साहित्य और समाज का एक-दूसरे के साथ अन्योन्याश्रय संबंध है। दोनों एक-दूसरे पर अवलंबित हैं, क्योंकि साहित्य पर समाज की छाप अवश्यंभावी रूप से पड़ती ही है। अतः साहित्य का समाज से परिरंजित होना स्वाभाविक ही है। इसे इस रूप में भी कहा जा सकता है कि समाज भी साहित्य से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है। कहना न होगा कि साहित्य की प्रभविष्णुता से समाज अभिभूत हुए बिना नहीं रह सकता है। इसलिए साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है। साहित्य अपनी समाजोन्मुखी प्रवृत्ति के कारण सभ्यता और संस्कृति का संवाहक भी होता है। समाज-जीवन की चेतना और चिंतन तो साहित्य में परिलक्षित होते ही हैं और साहित्य का संवेदनात्मक संज्ञान समाज-जीवन को संबुद्ध भी बनाता है।
साहित्य के द्वारा मानवीय संवेदना का विस्तार होता है। यह समाज-जीवन की चेतना को समृद्ध करता है, उदात्त बनाता है। समाज-जीवन के भावों और विचारों की कलात्मक और रसात्मक अभिव्यक्ति साहित्य के माध्यम से होती है। साहित्य अपने पाठकों की आत्मा को गढ़ता है। साहित्य समाज-जीवन को आनंद की अनुभूति भी कराता है और उसे जीना भी सिखाता है। जीवन के मूल्य भी साहित्य में अक्षरित होते हैं और जीवन के उदात्त चिंतन भी उसमें सुरक्षित-संरक्षित होते हैं। समाज-जीवन और उसकी आत्मा की बनावट तथा बुनावट में यदि साहित्य की इतनी बड़ी भूमिका है, साहित्य का इतना सामर्थ्य है तो उसके प्रयोजन को जाने बिना उसके प्रभाव का आंकलन नहीं किया जा सकता है। ऐसे में साहित्य के अर्थ, अभिप्राय, अवधारणा और अभीष्ट को जानना आवश्यक हो जाता है।
‘साहित्य’ शब्द की निष्पत्ति सहित शब्द में ‘ष्य´’ प्रत्यय के जुड़ने से हुई है। ‘सहित’ शब्द ‘धा’ धातु में ‘सम्’ उपसर्ग और ‘क्त’ प्रत्यय के योग से बना है। ‘सहित’ शब्द का संधि-विच्छेद होगा- सम़्हित़ष्य´। ‘सहित’ शब्द ‘धा’ धातु के कारण ही धारण और पोषण के अर्थ में अभिव्यंजित होता है। संस्कृत-साहित्य में इसे ‘सहितयो भावः साहित्यम्’ कहकर अक्षरित किया गया है। कहने का तात्पर्य यह कि साहित्य में हित-युक्त होने का भाव है। यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि साहित्य के माध्यम से किसका हित-चिंतन हो। तो स्वाभविक रूप से इसका उत्तर होगा कि साहित्य जिसके लिए (व्यष्टि और समष्टि) लिखा जाता है, उसी का हित-चिंतन होना चाहिए।
कहना न होगा कि साहित्य के द्वारा व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का हित-चिंतन नैसर्गिक रूप से होना चाहिए। इसी में साहित्य की सार्थकता भी है और समर्थता भी। ‘काव्यमीमांसा’ में राजशेखर ने साहित्य को ‘शब्दार्थयोर्यथावत् सहभावेन विद्या साहित्यविद्या’ कहकर रेखांकित किया है। अर्थात् शब्द और अर्थ के मंजुल सामंजस्य को ‘साहित्य’ कहा गया है। साहित्य में अनुभवपरक ज्ञान होता है। इसी को संवेदनात्मक ज्ञान भी कहते हैं और इसी संवेदनात्मक ज्ञान को ज्ञानात्मक संवेदना की उपज माना जाता है। यही कारण है कि इसमें भाव-तत्त्व की प्रधानता होती है। परिणामस्वरूप साहित्य से आनंद की प्राप्ति भी होती है।
निष्कर्षतः उपर्युक्त विवेचना के आलोक में कहा जा सकता है कि साहित्य जीवन का और जीवन के लिए होता है। ऐसे में स्वाभाविक है कि उसमें देश, काल और परिस्थिति का चिंतन होना ही चाहिए। भारत के प्राचीन साहित्य से लेकर आधुनिक साहित्य तक में देश और राष्ट्र सर्वोपरि रहा है। भारत, भारतीयता और भारत-बोध का गीत गाकर और उसका गौरव-गान कर अनेक साहित्यकार धन्य तो हुए ही हैं, कालजयी और कालोत्तीर्ण भी हो चुके हैं। हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार अज्ञेय ने साहित्यकार ही नहीं, आम आदमी के लिए भी राष्ट्र की महत्ता को सर्वोपरि मानते हुए लिखा है-‘कुछ लोग अपने को देश से कटा हुआ पाकर अपने को यह कहकर दिलासा देते हैं कि क्या हुआ, वे विश्व नागरिक हो गए हैं, पर यह भ्रम दिलासा ही है, अपने को भ्रम देना ही है। देश से टूटकर विश्व-नागरिकता नहीं मिलती, देश से एकात्म होकर उसकी सीमा का अतिक्रमण करने से ही मिलती है।’ अतएव साहित्य में राष्ट्रीयता और राष्ट्र-बोध तथा उससे उपजे अस्मितामूलक चिंतन का होना अवश्यंभावी है।
साहित्य में अस्मितामूलक चिंतन जिस अस्मिता-बोध से उत्पन्न होता है, उद्भूत होता है, वह भारत के अस्तित्व से सन्नद्ध होता है। भारत और भारतीयता के अस्तित्व को जानना ही भारतीय अस्मिता-बोध है। इसके माध्यम से भारतीय आत्मा की पहचान सुनिश्चित होती है। इससे भारतीय चिति अथवा चेतना का अभिज्ञान होता है। भारत के जीवन-तत्त्व, अंतःकरण, मन, बुद्धि, शरीर और स्वरूप-स्वभाव की समझ के बिना भारतीय अस्मिता-बोध संभव नहीं है। इसके लिए भारत की सभ्यता, संस्कृति, चिंतन-परंपरा, जीवन-मूल्य, रीति-रिवाज इत्यादि में अंतर्निहित मूलभूत तत्त्वों की पहचान जरूरी है। राष्ट्र या देश की विशिष्ट चेतना ही भारतीय अस्मिता-बोध है, जिसे चिति भी कहा जाता है। भारतीय वाङ्मय के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि भारतीयता से उपजे वैशिष्ट्य और अस्मिता-बोध के संस्कार की अमिट छाप से हमारा साहित्य आच्छादित है।
भारतीयता की पहचान के रूप में मान्य वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत इत्यादि सनातन ग्रंथ तो भारतीय अस्मितामूलक तत्त्वों से भरे-पड़े हैं ही, भक्तिकाल से लेकर नवजागरण काल और आधुनिक काल तक के साहित्य में भारतीय अस्मिता-बोध बहुतायत में परिलक्षित होता है। हिंदी के युगप्रवर्तक साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चचंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, पंडित बालकृष्ण शर्मा नवीन, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ इत्यादि के साहित्य में भारतीय अस्मिता-बोध के दर्शन होते हैं। बीसवीं शताब्दी के ही अन्य साहित्यकारों में अज्ञेय, आरसी प्रसाद सिंह, भवानी प्रसाद मिश्र, उदय भानु हंस, धर्मवीर भारती, निर्मल वर्मा, आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री, डॉ. दयाकृष्ण विजयवर्गीय विजय, डॉ. बलदेव वंशी, अटल बिहारी वाजपेयी, विद्यानिवास मिश्र इत्यादि के नाम भी उल्लेखनीय हैं, जिनकी रचनाओं में भारतीय अस्मिता-बोध दृष्टिगोचर होता है। राष्ट्रीयता से अनुप्राणित अनेक भारतीय साहित्यकारों की पद्य रचनाओं के साथ-साथ गद्य साहित्य में भी भारतीय अस्मिता-बोध के दर्शन कर हम साहित्य की सार्थकता की पड़ताल कर सकते हैं।
भारतीय अस्मिता-बोध का तात्पर्य है राष्ट्र की आत्मा की पहचान। भारतीयता, भारत-बोध, राष्ट्रीयता, राष्ट्र-सापेक्षता, भारतीय चिति इत्यादि इसके पर्यायवाची हैं। देशप्रेम, राष्ट्रीय स्वाभिमान और राष्ट्र-गौरव को जगाने में भारतीय अस्मिता-बोध का साहित्य महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय होता है। भारत की सांस्कृतिक विरासत, जीवन-मूल्य, सभ्यता-संस्कृति और दर्शन-चिंतन को पहचानने, तलाशने और स्थापित करना ही भारतीय अस्मिता-बोध है। भारतीय धरोहर के बल पर ही यहाँ का जन-जन स्वाभिमानपूर्वक खड़ा हो सकता है और यही अस्मिता-बोध है। भारत का सत्त्व और स्वतत्त्व ही वास्तव में भारतीयता का मूल्य-बोध कराता है, जिससे यहाँ का जन-मन अस्तित्व-बोध से आप्लावित हो उठता है।
‘यजुर्वेद’ में अनेक स्थानों पर राष्ट्र की गरिमा और महिमा का गौरव-गान किया गया है। ‘यजुर्वेद’ के नौवें अध्याय का 23वाँ सूक्त है-‘वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः।’ अर्थात् हम पुरोहित (पूरे समाज का हित-चिंतन करनेवाला) राष्ट्र को जीवंत और जाग्रत् बनाए रखेंगे। कहने का तात्पर्य यह कि समाज के कल्याण के लिए तत्पर रहनेवाले पुरोहित (चिंतक और विचारक) राष्ट्र को जगाए रखेंगे, किंतु आज यह अवधारणा प्रायः समाप्त हो गई है। यजुर्वेद के ही बारहवें अध्याय का 11वाँ सूक्त कहता है कि मुझसे राष्ट्र भ्रष्ट न हो (मा त्वद् राष्ट्रमधि भ्रषत्)। इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि राष्ट्र को जीवन-शक्ति तक मान लिया गया है, तभी तो ‘यजुर्वेद’ में ही कहा गया है कि ‘पृष्ठीर्मे राष्ट्रम्।’ (य.20.8) अर्थात् राष्ट्र मेरी पसली (जीवनी) है।
‘अथर्ववेद’ में राष्ट्र के माहात्म्य, अस्तित्व, ऐश्वर्य और महान्ता की प्रतिष्ठा की गई है। राष्ट्र को सुव्यवस्थित और संवर्धित करने के निमित्त कहा गया है-‘समहमेषां राष्ट्रं स्यामि समाजो वीर्यंबलम् (अ.3.19.2) अर्थात् मैं राष्ट्र को तथा ओजबल, वीर्य को एक सूत्र में पिरोकर रखता हूँ। राष्ट्र की प्रगति और उन्नति की कामना और कल्पना भारतीय साहित्य में वैदिक काल से ही की गई है। तभी तो ‘अथर्ववेद’ में कहा गया है-‘राष्ट्र सुवीरं वर्धयामि।’ (अ.3.19.5) अर्थात् मैं सुवीरों से युक्त राष्ट्र को बढ़ाता हूँ। भारत की महान्ता और मनस्विता की कामना करते हुए कहा गया है-‘इदं राष्ट्रं पिपृहि सौभगाय।’ अर्थात् सौभाग्य के लिए इस राष्ट्र को परिपूर्ण कर। भारत को समृद्ध और शौर्य-संपन्न बनाने की कामना के साथ ‘अथर्ववेद’ में कहा गया है-‘तासं ब्रह्मणा पयसा ववृधानो विषि राष्ट्रे जागृहि रोहितस्य।’ अर्थात् हे रोहित संज्ञक सूर्यदेव! जिन शक्तियों से स्वर्गलोक से अंतरिक्षलोक तक को पूर्ण करते हो, उन्हीं शक्तियों से जैसे ब्राह्मण (ज्ञान) की शक्ति से, दुग्ध (धन-धान्य) की शक्ति से बढ़ाते हुए, प्रजा से युक्त राष्ट्र में जागरण करो अथवा विद्यमान् रहो।
मातृभूमि भारत केवल भूखंड या मिट्टी का पिंड मात्र नहीं है। भारत के लोग इसे मातृभूमि के रूप में पूजते हैं। तभी तो ‘अथर्ववेद’ में कहा गया है कि ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः।’ (अ.12.1.12) अर्थात् मातृभूमि मेरी माता है और मैं मातृभूमि का पुत्र हूँ। ‘यजुर्वेद’ में ही अन्यत्र कहा गया है-‘नमोमात्रे पृथिव्यै।’ (य.9.22) अर्थात् मातृभूमि के लिए नमन! भारतीय साहित्य मातृभूमि के प्रति अनुराग से भरा-पड़ा है। राष्ट्रीय चेतना के सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. दयाकृष्ण विजयवर्गीय विजय ने ठीक ही लिखा है-‘भूमि-विशेष के प्रति रागात्मक भाव रखकर, एक सांस्कृतिक सूत्र में बँधा जन-विशेष, जहाँ बंधुत्व-भाव से जीवनयापन करता है, वह भूभाग राष्ट्र की संज्ञा से अभिषिक्त होता है। जब हम यह कहते हैं, भारत एक राष्ट्र है, तब हमारे सम्मुख नगाधिराज हिमालय से लेकर उदधि-पर्यंत तक का भूगोल ही नहीं, उसकी सनातन संस्कृति की अविच्छिन्न परंपरा, इसका गौरवशाली इतिहास तथा इसके वे सभी महापुरुष, राजा, राजर्षि, देव, देवर्षि तथा इसकी रक्षा में प्राण न्योछावर करनेवाले समस्त हुतात्मा तक आ जाते हैं।’
भारतीय साहित्य में माता और मातृभूमि की सर्वाधिक प्रतिष्ठा हुई है। राष्ट्र की समृद्धि के लिए कर्तव्य-बोध जगाने के निमित्त भारत में निरंतर साहित्य की सर्जना होती रही है। वाल्मीकिकृत रामायण में भगवान् श्रीराम ने माँ और मातृभूमि को स्वर्ग से भी महान् माना है। भगवान् श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मणजी से कहते हैं-‘अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ अर्थात् हे लक्ष्मण! यद्यपि लंका सोने की है, फिर भी मुझे रुचिकर नहीं लग रही है; क्योंकि माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं। मातृभूमि के प्रति अनुराग-बोध में ही अस्मिता-बोध है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति के संरक्षण, संपोषण और संवर्धन में ही अस्मिता-बोध है। वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल के साहित्य में भारतीय अस्मिता-बोध के दर्शन होते हैं। महाकवि जयशंकर प्रसाद ने राष्ट्रीय अस्मिता के भाव से अनुप्राणित होकर ही लिखा है-
‘अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को
मिलता एक सहारा।’
भारत के स्वाधीनता-संग्राम और नवजागरण काल के साहित्य को देखा जाए तो राष्ट्रीय अस्मिता से ओतप्रोत विपुल साहित्य की सर्जना हुई है। स्वाधीनता-संग्राम के दौरान संभवतः राष्ट्रीय चेतना से उद्भूत
सर्वाधिक साहित्य की सर्जना हुई है। बंगाल के प्रख्यात उपन्यासकार और कवि बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने अपने उपन्यास ‘आनंदमठ’ में ‘वंदे मातरम्’ गीत की रचना की और सन् 1862 में यह प्रकाशित हुआ था। ‘वंदे मातरम्’ गीत स्वाधीनता-संग्राम के दौरान भारत के क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया था। इसमें भारतभूमि की अर्चना और वंदना माँ के रूप में की गई है। इसमें भारत का गौरव-गान करते हुए उसकी अस्मिता-बोध को अक्षरित किया गया है। पश्चिम बंगाल में ही जनमे विश्वविजेता आध्यात्मिक गुरु एवं सांस्कृतिक पुनर्जागरण के अग्रदूत स्वामी विवेकानंद ने भी भारतमाता की पूजा को प्रतिष्ठापित करने के निमित्त कहा था-‘अगले 50 वर्षों तक भारत में सभी देव-देवियों को भूल जाओ और भारत माँ की आराधना करो।’ सुप्रसिद्ध रचनाकार सुब्रह्मण्य भारती ने भारत की अस्मिता को इस रूप में रेखांकित किया है-
‘है महान अति भव्य पुरातन
गूँजेगा यह गान हमारा
है क्या हम-सा कोई जग में
यह है भारत देश हमारा।’
भारत की राष्ट्रीय अस्मिता विश्वबंधुत्व के व्यापक भाव-बोध पर अवलंबित है, क्योंकि यह सांस्कृतिक अधिष्ठान से सन्नद्ध है। भारतीय अस्मिता ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ जैसी ऋचाओं से अभिमंत्रित होने के कारण विश्वबंधुत्व के लिए चुनौती उत्पन्न नहीं करता है। भारत अपनी छोटी-छोटी अस्मिताओं (बोली, भाषा, क्षेत्र, भौगोलिक स्थिति इत्यादि) में बाह्य रूप से बँटा हुआ दृष्टिगोचर हो सकता है, किंतु सहिष्णुता, लचीलापन, ग्रहणशीलता, स्वीकार्यता, मानवता, विश्वबंधुत्व, लोकतांत्रिक चेतना, सामंजस्य भाव, कर्तव्यपरायणता, आध्यात्मिकता, परिमार्जनशीलता इत्यादि सांस्कृतिक वैशिष्ट्य के कारण भारत में एकात्मता के दर्शन होते हैं। भारत का सांस्कृतिक सूत्र उसे अद्वैत भाव से आबद्ध कर देता है। भारत में भौगोलिक-सांस्कृतिक आधार, आर्थिक और भाषायी आधार, पूजा-पद्धति एवं वैचारिक आधार पर वैविध्य के बावजूद एकात्मता के सूत्र से बँधा यहाँ का जन-समुदाय भारतीयता और उससे उपजी आत्मीयता से आबद्ध होकर राष्ट्र की आधारशिला रखता है।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं भारत-रत्न से सम्मानित पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भारतीय अस्मिता को अक्षरित करते हुए ठीक ही लिखा है-‘भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता-जागता राष्ट्र-पुरुष है। हिमालय इसका मस्तक है, गौरीशंकर शिखा है, कश्मीर किरीट है, पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं। दिल्ली इसका दिल है। विंध्याचल कटि है, नर्मदा करघनी है। पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघाएँ हैं। कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है। पावस के काले-काले मेघ इसके कुंतल केश हैं। चाँद और सूरज इसकी आरती उतारते हैं। मलयानिल चँवर डुलाता है। यह वंदन की भूमि है, अभिनंदन की भूमि है, तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है। इसका कंकड़-कंकड़ शंकर है, इसका बिंदु-बिंदु गंगाजल है। हम जीएँगे तो इसके लिए, मरेंगे तो इसके लिए।’ इसी भाव-बोध को स्वाधीनता-संग्राम के दौरान पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने निम्नलिखित काव्य-पंक्तियों में अक्षरित किया है-
‘मुझे तोड़ लेना वनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,
जिस पथ जावें वीर अनेक।’
भारत का अस्मिता-बोध यहाँ की राष्ट्रीयता में है। यहाँ की राष्ट्रीयता संकीर्ण नहीं होकर विराट् और वाक्राट है। भारत की राष्ट्रीयता सांस्कृतिक अधिष्ठान पर खड़ा है। भारत को भौगोलिक इकाई के रूप में देखने की जगह पवित्र सनातन सांस्कृतिक भाव-धारा की अविच्छिन्न परंपरा और उदात्त चिंतन से संपृक्त राष्ट्र के रूप में देखा जाना चाहिए। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ठीक ही कहा है कि ‘राष्ट्र का अस्तित्व उसके नागरिकों के जीवन का ध्येयभूत आधार है। जब एक मानव-समुदाय के समक्ष एक व्रत, विचार या आदर्श रहता है और वह समुदाय किसी भूमि-विशेष को मातृभाव से देखता है तो वह राष्ट्र कहलाता है।’ तभी उसके लिए जीने-मरने की आकांक्षा उत्पन्न होती है। इस संदर्भ में महाकवि आरसी प्रसाद सिंह की एक कविता उल्लेखनीय है-
‘जिसके लिए जनी जननी, वह आज घड़ी बन आई है।
जियो शान से या मर जाओ, सोचो मत आगे-पीछे।
अस्वीकार करो मत, रण का गुप्त निमंत्रण आया जो;
वीर भूमि के वीर पुत्र हो, अमृत पान करने वाले।’
भारतीय अस्मिता-बोध तो साहित्य में दृष्टिगोचर होता ही है, यह सभ्यता-संस्कृति, दर्शन-चिंतन, जीवन-मूल्य, राष्ट्र-प्रतीक इत्यादि में भी परिलक्षित होता है। कहना न होगा कि वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत-जैसे ग्रंथों के साथ-साथ भारतीय अस्मिता-बोध के प्रतीक तो मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम और षोडश कला निपुण भगवान् श्रीकृष्ण भी हैं। भारतीय अस्मिता-बोध की गूँज राष्ट्रमंत्र ओम में प्रतिध्वनित होती है तो राष्ट्रचिह्न धर्मचक्र में भी; राष्ट्रीय अस्मिता के दर्शन राष्ट्र-नदी गंगा में होते हैं तो राष्ट्रगीत वंदे मातरम् में भी। राष्ट्र-पर्वत हिमालय यदि भारतीय ऐश्वर्य का संवाहक है तो विक्रम संवत् हमारे सनातन-बोध को रेखांकित करता है और भगवा ध्वज हमारे वैभव और शौर्य को अक्षरित करता है। वैशाली का गणतंत्र यदि हमारे लोकतांत्रिक भाव-बोध को रेखांकित करता है तो आध्यात्मिकता से हमारे शाश्वत जीवन-मूल्य संज्ञापित होते हैं।
इस प्रकार यह कहा जाना समीचीन होगा कि भारतीय अस्मिता-बोध का साहित्य तो भारत और भारतीयता तथा उससे उत्पन्न वैभवशाली विरासत को प्रतिष्ठापित करने में सर्वथा समर्थ है। भारत-बोध में ही अस्मिता-बोध सन्निहित-संरक्षित है। भारतीय चिति के साक्षात्कार का उपक्रम राष्ट्रीय धरोहर और थाती को सम्यक् रूप से समझे बिना पूरा नहीं हो सकता है। राष्ट्रीय चेतना के उन्मेष से ही भारतीय अस्मिता-बोध का अवलोकन किया जा सकता है। आर्य और आर्यावर्त की पहचान सुनिश्चित कर ही भारतीय अस्मिता-बोध का विवेक समर्जित-संस्थापित किया जा सकता है।
– प्रो. अरुण कुमार भगत