1. प्रार्थना और कामना
एक युवा ने कामना की अपने लिए
एक अक्षत योनि की
हँसने लगीं संसार भर की लड़कियाँ
उसकी इस मूर्खता पर
एक राही में जैसे ही जगी इच्छा पंखों की
आकाश की तरफ़ करके पीठ
चिड़ियों का एक झुंड पास के पेड़ पर
तभी बैठ गया आकर
सतरंगी चूड़ियों के पास छोड़कर अपनी नजर
बाज़ार से जब गुजरा एक मजदूर
मर गए दुनिया के सभी रंग उसी पल
उदासियों में डूबकर
भूखे पेट गुनगुनाते हुए माँज रही है एक स्त्री
रात की तलहटी में बर्तन
शर्मिंदगी से चुप हैं
संगीत के सभी स्वर
ग्राहक की आस में हाथ जोड़ कुछ बुदबुदा रही है
खिड़की पर खड़ी एक अधेड़ वेश्या
देखो! ईश्वर कर गया है पलायन
ऐसी प्रार्थना से डरकर।
2. स्मृतियाँ तुम्हारी
काले केशों के बीच से
झाँक पड़ते हैं ज्यों
झक्क सफ़ेद बाल
हरे-हरे पत्तों में
खिल उठता है जैसे
फूल कोई लाल
शांत सोये सागर में
उछल पड़ती हैं
ज्यों लहर
दरवाज़े पर हुई दस्तक से
चौंक उठता है
जैसे घर
वैसे ही
हाँ वैसे ही
हैं स्मृतियाँ तुम्हारी
जो उतरती हैं
उभरती हैं
अचानक अक्सर।
3. गिरना
गिर रहा है पेड़ से
एक सूखा पीला पत्ता
घूमते, नाचते, आराम-आराम से
गिर रहा है ऐसे
जैसे गिरता है रंगमंच पर कोई पर्दा
समेटते हुए पूरी कहानी
या फिर बाँधे हुए एक रवानी
अहा! क्या गिरते हुए भी
हो सकता है कोई
इतना शांत, सहज, आनंदित?
क्या गिरना भी हो सकता है
इतना गरिमामयी
इतना शालीन?
गिरते हुए पत्ते से झाँक रहा है
पूरा हुआ एक स्वर्णिम जीवन
उसे नहीं है गिरने का कोई गम
जिसे मैंने समझा है अंत उसका
वह लग रहा है एक नया आरंभ
कुछ ही पल में
उसने चूम लिया है धरती
होकर आह्लादित
मानो पूछ रहा हो-
‘पहचाना मुझे
मैं हर बार रहा हूँ तुममें
और तुमसे ही हुआ हूँ
सदियों से है हमारा रिश्ता
लो समेटो मुझे
और फिर उगा दो किसी नये रंग में।’
4. भूल
वह प्रेम में पड़ी और भूल गई
जीवन की जरूरी खुराक
उसे याद न रहे पूछने वे प्रश्न
जो उसके प्रेमी की रूह की करते पड़ताल
संशय तो उसे प्रेम में बाधा ही दिखे
सो झटक कर रख दिया बुद्धि से परे
वह साथ-साथ बस में घूमा
चिपक कर बैठा रहा उसकी बगल की सीट पर
खड़े रहे एक जोड़ी थके पैर वहीं
अपनी ललचाती बूढ़ी आँख लिए
लेकिन वह चुन नहीं पाई इस वाकये को
उसकी परीक्षा के लिए
अमूमन वह डूबी रहती थी
अपने और उसके जिस्म के भीतर से
घहराती और बह आती नदी में
वह इंसान से बन जाती थी पानी
घर, परिवार, पड़ोस, समाज, राजनीति
प्रेम की इस बाढ़ में हो जाते थे ओझल
जब उसने उसे बताया था
अपने मोहल्ले में हुए दंगों के बारे में
और उसमें अपनी भागीदारी का किया था गुणगान
वह थरथराने लगी थी बस यह सोचकर
कि कहीं उसे कुछ हो जाता तो
बाकी हुए-हुवाए पर प्रेम का परदा था
वह तब भी नहीं चेती
जब वह उसे ले गया था एक महँगे रैस्टोरेंट में
और वेटर से उसकी कुर्ती पर जूस गिर जाने से
वह नहीं रह पाया था अपने आपे में
उसने इसे प्रेम की अभिव्यक्ति माना
वह एक ठूंठ को प्रेम का बरगद समझ
सींचती रही
इस तरह धीरे-धीरे
भूल ही गई वह
प्रश्न करना
अस्तित्व रखना
कुछ पूछना
कुछ होना
और वह होता गया
प्रेमी से
पति
मालिक
स्वामी
अमानुष
बहुत कुछ।
5. प्रेमिकाएँ
मेरी सभी प्रेमिकाएँ अजीब थीं
कभी किसी ने मुझे मुँह नहीं लगाया
जबकि उन दिनों में होता था मैं ही उनका
सबसे बड़ा शुभचिंतक, हितैषी, सम्मान करने वाला
इन सबसे भी बढ़कर सच्चा प्यार करने वाला
पर ये बात न मैं उन्हें समझा पाता था
न वो समझ पाती थीं
मेरा सब कुछ मुझमें ही मथता रहता था
जिसका छाछ और मक्खन सब आता था मेरे ही सिर
उनकी बेरुख़ी वैसे तो पसंद नहीं आती थी मुझे
पर निकल आता था मैं भी आगे
छोड़कर उन्हें किसी ऐसे मोड़ पर
जहाँ वो दीखती थीं आत्मसम्मान से सराबोर
नीला क्षितिज निहारते
मुझे ऐसी लड़कियाँ बहुत पसंद रहीं
अपने प्रेम से भी ज़्यादा
उनकी राह में पड़ने वाले कंकड़ भी चुभते थे मुझे
फिर मैं तो पचपन-साठ किलो का अवरोध था
कल सपने में वे सारी एक साथ आ धमकीं
वो जिसके साथ भैंस चराते मैंने खेला था
लैला-मजनू का नौटंकी पाठ
वो भी जिसे देखने के बहाने चला गया था
मदारी के साथ-साथ उसके गाँव
वो भी जिसके पीछे-पीछे चलते हुए मेले में
देख न पाया था कुछ भी और
वो भी जिसके साथ काॅलेज जाने के लिए
बस स्टैंड पर खड़ा रहता था घंटों
हाँ वो भी जिसके लिए लिख दी थी मैंने अंततः एक चिट्ठी
मैं चौंक उठा, घबरा गया उन सबको देखकर
चाहता था जल्दी से चली जाएँ वापिस सब की सब
बगल में लेटी पत्नी को इसका आभास भी हो
ये मैं क्यों चाहता
वे सारी हँसीं कोरस में ठहाकर
चूमने लगीं मुझे बेतहाशा
मैं पेड़ सा हरियाने लगा
वो चिड़ियों में बदलने लगीं
मैं झरने लगा उनके स्पर्श से
उसी सरसराहट में अधजगी पत्नी ने बदली करवट
सारी चिड़ियाँ उड़कर छिप गईं उसी के बालों में
मैंने राहत की साँस ली
उसके बालों में उँगलियाँ फिराता मैं सो गया फिर से
मेरी उँगलियों के पोर डूबते-उतराते रहे देर तक
प्रेम की गाढ़े चाशनी में।
6. अस्तित्व की मुनादी
जिस जमीन में मेरे पूर्वजों का लहू सना है
होकर नमी, खाद और रोशनी
जिस जमीन पर उगी हैं उनकी हड्डियाँ
बनकर हरियाली
जिस जमीन पर मेरी पुरखिनियों के आँसुओं से
निकली हैं हज़ारों-हज़ार नदियाँ
पसीना जिनका बरसा है बनकर बारिश
जिस जमीन से मैं लिपट जाता हूँ हर रात
और करता हूँ चिर निद्रा की तैयारी
उस जमीन पर मेरे होने की मुनादी
करेगा मेरा खुद का अस्तित्व
साथ देगी उसका ये पूरी धरती ये पूरा विश्व
गवाही देगा मेरे सिर पर हर वक्त छाता बन तना
ये नीला आसमान
हवा लिखेगी हलफ़नामा
दिशाएँ ही देंगी सारी दलील
इतिहास और संस्कृति थामेंगे मेरा हाथ
मेरे पक्ष में करेगी कुदरत ही सारी हिमाकत
मैं क्यों करूँगा अपनी कोई हिमायत
मैं क्यों दिखाऊँगा कोई कागज़?
7. उपेक्षा का फल
रुलाकर अपने प्रेमी बादलों को
फिर हरिया गई है पृथ्वी
पृथ्वी क्यों करती है ऐसा?
जानते हैं बखूबी
महीनों की उपेक्षा के बाद आए बादल।
8. प्रेम और प्रतीक्षा
बारिश कुछ और नहीं
समुद्र का उपहार है
प्रेमिका पृथ्वी के लिए
जो भेजता है वह अमूमन परदेस से
प्रेयसी के हृदय तक
न पहुँच पाने की कसक का खारापन
अपने हृदय में जज़्ब किए
और सिर्फ़ प्रेम का एक अमर फूल तोड़ लाने की इच्छा लिये
वह चल देता है हमेशा धूप के साथ
एक लंबी यात्रा पर
पर उसकी आत्मा छूटी रहती है यहीं
अपनी रत्नगर्भा को पकड़े हुए
हज़ारों-लाखों साल से
किनारों को बेतहाशा चूमते उसके होंठ
पाना चाहते हैं धरती की मौलिक मिठास
आँखें निहारना चाहती हैं उसका हरियल सौंदर्य
पर दूर जाकर ही समुद्र को मिलता है धरा के प्रेम का अवदान
परदेश से समुद्र भेजता है बादलों की चिट्ठी
उसमें रखके कड़कती बिजलियों सा अपना मन
शब्द झरते हैं बूँदें बन
अपने हिस्से की आग बेच-बेचकर
वह भेजता रहता है तोहफा बर्फ़ का
तृप्त होता है धरती का पहाड़ मन
फूटते हैं उसमें भावनाओं के झरने
बह निकलती है तृष्णाओं की लबालब सिक्त नदियाँ
जो चल देती हैं उमड़ते-घुमड़ते
रास्ते भर हरियाली बिखेरते
फूल खिलाते
मिट्टी की तासीर खुद में घोले
मिलने अपने प्रेमी से-समंदर से
पर प्रेम में मिलन कितना दुर्लभ है न!
समुद्र के घर धरती की नदियों को मिलता है
बस उसका पसरा हुआ खारापन
अपनी मिठास लिए वह तो गया है बहुत दूर
उसके लिए ही लाने
प्रेम का अमर फूल
नदियाँ किस मुँह से वापिस लौटें
वे डूबकर उसी के खारेपन में
इंतजार कर रही है बरसों से
यही पृथ्वी के प्रेम का प्रत्युत्तर है
कुछ प्रेमियों के मिलने का
संयोग नहीं आता।
9. इत्र
उदासियों को उबालकर
पीने जा ही रहा था
कि तुम आईं
फिर मैंने समेटा
तुम्हारे आने से
हवा में बिंधी खुशबुओं को
उसे घोला
उबलती उदासियों में
इस तैयार इत्र से
महकूँगा उम्र भर।
10. तुम्हें बस खुद को उबारना है
मत बताना किसी लकड़हारे को
जंगल का महत्व,
उसकी आत्मा ने चखा है जंगलों का स्वाद
वह सखा है जंगल का।
हो सके तो लाकर देना उसे
नई कुल्हाड़ी।
नये जंगल उगाना तुम्हारा काम है।
किसी मछुवारे को मत देना
जीव-हत्या के पाप पर प्रवचन,
दे सकना तो देना लाकर उसे
फटते जाल के बदले कोई नया जाल।
छटपटाता है संमदर तड़पती हैं मछलियाँ
एक दिन भी न पाकर उसे,
उस दिन संमदर आ बसता है उसकी आँखों में
और मछलियाँ तैरने लगती हैं सपनों में।
तुम्हारे धर्म की जद से बाहर हैं कई सभ्यताएँ।
उन्हें बाहर ही रहने दो।
किसी बच्चे से मत लेना
उसे दिये दस रुपए जेब खर्च का हिसाब।
तुम्हारी जोड़-तोड़ की मंशा से परे
खर्चा होगा उसने उसे,
दुनिया खूबसूरत बनाने में ही।
उसने खाई होंगी मीठी गोलियाँ
दोस्तों के साथ,
उछाला होगा एक सिक्का गली के मुहाने पर बैठी बुढ़िया की ओर,
खरीद कर अर्पित किये होंगे कुछ कंचे
धरती माँ को भी।
ध्यान रहे
तुम्हें दूसरों को नहीं
बस खुद को उबारना है।
11. बोझ
सुनो दुक्खहरन!
मेरी पीठ पर लदे पर्वत को
जरा सा खिसका दो
बस इतना कि
हवा छू जाये तनिक चमड़ी को
इसे लेना मत अपनी पीठ पर
बस हिला दो थोड़ा सा
क्या! इतना भी नहीं करोगे
कोई बात नहीं
हट जाओ मेरे रास्ते से
कि मेरी पीठ पर कोई पर्वत नहीं
अब तुम खुद सवार हो
हटो मुझे पटकना है यह बोझ
यहीं इसी बंजर पर।
12. आम लोग
हमें गन्ने में रस नहीं खोई कहा गया
हम फूल में सुगंध नहीं उसके तने पर उगे काँटे समझे गए
नदी में पानी नहीं रेत से रहे हम
पहाड़ों पर बर्फ नहीं अनचाहे चट्टान से माने गए हम
देहरी को प्रतीक्षा नहीं रही कभी हमारी
चौखट जो बने रहे
चाहतों में नहीं रहे शुमार किसी के
हमेशा उपलब्ध जो रहे
हमें गाया नहीं गया गीतों में
उतर आते रहे सिसकियों में खुद ही
हमें रिश्तों में निभाया नहीं गया
हम हमेशा साथ बने रहे बेवज़ह बिना स्वार्थ
हम प्रेमी नहीं रहे कभी किसी प्रेमिका के
हम तो आम लोग थे आम घरों के
रोजना की चक्की घुमाते होती रही हमारी साँझ
हमें नींद में भी सपनों का समय नहीं रहा
हम आम कपड़ों में दिखते रहे आम
फुर्सत में भी हमारा इंतज़ार करते रहे काम
पत्नी की नज़र में रहा महत्वपूर्ण महज हमारा होना
बच्चों की नजर में भी रहे बस बनकर कठोर उपस्थिति
जन्मने के बाद से ही छिनती रहीं एक-एक करके
हमसे हमारी सारी कोमलताएँ
वैसे हमें पता था कि आम होने में नहीं बुरे होने में बुराई है
क्योंकि हम सबसे बुरे दिखते थे तब
असहायता में चीखते थे अपनों पर जब
उस समय दूर किसी के हँसने की आवाज़
भेदती थी अंतस हमारा
हालाँकि इतने पर भी ज़रूरी तो रहे ही हम
भले किसी ज़रूरी की तरह नहीं
हमारे बिना भी कभी कोई कल्पना नहीं रही दुनिया की
हमारी कुछ साम्यता थी तो बस
जोठे में जुते बैलों से थी
या खुद पर छप्पर टाँगे कोनों में गड़े थूनों से
देखो आजकल दोनों ही लुप्तप्राय हैं।
13. बिछोह
नदी और बुआ
दोनों थीं एक जैसी
सावन में ही हमारे गाँव आतीं थीं
मंडराती थीं बलखाती थीं
बह-बह जाती थीं
गाँव घर खेत खलिहान सिवान दलान में
बुआ झूलती थी झूला
और गाती थी आशीषों भरे गीत
नदी भरती थी मिट्टी में प्राण
जैसे निभा रही हो रस्म
मना रही हो रीत
दोनों लौट जाती थीं
जब जाते थे कुछ दिन बीत
इधर हम शहर में बस गए
फिर बूआ गाँव में क्यों आती
वो रही भी नहीं
एक दिन बता गई कोई पाती
पता नहीं क्यों
बुआ जब-जब याद आई
याद आई उसके साथ ही आनेवाली
अपने गाँव की वो बरसाती नदी
जिसे कहते थे हम अकड़ारी
और जो बरखा बाद
सिमटते-सिमटते हो जाती थी
विलीन खुद में ही
दादी कहा भी करती थी-
‘लड़की और नदी दोनों सावन में
आतीं हैं नइहर
और अपने मन से जीती हैं खुद को’
मैंने सोचा था
‘इस बार बुआ न सही
नइहर आई उस नदी को देखूँगा’
पर हाय ये क्या!
जब मैं गाँव पहुँचा
नदी नहीं थी गाँव के बाहर
कहाँ से आती सावन में
ओह! बुआ तुम और नदी
दोनों साथ चलीं गईं क्या
क्या हमारे गाँव छोड़ जाने से
इतना नाराज थीं
तुम दोनों।
14. किताबें
किताबें कुँए हैं
जिनका शीतल जल ललचाता है हमारी प्यास को
उस प्यास को ही रस्सी और गागर बनना है उस तक
पहुँचने को
किताबें पोखर हैं
जहाँ जल ही नहीं है मल भी है
हमें उतारना है उसमें अपनी इच्छाओं की मवेशियों को
उसमें निवृत्त भी होंगी मवेशियाँ
और नहा-धोकर निकल पड़ेंगी घर को
किताबें नदी हैं
और गतिमान हैं हमारे लोक में
जो अक्सर तोड़कर
तटबंध फैला जाती हैं उपजाऊ मृदा
बहा ले जाती हैं हमारी चेतना का अवशिष्ट
कर जाती हैं हममें हरियाली जिंदा
किताबें समुद्र हैं
जल, जलचर और नमक भरी हुई
हमें सीखना है सलीका
इसे समझने इसमें उतरने और बरतने का
ये सब सीखते हैं हम
ज्यों-ज्यों इसमें उतरते हैं हमारे कदम।
15. दूज पर बुआ
बुआ आई है
अक्सर हर साल आती है इस दिन
उसने आने का मज़बूत बहाना जो गढ़ रखा है
गाँव की घर गृहस्थी से छूट
शहर आती है अपने बेटों के साथ दिवाली मनाने
और गाँव लौट जाने से पहले चली आती है
भाई के घर भाई दूज का टीका लगाने
उसके आने से
पूरा गाँव उतर आया है
हमारे इस दो कमरों वाले शहरी घर में
खेत चले आए हैं अपनी पूरी हरियाली लिये
नदी-पोखर चले आए हैं अपना पूरा पानी लिये
बाग-बगीचे, रस्ते-खुच्चे सहित
चला आया है पूरा कुनबा
चले आए हैं सारे मवेशी
बुआ के साथ चली आई है
उसकी ही आँखों से झाँकती असमय छोड़ गई छोटी बुआ भी
उसके आँचल से बँधकर आ गया है
पिता का पूरा बचपन और बचपन में घुले किस्से
किस्सों में विचरते सालों पहले गुजर चुके दादा-दादी
और कुछ मेरे लिए अंजान चेहरे भी
बुआ आई है
साथ लिए सुखों का एक पूरा बसंत
कोरे बाँधकर दुखों का गुज़र चुका पतझड़
उसके साथ चला आया है रिश्तों का एक गर्म जेठ
भावनाओं से भरा छलकता एक पूरा सावन
बूआ आई है बाँधे शिकायतों की पूरी पोटली
खोलती है पोटली तो फैल जाती है
शिकायतों से ज़्यादा उसमें बँधी स्नेह की सुगंध
बुआ मिल रही है अपने भाई से
जैसे मेले में खोये बच्चे मिलते हैं पिता से
वह मिल रही है अपनी भौजाई से
जैसे वर्षों बाद मिलती हैं दो सखियाँ अनायास
बिना किसी अपेक्षा के
बुआ देख रही है मेरे बच्चों को
जैसे देख रहा हो अलादीन
अपने ही चिराग़ से निकले जिन्न का बनाया जादुई महल
और मना रही है देवी-देवता कि
अगर ये जादू है तो भी ये जादू कभी न टूटे
बुआ आई है तो आया है साथ यादों का एक पोथा भी
वो पोथा बाँच रही है
हम सुन रहे हैं होकर बेसुध
उसके बाँचने में शामिल हो जाते हैं हम सब
जाने कैसे जाने कब
एक कोरस सा उठ रहा है सारे घर से
एक संगीत गुँजायमान है हवाओं में
जिसे सिरजा है बुआ ने
जिसे जिया है हम सबने
आते-जाते पड़ोसी झाँक रहे हैं हमारी देहरी के भीतर
बुआ उत्सुकता है उनकी भी
खेतों में काम करने वाले फागू बाबा को याद करते वह कहती है-
‘काका बहुतै ग्यानी रहे रे बाबू
जउन बुखार बैद न उतारि पावत रहे
ऊ वैं अपने खरखोदवा से दूर कइ देत रहे’
मैं कहता हूँ कि ‘फिर क्यों पिलाते थे आप सब
उन्हें ऊपर से पानी
और खाना परोसते नहीं छूते थे उनकी थाली’
वह बेलाग कहती है
‘लोक अधम रे बाबू
जइसन समाज वइसन करै तो परी
कउनो इज्जत कम नाहीं करा जात रहा तबौ’
मैं कहता हूँ ‘इज्जत आदर व्यवहार में भी तो हो’
वह झेंपती है बदल देती है मुद्दा
वह बताने लगती है बेलिया वाली काकी की बात
बताते हुए बोलने लगती है उसके मुँह से पूरी औरत जात
निःसंतान काकी का दुख उसे लगता है अपना
वह दुख के छँट जाने को ऐसे बताती है
जैसे देख रही हो कोई सपना
कहती है ‘बेचारी देवरानी केतिया वाली काकी
बच्चा जनत कै मरि का गईं
बेलिया वाली कै कोर हरियाइ गय
नेनुआ जियाइ लिहिन
दुख बिसराइ गय’
बीच में बुआ को याद आता है कि
वो आई है करने दूज
और जुट जाती है निकालकर मिठाई थाल टीका
उसे याद आता है अपने घुटनों का दर्द
और साथ लाये झोले से निकालकर खाने लगती है दवा
उसे याद आती है अपने घर में चल रही कलह
और आधा-अधूरा बता पकड़ने लगती है हवा
उसे याद आते हैं आने से पहले घर में छोड़ कर आये जंजाल
और लगाने लगती है जल्दी जाने का मनुहार
उसके वापिस जाने की बात पर
एक रात ही सही रुक जाने की
घर करने लगता है मिन्नतें
पिता जी देते हैं बिमारी का वास्ता
माँ सारी रात बातें करने का लालच
बच्चे करते हैं बाल सुलभ चिरौरी
मेरी पत्नी रोकती है भरकर अंकवार
इतने मोहपाश काटने का बुआ क्यों करेगी प्रयास
उसे भी तो चाहिए अपनी जिंदगी में
थोड़े बदलाव थोड़ी ऊर्जा और रिश्तों के आस
बुआ आई है और आज रुकी है
चमकेगा सूरज आज पूरी रात
चहकेगा पिता का बचपन आज पूरी रात
दहकेगा स्मृतियों का चूल्हा आज पूरी रात
महानगर में हँसेगा एक गाँव आज पूरी रात
लगेगा यादों का मेला, चलेगा बातों का रेला आज पूरी रात
भागदौड़ भरी ज़िदगी में रहेगा न कोई अकेला आज पूरी रात
मचेगा हुड़दंग, बरसेंगे सारे रंग, रहेगा झमेला आज पूरी रात।