हुआ द्रौपदी का हरण चीर है,
फिर भी धर्म परम वीर है।
सत्ता के द्युत में भी जब धर्म निहित है,
अधर्म राज्य में फिर कैसे बोलो धर्म विदित है?
अंधे हैं धृतराष्ट्र, किन्तु विदुर भी तो मौन खड़े हैं,
सत्ता की भक्ति में, देखो! अधर्मी बन भीष्म पड़े हैं।
स्वयं की उपेक्षा अधर्म लगी जिन्हें, कहां उस कर्ण के धर्म जड़े हैं?
सबने अपने हिस्से का धर्म बताया,
नारी अपमान क्या अधर्म नहीं है?
जितने पापी दुर्योधन के चमचे
पाप के भागी क्या धर्म-भक्त नहीं हैं?
द्रुपद सुता को मिला न्याय कहां है, सत्ता के गलियारों में,
अपमान की याद कहां थी, पांच ग्राम की याचनाओं में।
शांति प्रस्ताव में यादव श्रेष्ठ ने पांच गांव ही तो मांगा था,
स्वयं प्रभु ने भी तो तब स्त्री अस्मिता को ललकारा था।
ग़लत उदाहरण पेश हुआ है, क्या सभी धर्म-पुराणों” में?
पुराणों के ऐसे ज्ञाता ही तो, बैठे हैं उत्तर के सिंहासन पर।
अंधे तो अब भी है राजन, और मौन अभी विदुर खड़े हैं,
कृपाचार्य की मति जड़ है, भीष्म पर केवल भक्ति-ऋण है।
उठा गांडीव पांचाली आघात जो करती,
सत्ता पर प्रतिघात भी करती।
अवशेष बचा अब पार्थिव सा केवल,
बोलो कैसे प्रतिशोध वो लेती।
चिता जली अंधियारे में,
लपटों से रोटी सत्ता ने सेकी।
हां! हुआ द्रौपदी का हरण चीर है,
फिर भी धर्म परम वीर है।