बस्तर के जनजातीय परिवेश में कविता सदियों से लहलहाती फसल रही है। आदिवासी कविता ने कभी जनजीवन के हर्ष और विषाद को धुन-लय दी है तो कभी वह अंतर्निहित संघर्ष और शोषण को उजागर करने का स्वर बनी है। कविता राजा और देवी-देवता का स्तुति गीत बनी तो भूमकाल और विद्रोहों का स्वर भी बन कर बाहर निकली है। बस्तर की आदिवासी कविता में बिम्ब वही हैं जो उनके रोज के अनुभव हैं जिनमे आदिवासी समाज नित्य उठता बैठता, जिनको जीता आया है। इसीलिये कविता में चिड़ियाँ भी आती है तो तूम्बा भी आता है, मछली भी आती है तो कांटा भी आता है, सौकार (साहूकार अथवा ब्याज पर रुपये देने वाला) भी आता है तो राजा भी आता है, दर्द भी आता है और ओझा-गुनिया भी आता है। बस्तरिया काव्य आज भी मौखिक साहित्य के रूप में ही विद्यमान है। इसे संग्रहित करने के गिने चुने प्रयास ही हुए है और उसपर बहुत अधिक कहा-लिखा नहीं गया है। मुख्यधारा कही जाने वाली कविता को यदि किसी तरह का दर्प हो कि उसकी कविता में रहस्य है, प्रयोग है, गहराई है, दर्शन है तो जरा रुक कर यह गीत गंभीरता से सुनना चाहिये – सोरा धारू धरती नउ खण्डु पिरथी हो/ धरती मालिक बोरू लरियो मालिक बोरू हो/ धरती मालिक लिंगो लरियो पिरथी मालिक राजाल हो/ लिंगोना बेहले पाटा लरियो, लिंगोन बेहले डाकान हो/ पहिलि पाटा लिंगो लरियो, पहिलि डाकान लिंगो हो/ माड़िया पाटा लयोर लरियो माड़िया डाकान लयोर हो/ नाडुं नर्का दिया लरियो निके पोरोय पोयतोम हो/ होंगु दापु आयमा लरियो निके होहार लागि हो।
कई कई कोण से इस गीत को समझने की कोशिश करता हूँ और हर बार नये नये अर्थ मिलते हैं। यह .काव्य प्रार्थना भी है तो आदिवासी दर्शन का उद्धरण भी। धरती को ले कर जिज्ञासाओं का एक सिरा है तो लिंगो के माध्यम से उत्तर भी सामने रखा गया है। कविता सवाल पूछती है कि आखिर सोलह खण्ड वाली पृथ्वी और नौ खण्डों वाले आकाश का स्वामी कौन है? उत्तर स्पष्ट है और बिम्ब के साथ दिया गया है कि जिस तरह राजा पृथ्वी का स्वामी होता है उसी तरह इस जगत का स्वामी है लिंगो। वही लिंगो जिसने पहला गीत लिखा फिर बहुत से गीत बनाये। वही लिंगो जिसके पहले कदम से जीवन का प्रादुर्भाव हुआ और आज माड़ियाओं की हर पदचाप का सर्जन उससे ही तो संभव हुआ है। मध्यरात्रि में दीपक जला कर हम तुम्हारा स्मरण कर रहे हैं लिंगो जिससे कि तुम हम से नाराज न हो जाओ, हमारा जोहार स्वीकार करो। यह कविता जितनी सहज है उतनी ही विशेषताओं भरी है।
बस्तरिया कविता में अधिकांश प्रश्नोत्तर शैली की हैं अत: सीधे श्रोता से बात करती हैं और उससे जुड़ती हैं। अनेक बार कविता में समुपस्थित तीसरा पक्ष भी अपनी बात किसी न किसी माध्यम से कहने लगता है। यह तीसरा पक्ष कोई देवी-देवता अथवा मृतक पूर्वज हो सकता है। एक मृत्यु गीत से इसी तरह का उदाहरण देखिये – झुलना झूले मायू रा/ निकुन सेवा कियकौम रा/ निकुन पूजा हियाकौम रा/ काला मेंडा हियाकौम रा/ ताने भोजन केविन रा/ पुजारी लामे लेंगरा हिमु रा/ ताने भोजन किया का रा/ पुजारी अहर टुपु हिमु रा/ गिरदा वानाह किमु रा…।
मृतक स्तम्भ बना कर अपने पूर्वजों को सर्वदा स्मरण में रखने वाले आदिवासी किस तरह उनसे जुड़े होते हैं यही इस गीत की मधुरता है। मृतक पूर्वज से उसके परिवार की मनुहार चल रही है जहाँ उसे प्रसन्न रखने के लिये कहा जा रहा है कि आप झूले में बैठ कर झूलो और हम आपकी सेवा करेंगे, हम आपको काला मेंढ़ा भेंट में देंगे। अब मृतक पूर्वज बिना उत्तर दिये कैसे रह सकता है? उसकी बात कहने का माध्यम कोई भी बन सकता है चाहे वह घर का ही कोई बालक-बालिका हो अथवा कोई ओझा-गुनिया। मृतक स्पष्ट कर रहा है कि उसे काला मेंढ़ा खाने में कोई दिलचस्पी नहीं है उसे तो लम्बी पूंछ वाला बैल चाहिये। वह परिजनों के समक्ष मांग रखता है कि सुगंधित धूप जलाया जाये और अच्छी तरह उसकी सेवा की जाये। कविता के इस पक्ष में यह समझने की आवश्यकता नहीं कि मांग रखी गयी है तो मान भी ली जायेगी। परिजन मृतक से मान मनुव्वल करेंगे, माँग को घटाने की कोशिश करेंगे और अनेकों बार बैल से आरंभ हुई मांग मुर्गी के अंडे पर जा कर भी खतम हो सकती है। कई बार लड़ाई-झगड़े और रूठना-मनाना जैसे दृश्य भी सामने आते हैं। आदिवासी कविताओं में इसी सादगी का सोंधापन है।
इन कविताओं की सबसे बड़ी बात है स्पष्टता। इस बात का ध्यान है कि सुनने वाला सहजता से अर्थ ग्रहण करे और आनंदित हो। कविता नयी पीढ़ी को सिखाती है, युवाओं के लिये प्रेम संप्रेषण का माध्यम है तो बुजुर्गों के लिये अपने अनुभव बाँटने का भी। मैथिली शरण गुप्त की प्रसिद्ध कविता “माँ कह एक कहानी/ बेटा समझ लिया क्या तूने/ मुझको अपनी नानी” की पूरी बुनावट ही प्रश्न और उसका उत्तर है। अधिकतम बस्तरिया कविता का यही स्वाद है। गुलेल से शिकार करना सिखाने के लिये बना यह गीत और इसकी सहजता देखिये – कायनाके गुलेल दर्द कायनाके डोरी वो दई कायनाके गुलेल/ बाँस के तो गुलेल बाबू सन सुनरी डोरिगा बाबू/ कायनाके घोड़ा दर्द कायनाके फाटा वो दई/ बाँस के तो घोड़ा बाबू सुत के तो फाटा बाबू/ कायनाके धुनी दई कायनाके के गुल्ला/ बाँस के तो धुती बाबू माटी की गुल्ला/ कोनी हाथ में गुलेल दई कोनी हाथ में गुल्ला/ देरी हाथ में गुलेल बाबू जिउनी हाथ में गुल्ला।
बेटे का प्रश्न है कि माँ बताओ गुलेल कैसी होती है, वह कैसे बनायी जाती है? प्रत्युत्तर में माँ कहती है कि बेटे बाँस की लकड़ी और सन की रस्सी से गुलेल बनती है। बेटा पुन: पूछता है कि गुलेल का घोड़ा किसका और उसकी लगाम किसकी बनेगी? माँ बताती है कि बाँस से घोड़ा बनाया जायेगा और सुतली से उसकी लगाम बनेगी, इस तरह गुलेल तैयार होगी। बात यहीं पूरी नहीं हुई चूंकि केवल गुलेल के घोड़े और उसकी लगाम से ही बात नहीं बन सकती थी। बेटे ने अगला प्रश्न किया कि माँ टोकरी किससे बनती है और छोटी गोलियाँ किससे बनती हैं? माँ ने बताया कि टोकरी बाँस से बनेगी और मिट्टी से छोटी छोटी गोलियाँ बनायी जायेंगी जिनका प्रयोग गुलेल से शिकार करने के लिये किया जायेगा। बेटे ने पुन: पूछा कि किस हाँथ में गुलेल पकड़नी है और गोलियाँ किस हाँथ में रख कर चलानी है? माँ बताती है कि बेटे गुलेल को बायें हाँथ में पकड़ना है तथा दायें हाँथ से गोलियाँ चलानी है।
कविता वह जो अपने परिवेश का दृश्य उपस्थित कर दे, परिस्थितियों का इस तरह प्रस्तुतिकरण हो कि उसे सुनने वाला भाव-विभोर हो उठे। अकाल पर इस आदिवासी कविता को देखिये जिसमें अनेक मर्म को छू लेने वाले बिम्ब हैं और ऐसे प्रभावी कि आश्चर्य से भर देते हैं। कविता है –निमारे वेके दांतोना रावानी/ डोरी भूमि दांतोंना दादा ले/ भूमि दुकार दुकार रौए दादा ले/ भूमि ते दुकार अरित रौए दादा ले/ हिकात हुरो भैंसो रौए दादा ले/ सरपाने भैसो अरित रौए दादा ले/ पुहले दहेलात रौनाल रौए दादा ले/ वेटले माराते कौशल रौए दादा ले/ कावर वोकार इंता रौए दादा ले रायका रेयौन कौराल रौए दादा ले।
एक भूखे का प्रश्न कि कहाँ उड़े बाज? और दूसरे भूखे का उत्तर कि बाज पश्चिम की ओर उड़ चला है क्योंकि भूख का दिन चढ़ा आया है और सारी दुनियाँ में अकाल फैला हुआ है। मेरे दोस्त वे भैंसे जो काली काली होती हैं सारी की सारी मर गई हैं। रूई के फूल सी सफेद होती हैं गायें, वे गर्मी में लड़खड़ा कर गिर पड़ी हैं। टूटी हुई मिट्टी पर बाज और सूखे हुए पेड़ पर कौवा बोल रहा है और अब यह उड़ कर नीचे आने वाला है।
अकाल पर मैने अनेकों कवितायें पढ़ी हैं किंतु स्मरण नहीं आता कि इतनी स्वाभाविक और सजीव कोई अन्य रचना निगाह से गुजरी हो। समस्या अथवा परिस्थिति ही क्यों आदिवासी कविता अपने भूगोल और इतिहास की व्याख्या के साथ भी जुड़ती है। बस्तर में अन्नमदेव और उसके वंशज काकतीय नहीं चालुक्य थे इस बात को इतिहासकार बहुधा एक कविता में प्राप्त पंक्ति “चालकी बंस राजा” से जोड़ कर देखने की कोशिश करते हैं। इसी तरह कला संस्कृति किस तरह राज्यों-रियासतों के दायरे लांघती रही है यह जानने के लिये शरीर पर चित्रित कराये जाने वाले गुदना पर ये पंक्तियाँ देखें –अगो बागाईडाग टुमकी दाई/ राईगढ़ दा डंकिंग दाई/ अगो बागा वाताक़ंग दाई/ सिंगार काती वातांग दाई/ सिंगार काती पुरौंग दाई/ डंडा नीला किंतांग दाई/ हुई तासी पुरौंग दाई/ मात मोली हीवौन दाई/ मात कोटी हेवाक दाई/ मात सिंगार कोटेरोम दाई।
प्रश्नोत्तर शैली की ही यह कविता बताती है कि गुदना गोदने वाले रायगढ़ से आये हुए हैं। रायगढ़ से बस्तर का जुड़ना और परस्पर कला के आदान प्रदान का इससे बेहतर साक्ष्य क्या हो सकता है। कविता में मानवीय भावों का चित्रण देखिये कि गुदना कराने वाली युवती सूई से डर रही है और होने वाले दर्द की कल्पना मात्र से विचलित है। वह गुदना न कराने के लिये तरह तरह के बहाने बना रही है जैसे कि ये गुदना करना नहीं जानते, इन्हें सूईयाँ चलाना नहीं आता इसलिये हम उनके दाम नहीं चुकायेंगे। इसके साथ ही साथ गुदना करा कर सुन्दर दिखने की इच्छा भी युवती में है अत: वह ऐसा रास्ता निकालना चाहती है जिससे दर्द भी न हो और काम भी बने अत: सखी से पूछती है कि अगर गुदनारियों (गुदना करने वालों) को आपत्ति न हो तो मैं स्वयं अपना गुदना कर लूं।
जीवंतता आदिवासी समाज का परिचय है। आज घोटुल समाप्त हो गये हैं तथापि उससे जुड़े गीत युवा मन के भीतर रचे बसे हैं। घोटुल वे सांस्कृतिक सभागार थे जिन्होंने लम्बे समय तक बस्तरिया आदिवासी कला, संगीत, साहित्य तथा समाज की बनावटक़ को दिशा देने में महत्व की भूमिका निभाई थी। घोटुल इतने शक्तिशाली संस्थान थे कि अनेक आदिवासी क्रांतियों के समय में वहीं युवा एकत्रित होते, वहीं उनके हथियार तैयार होते और वहीं से योजनायें बना करती थीं। घोटुल युवाओं नित्य रात्रि सम्मिलन स्थल तो था ही प्रेम और परिणय की स्थली भी था। चेलक और मोटियारी की अनेक मनोरम कहानियाँ और मनभावन दृश्य बस्तर में अब दिखाई-सुनाई नहीं पड़ते। घोटुल संस्था के इतिहास बनने की तकलीफ को उससे जुड़ी कवितायें कम अवश्य करती हैं। यह गीत देखिये जहाँ युवती विवाहित होने जा रही है अत: उसे घोटुल छोड़ना पड़ रहा है। यह उसके लिये गाया जा रहा बिदाई गीत है – घोटु दे गाजुर हिन्दु रौय हेलो/ किलो रे कोरू राचा रौय हेलो/ नियरा जोर तोर लायोर रौय हेलो जोदिरे औनदौय किनी रोय हेलो/ संगी रे तासी डाकी रौय हेलो/ दिन्दा रे राजते मंडी रौय हेलो/ अंदेरे राजो पुतो रौय हेलो/ बुतो रे कबार पुनविन रौय हेलो/ सगारे सिदुर पुनविन रौय हेलो/ हतों ने वातों ने पुनवित रौय हेलो/ कोसूरे कोयतुने पुनविन रौय हेलो/ इडेके सूड़ी वायार रौय हेलो/ इडेके बारा पुंडाजी रौय हेलो।
गीत में लड़की के लिये उलाहना है कि घोटुल जैसी सुन्दर जगह को छोड़ कर विवाहित होने जा रही हो अब आनंद के स्थान पर कठिन व्यावहारिक जीवन से तुम्हारा सामना होने वाला है। कविता युवती को छेड़ते हुए कहती है कि शोर और आनंद वाली स्थली, अविवाहितों का राज्य और अपने चेलक (प्रेमी) को तुम छोड़ कर जा तो रही हो, अब लौट कर इस आनंद और उत्सव भरी दुनिया में नहीं आ पाओगी। कविता युवती को सचेत करती है कि विवाह के बाद तुम नहीं जानती कि कैसे कैसे समयों से गुज़रना होगा, कैसे कैसे मेहमान आयेंगे, कैसे कैसे अधिकारी आयेंगे, कितना श्रम है विवाहितों की दुनिया में यह सब तुम जल्दी ही जान जाओगी।
आदिवासी जीवन में युवक और युवती विषम इकाईयाँ नहीं हैं। वे एक साथ हैं तभी उत्सव हैं अत: गीतों पर भी दोनो का समान हक है। घोटुल छोड़ने वाले लड़के पर यह रचना देखिये – डिंडोराजि जोराजो निना/ इडे राजो पुटी नोनो/ निया वायना घोटुल नोना/ पारमाकोरो घोटुल नोना/ दावा कायदे गिकी नोना/ टिना कायदे हर्गा नोना।भावार्थ है कि युवक अब तुम स्वतंत्र लोगों के राज्य को छोड़ कर परतंत्रता की दुनिया में जा रहे हो। मैं इस बिम्ब से बहुत प्रभावित हूँ जहाँ युवक की सुन्दरता की तुलना सांड़ के सींगों से की गयी है। तुलना अद्भुत है कि ओ सांड़ के सींगो से सुन्दर युवक घोटुल में तुम्हारी स्मृतिया सर्वदा रहेंगी कि किस तरह तुम बायें हाथ में गीकी (चटाई) और दायें हाथ में डंडा लिये रोज यहाँ आया करते थे।
संवेदनायें केवल मनुष्यों से जुड़ी नहीं अपितु सम्पूर्ण जीव और वनस्पति जगत भी तो आदिवासियों का सहचर है। युवक विवाह करने जा रहा है और ताड़ का पेड़ जो चार दीवारी के पास लगा हुआ है वह उदास है। कविता देखिये –बारी काटा छिन्द बूटा राती राती कंडे/ ना कांड रे छिन्द बूटा बाबू मौड़ पिंडे/ बाँदो ते बाँदो पुजारी चुटुक मौड़ बाँदो।युवक के नये जीवन में उस ताड़ के पेड़ की भी तो सहभाविता होगी जो घर की चारदीवारी में खड़ा है। जिसने युवक को निरंतर बड़ा होते देखा है। वह जिसके पत्ते युवक के छत पर का छप्पर हैं और जिसका रस युवक को सर्वदा आनंदानुभूति देता रहा है। आदिवासी पिता ताड़ की मनोदशा को समझ रहा है इसलिये उसे सांत्वना देता है, ओ ताड़ के पेड़ मैं जानता हूँ कि तुम सारी रात रोते रहे हो। अब मत रोना क्योंकि अपने विवाह के अवसर पर मेरा बेटा तुम्हें मौड़ के रूप में अपने सिर पर अवश्य पहनेगा।
नख-शिख वर्णन में हिन्दी के मध्यकालीन कवियों ने दर्जनों ग्रंथ रच दिये हैं और सभी के केन्द्र में नायिकायें ही रही हैं। यह रचना देखिये जहाँ आदिवासी युवक के अंग प्रत्यंग का मनोहारी वर्णन किया जा रहा है। कोई युवक लड़कियों के समक्ष अपने मित्र का रूप चित्र रख रहा है – कुडौर कोलांग डाकांग मावौर/ नेका डाकांग वातमा मावौर/ केरी गाबो मेंडुल; मेंडुल गाला निनदोये/ अली आकी मोहा; मोहा गाला निनदोये/ बरेल आपकी छाती छाती गाला निनदोये/ कारेका काया तेला; ताला गाला निन्दोये/ किरवूल माटी डंडा; डंडा गाला निनदोये/ नेका झाले केना डंडा डोले मायार।अर्थात युवक छैला-छबीला-गठीला है। लड़के का एक डग कुदाल की मूठ जितना लम्बा है। वर्णन करने के साथ ही गीत के माध्यम से वर्णित युवक को अपनी विशेषताओं का प्रदर्शन करने के लिये भी उकसाया जा रहा है कि जल्दी जल्दी डग मत भरो लड़के। गीत आगे कहता है कि लड़के का तन केले के फल की तरह है; वह अभी पका हुआ नहीं है। लड़के का चेहरा पीपल के पत्ते जैसा है; वह अभी पका नहीं है। लड़के की छाती बरगद के पेड़ की तरह है, वह अभी पकी नहीं है। लड़के का सिर कादान के फल की तरह है, वह अभी पका नहीं है। लड़के का हाथ टुंडरी की जड़ के समान है, वह अभी पका नहीं है। ओ लड़के अपना हाथ अधिक मत हिलाओ, वर्ना यह टूट जायेगा।
सभी उदाहरण यह तर्क सिद्ध करते हैं कि बस्तरिया आदिवासी कविता में प्राण तत्व हैं।इन्हें सुननना भी अनूठा अंभव होता है चाहे आप पंक्तियों के अर्थ न समझ रहे हों। “ते रेला, रे रेला रे रेलो” अथवा “ते नामुर ना मुर रे ना ना” जैसी अनेक स्थाई धुनों में गीत पिरोये हुए हैं जो नितांत कर्णप्रिय प्रतीत होते हैं। ध्वनियाँ भी गीतों में जगह बनाती दिखाई पड़ती हैं जैसे – “टिमकी टिमकी टिम टिम/ टिम टिम टिम टिम/ ते ते रेलो रेलो रे हो ओ ओ”। मुहावरे और लोकोक्तियों के प्रयोग का सुन्दर उदाहरण भी काव्यांशों अथवा आम बोलचाल की भाषा में देखा सुना जा सकता है। यह कहावत देखें कि “काकड़ी चोर, कुम्हड़ा चोर, धीरे धीरे घर फोड़” अर्थात कहड़ी और कुम्हड़ा जैसी छोटी छोटी चीजें चुराने वाला एक दिन अपना घर अवश्य फोड़ लेगा।
बस्तर में लोक काव्य के गायन की परम्परा है तथा चईत परब, लेजा, डाँडामाली आदि गीत बहु प्रचलित है। अनेक गीत ऐसे भी हैं जिन्हें महाकाव्यों की श्रेणी प्रदान करनी चाहिये। कई तरह के जगार गाये जाते हैं जिन्हें जागृति पर्याय से समझना अधिक उचित होगा। जगार वस्तुत: उत्सवधर्मी आयोजन ही हैं जिसमें कभी देवता को जगाने का प्रायोजन होता है तो कभी अच्छी फसल के आभार स्वरूप। लछ्मी जगार, तिजा जगारम अस्य़मी जगार, बाली अगार आदि मौखिक परम्परा के महाकाव्य बस्तर के विभिन्न क्षेत्रों में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हुए आज भी चलन में हैं।
बस्तरिया आदिवासी कविता के वर्तमान स्वरूप की तलाश में पिछले दिनों दक्षिण बस्तर क्षेत्र में मुझे पत्रकारसाथियों के माध्यम से कुछ गीत सुनने को मिले जिन्हें जनगीत कहा गया था। बताया गया कि माओवादी इस माध्यम से कथित जागृति करते हैं तथा अपने संदेशों का ग्रामीणों के मध्य प्रसारण करते हैं। इस बात ने मुझे गीतों के भीतर अंतर्निहित ‘जागो’, ‘लडो’ और ‘होंगे कामयाब’ जैसे कठपुतली शब्दों की भावभंगिमाओं को बूझने पर बाध्य किया। यह बात समझ से परे नहीं कि आज हिन्दी कविता की हत्या के जिम्मेदार वे लोग हैं जिन्होंने सहज अभिव्यक्ति के इस माध्यम पर प्रयोगों और विचारधाराओं से कुठाराघात किया है। छापने और पुरस्कारों का चुग्गा दे दे कर जैसी कविता पिछले कुछ दशकों से मुख्यधारा में चलाई-खपाई जा रही है वह एक फारमेट है, एक ढ़ाला हुआ सांचा जिसमें सहज अभिव्यक्ति का कोई स्थान नहीं। ऐसी कवितायें जिन्हें पाठकों तक पहुँचना ही नहीं है, ये वो कवितायें हैं जिनका जन्म किसी सोच, अनुभूति अथवा पीड़ा से नहीं हुआ है अपितु ये गिरगिट हैं जिन्हें संपादक की उंगली के इशारे पर पत्रिका के कलेवर वाला रंग धारण कर लेना है। आयातित जनगीतों के नाम पर बस्तर के भीतरी क्षेत्रों में अवस्थित मौलिक आदिवासी कविता के साथ न केवल गैरजरूरी हस्तक्षेप हो रहा है अपितु इसकी आड़ में मांदर की ताल-धुन बदलने की जो कोशिश हो रही है वह स्वाभाविक अभिव्यक्ति के रास्ते में खड़ा किया जा रहा बांध है। “जुगचो बोहता आँसू/ आमी हुनके पीवते रोहू” कह कर सदियों की अपनी पीड़ा को सशक्तता से आदिवासी कविता सामने लाती है तो यही कविता अपने देवता को भी पत्थर कहने की क्षमता रखती है और कह उठती है कि “देव तुचो जानू पखना होलीसे”। इतना ही नहीं कविता व्यवस्था के खिलाफ भी व्यंग्य करती है कि “पढुन लिखुन कुरची बसा/राज के चलावा/जोहार बाबू बल्ले कोनी/ मूड के हलावा” अर्थात पढ़ लिख कर मिली कुर्सी की उपादेयता क्या है और शासन क्या केवल इसी तरह चलाना है कि किसी ने नमस्कार-जोहार किया तो गर्दन भर हिलाते रहो। वाह!! ये कवितायें बस्तर की थाती हैं और आह!! कि इस विरासत को नष्ट होने से बचाने का कहीं कोई प्रयास भी नहीं।
राजीव रंजन प्रसाद