1.
बारूद समय के बच्चे
बारूद समय के बच्चे
चुग लाए हैं कहीं से
ढेर सारी तीलियाँ/
खेल रहे हैं
जोड़ जोड़कर
एक एक तिल्ली/
शिक्षालय के मलबे पर बैठ
चुटकियों में बिठा रहे हैं
गणित के जटिल सूत्र /
और देखते ही देखते
खड़ा कर दिया है
खूबसूरत सा एक आशियाँ
उन्हीं चुगी हुई तीलियों से…!
बाजार की तेज चमक के बावजूद
आशियाँ में सबसे ऊँची मुंडेर पर
टाँग दिए हैं
चाँद तारे और सूरज/
बाहर बिखरे कर्कश शोर के बीच ही
बच्चों नें चस्पा कर दिए हैं
आशियाँ की दीवारों पर
प्रेम संदेश/
बारूद समय के बच्चे
फिलहाल तल्लीन हैं
गोल घेरा बनाकर
प्रेम गीत गाने में/
थामे हुए हैं एक दूजे का हाथ
मजबूती से…
ये वही तीलियाँ हैं
जो रख दी गई थीं
बारूद के ढेर के निकटतम/
तीलियाँ जो भाग आईं चुपके से एक दिन
जब जल रही थी दुनिया
सिगरेट की माफ़िक
अंतिम छोर पर
राख और धुएँ में तब्दील होती हुई/
तीलियाँ जो दबाकर बैठे थे मुँह में
भलमानुष की शक्ल में
धारदार उस्तरा लिये
चंद वनमानुष/
वही तीलियाँ जिनसे
दाँतों को खुरचकर
भेड़ों को संबोधित करते हुए
भेड़िये चलाते रहे हैं
नैतिक पाठशालाएँ/
बारूद समय के बच्चे
उठा लाए हैं
वही तीलियाँ
एक नया आशियाँ बनाने को
प्रेम गीत बारम्बार दोहराने को…!
2.
ब्लैक होल
कई तरह के होते हैं
‘ब्लैक होल’…
एक वो जो
अनंत प्रकाश वर्ष दूर
ब्रह्मांड में आसीन हैं
किसी वयोवृद्ध सितारे के
‘सुपरनोवा’ अवशेषों पर बने
कृष्ण विवर…
जिनकी उपस्थिति मात्र
निगल जाती है
संपूर्ण प्रकाश…!
एक ऐसा गर्त
जो लील जाता है
समय की रफ़्तार तक…!
जिसमें समाहित होकर
प्रकाश भी भूल जाता है
अपना अस्तित्व
और रंग जाता है
उसी के गहरे रंग में…!
मौजूद हैं
हमारे इर्द गिर्द भी
अनेक
बहुआयामी
अदृश्य गर्त…
मन की कंदराओं में छुपे
किसी गोपनीय राज से गहरे
कृष्ण विवर…!
रात की स्याही में डूबे
स्याह अपराधों से भी गहरे
काले गड्ढे…
इतने गहरे कि
अँधेरा भी गश खाके गिर जाए..!
चुपचाप दबे पाँव
घात लगाए बैठे
किसी मेंढक की तरह
वो तलाश में रहते हैं
कि दबोच सकें
कोई नवोदित विचार,
लील सकें
कोई प्रदीप्त सितारा,
मिटा दें नामोनिशान
किसी घटना का…
घटना जो बदल सकती थी
सृष्टि के आयाम,
लेकिन अब चढ़ चुकी है
इन ‘ब्लैक होल’ की भेंट…!
बेहद मुश्किल है
इन्हें पहचान पाना,
न दिन के प्रकाश में
न रात के अंधकार में…
प्रकाश ये टिकने नहीं देते,
और अँधेरा…?
अँधेरा इनका सुरक्षा कवच है…!
बेहतर है
बचाया जाए
अस्तित्व को
किसी भी
‘गुरुत्व’ आकर्षण से!
ताकि
जाने न पाए गर्त में
फिर कोई
प्रदीप्त सितारा…!
3.
पुल के उस पार
पुल के उस पार
आदिम पीठ पर
सवार था
अज्ञानता का बेताल/
इसीलिए कुछ झुकी हुई थी…
पुल के इस पार
बौद्धिक युग की पीठ पर
सवार है
हठ बुद्धि का
भारी भरकम कोट/
कंधे तो इससे भी
दुखते हैं…
मगर फिर भी खड़े हैं
तनकर…!
पुल के उस पार
कच्ची पगडंडी है
जहाँ से गुजरती है सदी
बैलगाड़ी में बैठ/
संभावना की
पथरीली लीकें
पार करने का
उपक्रम करती हुई..
पुल के इस पार है
नई दुनिया/
कोलतार लिपटा
राजमार्ग…
राजमार्ग पर हलचल है
काले कोटवाले
एक सीध में खड़े
सभ्य लोगों की…
पुल के उस पार खड़ी
भीड़ बेचैन है/
बीच में खाई है
अदृश्य…
खाई में मौजूद हैं
मोटी खालवाले
अदृश्य मगरमच्छ…
भीड़ के हाथ पाँव हैं मगर
धड़ गायब है!
उसी भीड़ को चीरकर
निकलता है
हाशिये पर खड़ा
कोई साबुत इंसान/
उसे मुक्ति पानी है
पीठ पर सवार
बेताल से…
वो पार करना चाहता है
अदृश्य खाई/
उसे कहा गया है
जो भी पार करेगा पुल
अंततः डूब मरेगा…
तमाम चेतावनियों को
पोटली में बाँध वो
फेंक आता है
अदृश्य खाई में…
वो जानता है
पुल के उस पार है
एक सूर्योदय/
आखर आखर बिखरा सवेरा/
जिसकी रोशनाई थाम वो
दे देगा शिकस्त
एक युग से
पीठ पर लदे बेताल को…!
हाशिये पर खड़ा
वो साबुत इंसान
चाहता है कि
हो जाये किसी भी तरह
मुख्यधारा में सम्मिलित…
दिन रात एक कर
वो खड़ा करता है
किताबों की छत
पुल की अदृश्य खाई पर/
जहाँ से गुजरकर
लगभग हो गई है खत्म
उस पार और इस पार की
सदी भर दूरी..!
वो देख रहा है नया सवेरा,
उसकी राह में बिखरे हैं
आखर आखर मोती/
मोती जिन्हें चुनने के लिए
वो चाहता है झुकना
मगर महसूस करता है
पीठ पर पुनः कोई
अवरोध…!
इस बार अवरोध
बेताल का नहीं/
उसी काले कोट का है,
‘स्लिप डिस्क’ हो गया है शायद…!
4.
मैं क्यों लिखती हूँ?
मैं लिखती हूँ
क्योंकि
महसूस करती हूँ स्वयं को
एक कड़ी की तरह
कागज़ और कलम के
गुरुत्वाकर्षण के मध्य/
क्योंकि
अच्छा लगता है
शब्दों को करीब लाना
और सुनना उनकी खिलखिलाहट
जैसे झुंड में इक्कट्ठा हुए बच्चे!/
लिखती हूँ
केतली से बाहर निकली
गर्मागम चाय की तरह
कि भाप बन उड़ जाती है
दिनभर की थकन
जब उतरते हैं महकते शब्द
कोरे पन्नों के प्याले में/
मेरे लिए लिखना
वैसा ही है
जैसे काँच की चूड़ियों का कलाई में
सर्रर से ऊपर नीचे होना और
मधुरिम मुस्कान का हौले से
हवा में घुल जाना…!
लिखती हूँ
क्योंकि
जब बिताती हूँ
दिन का तीन चौथाई हिस्सा
खुद से दूर रहकर
दिनभर की आपाधापी के बीच/
तो बचा हुआ एक चौथाई हिस्सा
खींचकर ले आता है
मुझे मेरे क़रीब!
दरअसल शब्द तो एक बहाना है
मैं हर रोज़ उनके जरिये
मनाती हूँ उत्सव
अपने होने का…!
लिखती हूँ
क्योंकि सुनना चाहती हूँ
भीतरी कॉस्मिक लय/
देखना चाहती हूँ
उस पार भी
जहाँ ख़त्म हो जाता है
दृष्टि का विस्तार!
इंद्रियों के पार
इंद्रियातीत अनुभव के लिए/
लिखती हूँ
क्योंकि
महसूसना चाहती हूँ
संवेदनाओं को
क्षमता की परिधि के बाहर/
गुनगुनाना चाहती हूँ
उन अनुभूतियों को
जिन्हें एक युग से अभिशप्त कह
दिखा दिया गया है
बाहर का रास्ता…!
लिखती हूँ
क्योंकि
जानती हूँ
शब्द ब्रह्म हैं
और मैं भी एक हिस्सा हूँ
उसी ब्रह्म का/
भले ही सागर में मिलती
बूँद के सौवें हिस्से जितना…!
5.
लैम्प पोस्ट
ये रात के अंतिम पहर की
आखिरी ट्रेन है शायद
डिब्बों में सवार
चुप्पी उतर रही है
एक एक कर…
स्टेशन खाली है
कोई नहीं है वहाँ…सिवाय
एक ऊँघती बुकस्टाल और
प्रतीक्षा सीट के…
जिसपर मौजूद है पहले से
अगल बगल मुँह लटकाए बैठी
उदासीनता का झुंड…!
सीट के नीचे
बिखरे पड़े
कई जोड़ी जूते
व्यस्त हैं बातचीत में…
उनमें दिखाई देती है व्यग्रता
शीघ्रातिशीघ्र अन्यत्र जाने की…!
मैं शायद पता भूल गई हूँ
जाना कहाँ है/
कहाँ से आई हूँ/
और सबसे जरूरी सवाल
क्या करने आई हूँ !
खैर, कोई नई बात नहीं…
दूसरे काम भी अब तक
करती आई हूँ ‘यूँ ही’..!
बिना किसी उत्तर की
प्रतीक्षा के…
क्योंकि करना होता है बस,
रेंगती चुप्पियों का
हिस्सा बनना होता है बस…!
फिर भी पूछ रही हूँ सवाल/
खालीपन से
लौटकर आ रहे हैं
वही सवाल मेरी ओर/
जैसे खाली कुँए से
लौटकर आता है
खाली घड़ा और
खाली आवाजें…!
स्टेशन पर रेंग रही
चुप्पी निकल गई है
सिर नीचा किए…
बिना कोई जवाब दिए/
बचा हुआ है सिर्फ एक
पीली रोशनी वाला लैम्प पोस्ट/
बेजुबानों की
एकमात्र शरणस्थली…
जो ओढ़ते हैं
उसी पीली रोशनी का कंबल/
जमाने भर से
दुत्कारे जाने के बाद…!
ठिठुरते शीत युग में
उम्मीद भरी
रोशनी और गरमाहट लिये/
अंधेरे को दूर तक
खदेड़ता
पीली रोशनी वाला
लैम्प पोस्ट…!
जैसे सुकून देती कोई
आत्मीय कविता…!
पीली रोशनी वाला
लैम्प पोस्ट
शायद बता दे पता
मेरी उलझनों का/
रिक्त सवालों का…!
लैम्प पोस्ट नें
किया है इशारा
उसी आखिरी ट्रेन की ओर/
आखिरी गंतव्य से आगे
एक नया रास्ता है…
अनदेखा/
अनचीन्हा/
जहाँ से जाना है पैदल
नितांत अकेले..!