लहू बहता है फ़लक से होकर
सुर्ख़ चाँदनी सोखती हुई जीती है औरत
और ये किरच चुभोता ‘क्रेसेंट’ कोख में
फिर ढलता है पंद्रह दिन तक
फिर बढ़ता है पंद्रह दिन तक
जैसे आसमाँ में सरकता है चाँद कोई
उन मुश्किल के पाँच दिनों में
जब चाँद पूरे शबाब पे हो और अगर
कभी जो उसका हौसला कम पड़ जाए
वो चुपके से तुमसे अपनी नज़र छुपाए
तो बढ़ा देना हाथ हिम्मत का, साथ का
माना कि एक मर्द के लिए
मुश्किल है समझ पाना,
मगर तुम मत समझना,
न ही कोशिश करना उस एहसास को जीने की
बस भर देना गरम पानी की बोतल
माँ, बहन या कोई और भी हो तो
और अगर हो जीवनसंगिनी तो
ले जाना उसे गोलगप्पे खिलाने;
रात के डेढ़ बजे,
जब उसे चॉकलेट की तलब लगे
तो मुस्कराकर ला देना फ्रिज से,
एक जले गुड़ की ढेली;
बाहों का सहारा दे देना,
कह देना झूठे को ही, कि मैं हूँ,
अपनी हथेली की गर्माहट भी रख दोगे
उसके पेट पे अगर,
तो वो गहरी नींद सो जाएगी,
इसी भरम में कि तुम हो
सोचो, कितना अंधा आसमाँ होगा उसका
जो हर महीने चाँद की किरच छील छीलकर
फेंकती रहती है कपड़े में लपेटकर कहीं दूर
ग़लती नहीं है उसकी, मर्ज़ी भी नहीं है
ख़ुदा ने उतारा है फ़लक़ से उसको
एक औरत का जिस्म देकर
ताकि तुम्हारी रातें रोशन हों
और,
तुम हो कि नज़र भी नहीं मिलाते हो
कि कहीं ग़लती से भी मुँह से
‘पीरियड्स’ या ‘मासिक-धर्म’
जैसा कोई लफ़्ज़ न निकल जाए
साफ़ रिश्ते में ख़लल न पड़ जाए
मगर जिसके नाम में ही धर्म हो,
उससे अधर्म जैसा सुलूक क्यूँ
तुम भी तो एडम का हिस्सा हो
फिर अकेली ईव को टीस क्यूँ।
__________
ज़रा ठहर के आना
जो इक वादा था तुमसे,
फ़िज़ा में खिलखिलाने का
कहकशाँ में डूब जाने का
जूड़े में तुम्हारे चाँद टिकाने का
उगते सूरज को सीने से लगाने का
जानां इस ख़्वाहिश में, थोड़ा वक़्त लगेगा
गुमाँ की आज़माइश में थोड़ा वक़्त लगेगा
कि ये दुनिया, ये मंज़र, ये शहरों में बंजर
अभी महफूज़ नहीं हसीं ख़्वाबों के लिए
किए सड़क पे ख़ून के थक्के अभी सूखे नहीं हैं
सरिया लिए हाथ अब किताबों के भूखे नहीं हैं
मज़हबी टुकड़े पे पलते सायों को अभी
मुल्क में ‘टुकड़े-टुकड़े’ चलाने से फ़ुर्सत नहीं है
कि अभी तो नस्ल को साबित है करना
रहने को ज़िंदा अब ज़रूरी है डरना
कि कानून के मानी अभी बदल रहे हैं
हुक्मरां को इंक़लाबी अभी खल रहे हैं
मुझे मालूम है बड़ा मन था तुम्हारा,
जाड़े में, कुल्फ़ी का लुत्फ़ उठाने का
वादी में, कहवा के दो कप लड़ाने का
लालकिले पे बाँह फैलाने का, और
डल की झरझर में डूब जाने का
मगर जानां, अभी यहाँ,
तेल की खदानों पे मिसाइलों के घेरे हैं
बड़े काले से रोज़ यहाँ उठते सवेरे हैं
कुछ अंदर के कीड़े सरहद कुतर रहे हैं
बड़े-बड़े चेहरों के चेहरे अभी उतर रहे हैं
और वो जो वादा था तुमसे कि,
तुम्हारी हथेली पे अपनी ऊँगली उगाकर
तुम्हारे बालों में ग़ुलाबी से फूल सजाकर
चलेंगे किनारे से मीलों के फ़ेरे
देखेंगे तोता-ओ-मैना-ओ-बटेरे
इन बातों की सूरत अभी मुमकिन नहीं है
जीना न पूछो, हाँ मरना मुश्किल नहीं है
अभी स्कैण्डल में साँसों की इक चीख़ दबी है
उस लड़की की कैंडल-मार्च अभी रुकी नहीं है
अभी आब-ओ-दाने के भाव बहुत हैं
ढकी ओढ़ी इस जनता के घाव बहुत हैं
कि अभी सरज़मीं पे शोले भभक रहे हैं
वर्दी से ख़ून के कतरे अभी टपक रहे हैं
वो रातों का वादा, वो बुलाती सदायें
खिड़की पे तुम्हारी, मल्हार गाती हवाएँ
अभी इन बातों में थोड़ा सा वक़्त लगेगा
अच्छे दिन का वो वादा ज़रा लंबा चलेगा
जज साहब ये बोले की मुश्किल घड़ी है
कुछ ज़ुल्मी सिफ़त, कुछ सियासी कड़ी है
अभी कुफ़लों में कैद हैं लफ़्ज़ हमारे
मिटाने को अक्स, हो रहे हैं इशारे
वो इंसानियत की उसूलों-निगारी
अभी मुमकिन नहीं, अभी मुमकिन नहीं
सुनो तुम जानां, वो सारे ख़्वाब छुपाना
ज़र्रे ज़र्रे को सारी ये बातें बताना
हो सके तो अभी, ज़रा ठहर के आना
हो सके तो अभी, ज़रा ठहर के आना।
__________
फिर मुस्करायेगा हिन्दुस्तान
जानां, मैं क़ैद में करवट बदल रहा हूँ
नींद में नाज़नीं ख़्वाबों से उलझ रहा हूँ
ख़्वाबों में तुम्हारे गेसू महकते हैं
मैं क्या बताऊँ, मैं कैसे सँभल रहा हूँ
मुझे मालूम है तुम भी रोज़ अटरिया पे
दिन भर का जलता सूरज फाँकती हो
किसी लम्हे की खिड़की मेरी जानिब खुले
तुम हर लम्हा-लम्हा, घड़ी ताकती हो
तुम हो हज़ारों मील दूर, गिला न करो
तुम गंगा के पानी में हथेली डुबाकर
अपना लम्स छोड़ देना आँसू मिलाकर
गंगा समंदर से मिलेगी बाहें फैलाकर
मैं साहिल की रेती पे लेट जाऊँगा
आगोश में तुम्हारा लम्स समेट लाऊँगा
जानां, तुम्हे ये बताना है, देखो कि
क़फ़स में रोज़ मरने का मुक़ाम आया
मगर कूचे से इंसा फिर भी मुस्कराया
बड़ी ज़िद्दी ज़ात है आदमी इस दहर में
मौत की गोद में जीने से बाज न आया
ज़माने ने माज़ी में बड़े कहर देखे हैं
औरत के बहते आँसू में बहर देखें हैं
जंग में फ़ना होती आदम की निशानी देखी है
महाज़े-जंग में बेवा की लुटती जवानी देखी है
हर वबाल से उलझकर इंसान निकल आया है
दर्द की ख़ातिर ही दिल के कोने में बल आया है
फ़ैज़ की शाम ग़म की है, मगर शाम ही तो है
रात के बाद उठती सुबह, हमारे नाम ही तो है
देखना मुल्क़ की साँस फिर से लौट आएगी
सखी आँगन में बैठी, तुम्हारे मेहँदी लगाएगी
फ़स्ल-ए-गुल खटखटाएगी घर की साँकल
रोमानी फ़िज़ा फिर से चौखट सजाएगी
देखना ये आफ़ताब फिर सुर्ख़-ओ-हसीन होगा
तुम्हारी बाहों में लेटकर फ़लक़ फिर रंगीन होगा
गोलगप्पे की चाहत तुम्हारी ज़ाया न जाएगी
दौर-ए-वबा के बाद ज़िन्दगी, फिर लौट आएगी
अभी से उम्मीदों के, यूँ न चराग़ बुझाओ
तुम दिल में इक छोटी सी शमअ जलाओ
देखना दोस्त गले मिलेगा, माशूक़ बाहों में होगा
महीनों का फिसला हुआ वक़्त, पनाहों में होगा
इश्क़ के गुंचों से फिर खिलेगा बाग़बान
दिल सुनाएगा मुहब्बत की वही दास्तान
पुरानी ख़ुशबू महकेगी साँसों में बसर
सजेगा धजेगा फिर से अपना शहर
मिट जायेंगे जो हैं दिलों में, दूरी के निशान
देखना जानां, फिर मुस्कराएगा हिन्दुस्तान
__________
ज़िन्दगी ख़त्म से शुरू होती
बड़ी अजीब सी है ये ज़िंदगी
और बड़ी अजीब इसकी शुरुआत
सुना था, चिंगारी से लौ बनती है
पर यहाँ तो दो लौ मिल
एक चिंगारी पैदा करती हैं
शुरुआत से भी ज्यादा गर कुछ अजीब है
तो वो है इसका अंजाम,
रेत की घड़ी सा पल पल गिरना
और एक रोज़ ख़त्म हो जाना
ज़िन्दगी में इतनी मशक़्क़त,
इतने फ़ज़ीहत, किसलिए?
बस एक मौत के लिए?
फ़र्ज़ करो कि कभी यूँ होता
पहले हमारा इन्तेकाल होता
कम से कम कुछ न सही
अंजाम का क़िस्सा तो ख़त्म होता
आँख खुलती तो कहीं बुज़ुर्गखाने में
काँपती हड्डियों में पैदा होते
शुरु में ठिठुरते, सिकुड़ते फिर धीरे धीरे
हर दिन बेहतर होते जाते
और जिस दिन मज़बूत हो जाते
वहाँ से धक्के देके
निकाल दिए जाते
और कहा जाता
जाओ! जाके पेंशन लाना सीखो
फ़र्ज़ करो कि कभी यूँ होता
फिर हम कुछ और बरस की पेंशन बाद
दफ़्तर को अपने कदम बढ़ाते
एक महीना और घिसते
फिर पहली तनख़्वाह पाते
एक नई घड़ी, नए जूते लाते
कुछ पैंतीस बरस धीरे धीरे,
माथे की हर उलझन सुलझाते
और फिर जैसे ही जवानी आती
महफ़िल में मशग़ूल हो जाते
शराब, शबाब और क़बाब
आख़िर किसको ना भाते
दिल में सिर्फ़ ज़ायका जमता
कोलेस्ट्रॉल का खौफ़ नहीं
फिर जैसी मौज ऊँची सागर की
वैसे हौसले मैट्रिक में आते
अब तक सब रंग देख चुके थे
प्राइमरी भी पार कर ही जाते
फ़र्ज़ करो कि कभी यूँ होता
एक सुबह जब आँख खुलती
ख़ुद को नन्हा मुन्ना पाते
जो ऊँघ रहा है बिस्तर में
कि बस घास में दौड़ूँ, यही धुन है
फ़र्ज़ करो कि कभी यूँ होता
ना उम्मीदों का बोझ रहता
ना ज़माने की कोई फ़िकर
बस मेरा गुड्डा, मेरी गुड़िया
मेरा अपना शहर।
और एक सुहानी रात
जब नाच रहा था चाँद
आसमाँ के आँगन में
हम एक नई जान बन
कभी किसी की गोदी में
तो कभी किसी सीने पे आते
और इस आखिरी पड़ाव पे,
अपनी ज़िंदगी के
वो आख़िरी नौ महीने
हम रहते ख़ामोश पर चौकस
तैरते हुए रईसी में
जहाँ हमेशा गर्म पानी है,
एक थपकी भर से
रूम सर्विस आ जाती है,
और जब भी मन करे
कोई सर सहला ही देता है
वहीं कहीं किसी
गुमनाम लम्हे में
हसरत और ज़रूरत के बीच
हम एहसास बन,
सिर्फ़ एक एहसास बन
कहीं अनंत में खो जाते
फ़र्ज़ करो कि कभी यूँ होता,
कि ज़िन्दगी ख़त्म से शुरू होती।