संवेदना
बिछड़ा जब भी कोई अपना
तो मैंने उसे किसी बीज की तरह सहेज लिया अपनी क्यारियों में
जब भी किसी की स्मृतियों से हुलसने लगा मन, मैंने पौधों को शीतल जल से आप्लावित किया
जिस क्षण फूटे शाख पर नवीन किसलय
मैंने आकाश की तरफ़ दोनों हाथ उठाकर पूरे मन से धन्यवाद कहा
झड़ने लगे जब टहनियों से पीत पल्लव
मैंने निःसर्ग को प्रेमिल हृदय से कोंपलों की प्रतीक्षा में तल्लीन देखा
दुःख, अवसाद, अनिद्रा
और तिरस्कार को ज़मींदोज़ कर
मैंने शीर्ण होता महसूस किया अपने अन्तस में पल रहे अमर्ष को
पावस में बूंदों की बौछार के संग, धरती के गर्भगृह से बीज के प्रस्फुटन की रचना प्रक्रिया को पल भर के लिए
धैर्य धरकर आत्मसात किया
हरियल वृक्षों से सीखा विनयशील बनना
और ठूंठ ने
सिखाया अपनी मिट्टी से जुड़े रहने की कला
किसी खिलते हुए पुष्प को देखा तो ज़रा ठहरकर, भीगी पलकों के कोरों को अक्सर पोंछ लिया
प्रार्थनाओं में नित शामिल कर लिया, पौधों के संग समय व्यतीत करना
सुग्गे, तोते, मैना, कोयल, गौरैया, कौआ और गिलहरियों के लिए मैंने कुछ इस तरह बचा ली है थोड़ी-सी हरीतिमा
विश्वभर में ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहे अपनों के लिए
काश! इसी तरह बची रहे पृथ्वी पर वनस्पतियॉं, बचा रहे जीवन, बचे रहें लोग…बची रहे मुस्कराहट…और बची रहे मानवीय संवेदना।
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देहरी
हर घर में होता है एक दरवाज़ा
हर दरवाज़े की होती है एक देहरी।
दरवाज़े से कभी मनचाहे
तो कभी अनचाहे लोग
प्रवेश व प्रस्थान
किया करते हैं।
मगर देहरी के नसीब में
नहीं लिखी होती कोई गति।
वो बेहद ख़ामोशी से टिकी रहती है
अपने ही द्वार की जड़ों से
अनगिनत वर्षों तक।
चुपचाप सहती है
कभी सूरज की तेज़ रोशनी
तो कभी हवाओं का उन्माद
कभी बूंदों झड़ियाँ
तो कभी हिमपात।
कभी झूम उठती है
ख़ुशियों की आमद पर
तो कभी अश्रु बहाती है स्तब्ध
विषमताओं के पहाड़ को देखकर।
निःसर्ग के बदलते मिज़ाज़ की तरह ही
घर के भीतर के सारे
भावनात्मक झंझावातों को भी मूक बनकर
देखती और सुनती रहती है निनिर्मेष
ड्योढ़ी, बरोठा, दहलीज़
चौखट या देहली
नाम चाहे कोई भी क्यों न हो
अपने आश्रयदाता को त्यागकर पलभर के लिए भी दूर जाने का साहस देहरी नहीं जुटा पाती जीवन पर्यंत।
बचाये रखती है हर सम्भव लाज
परिवार के प्रत्येक सदस्य की
जब तक की कोई न लॉंघें
प्रेम, संवाद, समझदारी
और समर्पण से बने घर की दहलीज़
यूँ तो लकड़ी सीमेंट या पत्थर
जैसी अमूर्त चीज़ों से बनी
घर की ड्योढ़ी के
भाग्य में लिखे होते हैं
घटनाओं और परिघटनाओं के अनंत संवेदनात्मक दॄश्य
और आग्नेय क्षण भी
किंतु कई बार
दायित्वों व प्रतिबद्धताओं की दुशाला ओढ़े देहरी
अपनी ही नियति पर
किंकर्तव्यविमूढ़-सी
ठिठकी नज़र आती है
बेतरह सी।
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एक ही शहर में रहने वाले लोग
एक ही शहर में रहने वाले लोग मुलाक़ातों और संवादों के सुख से भरे रह सकते हैं निरंतर
मिटा सकते हैं मनमुटाव की सारी
छोटी बड़ी तल्खियॉं केवल अपने
एक स्नेहिल मुस्कान के ज़रिए
भर सकते हैं फिर से नए रंग
सम्बन्धों के कैनवास पर।
खोल सकते हैं
अपने मन के भीतर की
सभी गॉंठें किसी शाम
चाय पीने के बहाने।
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एक ही शहर में रहने वाले लोग
मुॅंह फेरकर चलने से
थोड़ा-सा करते हैं परहेज़।
सम्भाल लेते हैं कई बार
आगे बढ़कर मुरझाते
रिश्तों की बेल को।
कदाचित मरने नहीं देते
अहसासों में धड़कते प्रीत के लम्हे।
थाम लेते हैं किसी रोज़ आगे बढ़कर
पुराने किसी दोस्त के हाथों का
भारी भरकम सामान।
फ़िर बातों ही बातों में
बड़ी आत्मीयता से लिफ़्ट दे देते हैं
आगे वाली बस स्टॉप तक।
~
एक ही शहर में रहने वाले लोग
मिल बैठकर लगाते हैं तरक़ीब
खोई हुई ख़ुशियों को ढूॅंढ निकालने की।
प्रतीक्षा में लीन रहते हैं अनायास
किसी चौक चौबारे गली या मुहल्ले से
गुज़रते वक़्त आमने सामने टकराने की।
गाहे-ब-गाहे पूछ लेते हैं
अपने भूले हुए स्नेहीजनों का हाल।
एक लंबे समय के बाद
विकसित कर लेते हैं अपने भीतर
माफ़ करने या माफ़ी मांगने की
कलात्मक बारीकियां।
एक ही शहर में रहने वाले लोग
बस एक कदम बढ़ाकर पा सकते हैं
अपने मन का संतोष।
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सहसा
सहसा ही किसी रोज़ उभर आती है
रिश्तों की
मुलायम सी पीठ पर कोई कूबड़
जो पूरी संरचना को विकृत कर देती है
अपनी अशोभनियता से।
~
सहसा ही फूट पड़ता है
मन के कोने में छिपा पुराना कोई आक्रोश
और देखते ही देखते
बहा ले जाता है
सुख-संवेदनाओं के प्रत्येक तिनके को।
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सहसा ही जाग उठती है
इंद्रियों में विकल-सी उत्तेजना
जो जराहत कर देती है
विवेक और मर्यादाओं के
तमाम लज्जावस्त्रों को।
~
सहसा ही महसूस होती है
तीव्रता से शरीर के किसी अंग में
कोई वेदना
जो सुक़ून के हर असर को कर देती है
बेरहमी से नेस्तानाबूत।
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सहसा ही बोल उठते हैं
दर्द के सिलसिलेवार दस्तावेज़
और शब्द-दर-शब्द ज़िरह करते हैं
अपनी ही नाकामियों से
बाज़ औक़ात।
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सहसा ही वंचित रह जाते हैं
अत्यधिक नज़दीक वाले लोग
जिन्हें दरकार होती है
सबसे अधिक श्रद्धा, समर्पण
और आसक्ति की।
~
सहसा ही कौंध उठती है
स्मृतियों में किसी दिन कोई धुन
जो कहानी के खोए हुए क़िरदारों को
आपस में जोड़ती चलती है
बिना किसी अंतराल के
सहसा ही।
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अभिसार
अभिसार के पश्चात् भी
बहुत कुछ रह जाता है मौन
घुटी-घुटी सी
अभिलाषाएँ
मूक होकर भी करती हैं संवाद।
वो जो अनकहा रह गया
शायद
हल्की-सी, बावली-सी
छुअन
एक कसम
एक तरंग
एक राग
जो उमड़-उमड़कर
रह गया शेष
मुंह बाएँ किये
जा चुका है साथी।
अभी तो
अपनी कामनाओं का
खोला भी नहीं पिटारा।
अनंत में
विलीन भी नहीं हुई
मुस्कान।
देखो
अट्टहास कर रहा है समय
न जाने
ये कालरात्रि
कभी ख़त्म होगी भी
या नहीं?
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दशरथ मॉंझी
शानदार! ज़बरदस्त! ज़िंदाबाद!
दशरथ मॉंझी तुम आदमी तो रहे
एकदम फ़र्स्ट क्लास!
फगुनिया की स्मृतियों को सीने से लगाये
प्रस्तरों के दम्भ को
अपने अदम्य साहस से चीरकर
गहलौर के आमजनों से लेकर
वजीरगंज के निवासियों को
आवागमन की सुलभता से जिसने नवाज़ा
देखो, उसी ने
आज अपनी लौंगिया को खो दिया।
लौंगी वही थी
जिसने पिता का हाथ बटाते हुए अनगिनत उपलों को राह से कभी हटाया
तो कभी पर्यटकों को पिता के जुझारूपन से
अवगत कराया।
बाइस वर्ष की दुःसाध्य साधना के दौरान
धुन के पक्के बने रहे तुम
नितांत अकेले ही छेनी और हथौड़े से
काम लेते रहे तुम
“माउंटेनमैन” के ख़िताब से
जब दुनिया ने तुम्हें पुकारा
अतीत की बेबसी को यादकर
आसमान से टूटा एक सितारा।
शासन और प्रशासन ने भला कब
धरोहरों को था संभाला
लम्बी दुरूह बिमारी ने
तुम्हारी पुत्री को भी
मौत के घाट उतारा।
पहाड़ों को खोदकर फूटते सुना था
जलधार
तुमने अभीष्ट की आसक्ति में
पर्वत काटकर बनाया डगर विशाल।
शानदार! ज़बरदस्त! ज़िंदाबाद!
दशरथ मांझी तुम आदमी तो रहे
एकदम फ़र्स्ट क्लास!
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बेशरम के फूल
नदी, तालाब, नाले
या किसी भी कूड़े वाली जगह पर
अक्सर खिलते देखा है इन्हें!
बैजनी और जामुनी रंगों की
हल्की और गाढ़ी रंगत की
ऐसी कमनीय कलाकारी की बस कोई देखे तो
बिना लुब्ध हुए रह ही न पाए।
रस गंध और कॉंटों से रहित
इन बेहया के फूलों का गुणधर्म होता है
बेहद औषधीय
कितने ही तो आनुवांशिक रोगों
और पीड़ाओं से मुक्ति दिलाते हैं
इनके हरित पर्ण
इनकी टहनियों से टपकते दूध
और तनों के वल्कल से
चर्म रोगों के निस्तारण के खुलते हैं
अनंत द्वार भी…
सर्दी, गर्मी और बारिश के मार की
परवाह किये बिना
ये हेहर बारहों महीने झूमते रहते हैं
अपनी ही लय और ताल में
मदमस्त…
बाल्यावस्था में इनकी शाखाओं से
बहुधा माताओं और शिक्षकों ने की है ख़ूब
हाथों और पीठ पर बच्चों की धुनाई भी…
उस वक़्त ख़ूब कोसा करते थे
स्कूल के गलियारे में थोड़ा ठहरकर
जी भर कर इन्हें!
वनमाली को मवेशियों के भय से
अरूक्ष वनस्पतियों के
बचाव के लिए,
फुलवारी के चारों ओर रोपण करते देखा है
कई-कई बार
इनकी प्रशाखाओं को बड़े ही जतन से…
बेशरम के इन फूलों की
जिजीविषा केवल इतनी ही कि-
बिना किसी परवरिश के भी
ये लुटाते जाते हैं
अपनी सुंदर प्रतिबद्धता
निसर्ग में संचित हरियाली की ओर…