मानो कल की बात हो
टेबल पर नया कैलेंडर सज गया
दिन बीतते गए
पर यादों का काफिला सदाबहार
जानते हुई भी बेसुध रही
पीर मजारों में किये सजदे
मुर्शद तक पहुँच गई फरियाद
लौटा दी बिसरी अबीरी महक
पर महक भी अजीबो-गरीब
अपनी, फिर भी पराई
चाहती तो अपनाती
पर थाम लिया जंजीरों ने
सोचा मेरा उजाला,
न ला दे कहीं अँधियारा
कश्मोश्कश विरली
मुर्शद पर सौंप दी डोर
अबीर से महका मन
पलट गया फिजाओं का रुख
बड़प्पन से थामी उंगली
सर पर रखा हाथ
संभाला और महका दिया मन मयूर
मुर्शद की रज़ा मान
स्वीकारी हर ख्वाहिश
थमा दिया अनजाने का हाथ
दूर होकर भी अबीर से महकेगा मन,
हर पल, हर लम्हा
पर मूक
सिर्फ तेरे लिए किया नया आगाज़
…बस अंतिम बार
उलटने दे कैलेंडर के पन्ने