भारतेन्दु हरिशचंद्र पर बात करने के लिए मैं उनकी साहित्यिक अवस्थिति के राजनीतिक निहितार्थों से अपनी बात शुरू करना चाहूँगा। इसी के क्रम में सबसे पहले उनके विधागत चुनावों और आधुनिकता के आलोक में उस तनाव और द्वंद्व के तकनीकी उलझनों की ओर इशारा करना चाहूँगा।
भारतेन्दु ने अपनी बात रखने के लिए प्रमुखता से नाटक को विधा के रूप में चुना। यह अपने आप में दुनिया की सबसे अनोखी घटना थी। यह इसलिए क्योंकि पूरी दुनिया में पूँजीवाद अपने उदय के साथ मशीनें(छापाखाना) और वो मशीनें गद्य लेकर आईं और यह गद्य अपने साथ सबसे मज़बूती से उपन्यास विधा के रूप में फलित हुआ।
दुनिया में आधुनिकता, लोकतंत्र, गद्य, आलोचना और उपन्यास एकसाथ आए। सारे अन्योन्याश्रित हैं। जिन-जिन समाजों में अबतक आधुनिकता का प्रवेश नहीं हुआ है वहाँ-वहाँ ज़रूर उपन्यास नहीं पहुँचा होगा। जिस तरह नाटक कृषियुग की, महाकाव्य सामंतवाद की विधा है उसी तरह उपन्यास पूँजीवाद(आधुनिकता) की विधा है (और परवर्ती पूँजीवाद की विधा मीडिया है। आज अगर आप मीडिया में नहीं लिखते पढ़ते तो यानी अपने समय के प्रतिनिधि नहीं हैं।आप पिछड़े हुए हैं और यह समय आपके हाथ नहीं आनेवाला।)
कहने का आशय है कि उपन्यास, आधुनिक काल का पर्यायवाची है। पूँजीवाद ने छापाखाना, जनता, आलोचना, लोकतंत्र और उपन्यास को एकसाथ जन्म दिया। जिन समाजों को आप अपने से कम आधुनिक पाते हैं उन्हें ध्यान से देखिए, वहाँ इनमें से कोई-न-कोई चीज़ ज़रूर कम होगी।
बांग्ला आदि में उपन्यास पहले प्रवेश कर गया इसलिए बंगाल हिन्दी प्रदेश से पहले आधुनिक हुआ। उनका नवजागरण भारत में सबसे पहले घटित हुआ क्योंकि उपन्यासों के जन्मदाता अँग्रेज़ों और उनकी शिक्षा का सबसे पहले और खूब पहले ही बंगाल से साबका पड़ चुका था। बंकीम आदि की रचनाएँ इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
हिन्दी प्रदेश के पिछड़े रहने और लिजलिजी मनःस्थिति के लिए उपन्यास को अपनाने में देरी और झिझक ही मुख्य कारण है। अब सवाल उठता है कि हिन्दी प्रदेश ने बंगभूमि की तरह उपन्यास को न चुन नाटकों को क्यों चुना। इसकी मुख्य वज़ह शिक्षा व्यवस्था है।
एक बात हमेशा याद रखें कि विधा का चुनाव किसी लेखक का मनमाना चुनाव नहीं होता। वह अपने युग और समाज पर पूर्णतः आश्रित होता है। जैसे रामविलास शर्मा से किसी ने पूछा कि आप अंग्रेज़ी में क्यों नहीं लिखते तो उन्होंने कहा ‘क्योंकि मैं हिन्दी पाठकों के लिए लिखता हूँ।’
नवजागरण की पहली शर्त शिक्षित समाज है और शिक्षित समाज स्कूल-कॉलेजों से बनता है। हिन्दी प्रदेश में शिक्षा का प्रसार बंगाल आदि की तरह नहीं हुआ था। जिस समय स्वामी विवेकानंद की माँ नियमित गीता पढ़ती थीं उस समय हिन्दी प्रदेश में उस उम्र की स्त्रियों को अक्षर ज्ञान भी नहीं था। उपन्यास पढ़े जाते हैं, एक असाक्षर समाज उपन्यास कैसे पढ़ेगा, तो भारतेन्दु ने इस कमी को नाटकों के द्वारा भरा। वे जानते थे कि उपन्यास पढ़ने के लिए साक्षर समाज नहीं है लेकिन संदेश नाटकों के द्वारा भी दिए जा सकते हैं।
आधुनिककाल के प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने लेखन से अधिक वक्तव्यों को इसलिए ही महत्त्व दिया था। उनका मानना था कि भारत जैसे देश में साहित्यकार को कलम से अधिक मुख से सफलता मिल सकती है क्योंकि भारत में शिक्षा का प्रचार-प्रसार तुलनात्मक रूप से कम है। और यही वज़ह थी कि उन्होंने लिखने से अधिक बोलने पर ध्यान केन्द्रित किया।
भारतेन्दु तो आधुनिककाल के सभी रचनाकारों के इस मामले में पूर्वज थे। उन्होंने भारत की सबसे पुरानी लेकिन जीवंत विधा नाटक को अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में चुना। तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ भी ‘रामलीला’ के रूप में जन का कंठाहार बन गई। भारतेन्दु को ऐसे ही नाटकों का सम्राट नहीं कहते। असल में उन्होंने नाटकों को परिवर्धित-परिमार्जित करके उसे एक नया रूप दे दिया। उन्होंने नाटक को लोकवादी बना दिया। उन्होंने नाटकों में कई प्रयोग किए। कई अन्य विधाओं का नाटकों में समिश्रण करके उसे अभिव्यंजक, सरल तथा रोचक बनाया।
उनके नाटक नुक्कड़ नाटकों की तरह खेले जाते यानी जिस लोकवादी दृष्टि से बड़ी पूँजी के विलोम के रूप में आज ‘स्ट्रीट-प्लेज़’ का जन्म हुआ भारतेन्दु ने बरसों पहले वैसा ही प्रयोग करके अपनी बुद्धिमता और जनवादी रूप का प्रकटीकरण कर दिया था। उनके तमाम नाटक असाक्षर भीड़ को संबोधित करने के क्रम में विकसित हुए हैं। अर्थात् ‘जनता साहित्य तक नहीं आ सकती तो साहित्य को ही जनता तक ले चलो’ की क्रांतिकारी नीति।
भारतेन्दु ने लोक से जुड़ने के हर मंच का सफलता से प्रयोग किया है। भारतीय समाज मेले ठेले की संस्कृति का समाज है। यह योरोप-अमेरिका की तरह व्यवस्थित और केन्द्रवादी नहीं है। इसकी विविधता और बहुलतावाद अकेन्द्रीय और अव्यवस्थित है। तो भारतेन्दु ने इस प्रवृत्ति का भी खूब इस्तेमाल किया और मेले तक में साहित्य को लेकर पहुँच गए। उनके नाटकों का मेले में मंचन हो अथवा भीड़ को संबोधित कर बलिया के ददरी मेले में दिया उनका बलिया भाषण- इसके शानदार उदाहरण हैं।
बलिया भाषण का शीर्षक था, ”भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है।” आप कल्पना करें भारतेन्दु की मनःस्थिति कैसी होगी। मेले में मनोरंजन वाली मनःस्थिति लिए भीड़ को इस तरह के गूढ़ विषय पर भाषण देते हैं और वह भाषण हिन्दी में अमर भी हो जाता है। अद्भुत है यह प्रतिभा और अद्भुत है यह देशभक्ति।
भारतेन्दु एकता की शक्ति को बखूबी जानते थे। उहोंने देश और समाजप्रेमी लेखकों का एक ग्रुप भी बनाया जिसका नाम था ‘भारतेन्दु मंडल’। लेखकों को एक होकर किसी बड़े सामाजिक उद्देश्य को सामने रखकर लेखन करना चाहिए- यह आधुनिक काल के मार्क्सवादी प्रगतिशीलों के जन्म से तकरीबन 70-80 साल पहले भारतेन्दु ने न सिर्फ विचार दिया था बल्कि करके भी दिखाया था।
भारतेंदु मंडल देश की, समाज की समस्याओं, कुरीतियों और अंधविश्वासों के खिलाफ दमदार लेखन करता साथा ही अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ तरीके से व्यंग्य और प्रहसन भी करता। कहने का आशय है कि भारतेन्दु ने आज से दो सौ साल पहले साहित्य में वह सब किया जो आज बड़े-बड़े संगठन करते हैं या सोचते हैं। भारतेन्दु का समाज केन्द्रित मन प्रयोगधर्मी तो था ही लेकिन ‘वन-मैन-आर्मी’ भी था क्योंकि अपनी पत्रिकाओं में लगभग हर मुद्दे पर वे लिखते और साथ ही शायद ही कोई विधा हो जिसे उन्होंने अपने स्पर्श से विशेष न कर दिया हो।
भारतेन्दु का जनवादी मन किसी साहित्यिक वाद के जन्म के सालों पहले अपनी प्रकृति और संरचना में प्रखर जनवादी था। आधुनिककाल की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि इसने साहित्य को राजपरिवारों और महलों से निकालकर ग़रीब की झोपड़ी में ला दिया। यह अब राजाओं और राजकुमारियों के नायक-नायकत्व का विलोम लेकर आया था।
इसका पूरा जेस्चर ऐसा था, इसकी पूरी बुनावट ऐसी थी, इसकी पूरी संरचना ऐसी थी, इसकी पूरी प्रकृति ऐसी थी कि यह प्रकृत्या लोकतांत्रिक था। यहाँ वर्चस्ववादी वर्ग बगलें झाँकते दिखते हैं। इसके आगमन के क्रम में जितनी विधाएँ आईं सब की सब लोकतांत्रिक और जनवादी थीं। एक अकेले गद्य ने आत्मकथा, डायरी, संस्मरण, और अखबारों आदि को जन्म दिया।
मशीनों ने उत्पादन में संख्या को असीमित कर दिया। इस असीमित विकल्प ने बड़े पैमाने पर लेखकों की ज़रूरत को जन्म दिया और ऐसे ही बड़े पैमाने पर अपनी कथा कहने वाले तमाम लेखक पैदा हो गए, जो भले ही शिल्प में साहित्यिक कलात्मक गहराई न रखते हों लेकिन भावों में ईमानदारी और निश्छलता लिए हुए थे।
स्त्री और दलित लेखन अपने शुरुआती दौर में आत्मकथाओं में ही प्रकट हुआ। अगर आधुनिककाल,गद्य और मशीनें न आई होतीं तो ऐसा लोक कभी मुखर न होता और शोषण का इतना बड़ा तंत्र प्रकाश में कभी आता ही नहीं।
भारतेन्दु और उनके समय के सभी ही साहित्यकार इस नए आविष्कार से भी जुड़े और उसका भरपूर इस्तेमाल किया। मेरा इशारा समाचारपत्रों की ओर है। भारतेन्दु युग के सभी रचनाकार अखबार और पत्र पत्रिकाएँ निकालते थे। खुद भारतेन्दु हरिशचंद्र- हरिशचंद्र चंद्रिका, कविवचन सुधा और बालबोधिनी नामक तीन पत्रिकाओं के संपादक थे।
महात्मा गांधी ने 1920 में असहोयग आंदोलन के समय विदेशी कपड़ों की होली जलाने को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया था। वे भारत की स्वतंत्रतता के लिए अँग्रेज़ों को आर्थिक क्षति पहुँचाना चाहते थे क्योंकि यही एक रास्ता था जिससे अँग्रेज़ों की अवस्थिति को चुनौती दी जा सकती थी लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि भारतेन्दु हरिशचंद्र ने 1874 में ही अपनी पत्रिका में अँग्रेज़ों के दाँत खट्टे करने के लिए विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की अपील कर दी थी।
उन्होंने अपने संपादकीय में स्पष्ट लिखा था कि अँग्रेज़ों को क्षति पहुँचाना है तो उनके देश से बनकर आई वस्तुओं का भारतीयों द्वारा (आर्थिक)बहिष्कार किया जाना चाहिए क्योंकि यही एक माध्यम है जिससे लोक, सत्ता के खिलाफ़ अपना विरोध दर्ज़ कर सकता है। क्रांति के लिए जनता को बिना हथियार उठाए विरोध का रास्ता सुझानेवाली अवधारणा सबसे पहले भारतेन्दु के मस्तिष्क की उपज थी।
अपनी पत्रिका कविवचनसुधा में भारतेन्दु लिखते हैं- ‘जब अँग्रेज़ विलायत से आते हैं प्रायः कैसे दरिद्र होते हैं और जब हिन्दुस्तान से अपने विलायत को जाते हैं तब कुबेर बनकर जाते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि रोग और दुष्काल इन दोनों के मुख्य कारणण अँग्रेज़ ही हैं।’
एक कविता में तो वे यहाँ तक कहते हैं कि
‘अंगरेजी राज सुखसाज सजे अति भारी,
पर सब धन विदेश चलि जात ये ख्वारी।’
अब आप समझ गए होंगे कि विदेशीभूमि से पढ़कर आए महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन के समय जो वैचारिकी दी थी हिन्दी प्रदेश का एक लेखक बरसों पहले उस दृष्टि से न सिर्फ सोच चुका था बल्कि मज़बूती से अपनी बात रख भी चुका था।
भारतेन्दु का लोकवादी साहित्यिक मन पूर्णतः लोकवादी तथा इस लोकवाद का मस्तिष्क देशभक्ति से ओतप्रोत था। भारतेन्दु ने साहित्य को किसी शस्त्र सा इस्तेमाल किया और उनकी बारीक दूरदृष्टि और सूझबूझ ने उन्हें अंग्रेज़ों के कोपभाजन से बचाए भी रखा। सत्ता के खिलाफ़ कला के इस्तेमाल का भारतेन्दु से बड़ा आदर्श नहीं हो सकता।
अब इसके साथ ही लेख के अंतिम भाग में एक और ज़रूरी बात है जिसकी ओर मैं आप सबको ले जाना चाहता हूँ और वह है भारतेंदु उपाधि की कहानी की ओर। इस भारतेन्दु उपाधि के दिए जाने के पीछे की कथा बड़ी रोचक है।
कहते हैं इस उपाधि को किसी दूसरी उपाधि के काउंटर में दिया गया था। कहने का आशय है कि यह एक किसी साम्राज्यवादी अवस्थिति का देसी उत्तर था। इस कथा को पूरी तरह जानने के लिए आपको नवजागरणकालीन एक और साहित्यकार की ओर मुख करना होगा और वह साहित्यकार हैं- राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद।
राजा शिवप्रसाद ‘सितारेहिन्द’ (३ फरवरी १८२४ — २३ मई १८९५) हिन्दी के एक महत्त्वपूर्ण साहित्यका थे बल्कि कहना चाहिए कि एक एक्टिविस्ट समाजसुधारक साहित्यकार थे। वे अंग्रेज़ी काल में शिक्षा-विभाग में कार्यरत थे। उन्हीं के सतत् प्रयत्नों से स्कूलों आदि में हिन्दी को भाषा के रूप में प्रवेश मिला।
वह एक ऐसा दौर था जिसमें हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों का बहुत अभाव था। इस अभाव की पूर्ति के लिए राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द संकटमोचक की तरह अवतरित हुए और बड़े पैमाने पर पुस्तकें न सिर्फ खुद लिखीं बल्कि दूसरों से भी लिखवाईं। शिवप्रसाद सितारेहिन्द ने ‘बनारस अखबार(1845)’ नामक एक हिन्दी पत्र भी निकाला और इसके माध्यम से हिन्दी के प्रसार में महत्ती भूमिका निभाई। शिवप्रसाद सितारेहिन्द की हिन्दी में अरबी-फारसी के शब्दों का बहुतायत प्रयोग होता था।
राजा शिवप्रसाद ‘आम फहम और खास पसंद’ भाषा के पक्षधर तो थे ही लेकिन साथ ही ब्रिटिश शासन के निष्ठावान् सेवक भी थे। इन्हीं के उद्योग से उस समय उन विपरीत परिस्थितियों में भी शिक्षा विभाग में हिंदी का प्रवेश हो सका। यह कोई छोटी बात नहीं थी।
अंग्रेज़ों को हिन्दी के लिए मनाना और उसे शिक्षा के माध्यम के रूप में स्वीकृति दिलाना नाकों-चने चबाने जैसा काम रहा होगा। साहित्य, व्याकरण, इतिहास, भूगोल आदि विविध विषयों पर इन्होंने प्राय: ३५ पुस्तकों की रचना की जिनमें इनकी ‘सवानेह उमरी’ (आत्मकथा), ‘राजा भोज का सपना’, ‘आलसियों का कोड़ा’, ‘भूगोल हस्तामलक’ और ‘इतिहासतिमिरनाशक’ उल्लेख्यनीय हैं।
राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द कहते हैं- “जब मुसलमानों ने हिंदोस्तान पर कब्जा किया, उन्होंने पाया कि हिंदी इस देश की भाषा है और इसी लिपि में यहाँ के सभी कारोबार होते हैं। ……लेकिन उनकी फारसी शहरों के कुछ लोगों को, ऊपर-ऊपर के दस-एक हजार लोगों को, छोड़कर आम लोगों की जुबान कभी नहीं बन सकी। आम लोग फारसी शायद ही कभी पढ़ते थे। आजकल की फारसी में आधी अरबी मिली हुई है।
सरकार की इस नीति को विवेकपूर्ण नहीं माना जा सकता जिसने हिंदुओं के बीच सामी तत्वों को खड़ा कर उन्हें अपनी आर्यभाषा से वंचित कर दिया है; न सिर्फ आर्यभाषा से बल्कि उन सभी चीजों से जो आर्य हैं, क्योंकि भाषा से ही विचारों का निर्माण होता है और विचारों से प्रथाओं तथा दूसरे तौर-तरीकों का।
फारसी पढ़ने से लोग फारसीदाँ बनते हैं। इससे हमारे सभी विचार दूषित हो जाते हैं और हमारी जातीयता की भावना खत्म हो जाती है।…….पटवारी आज भी अपने कागज हिंदी में ही रखता है। महाजन, व्यापारी और कस्बों के लोग अब भी अपना सारा कारोबार हिंदी में ही करते हैं।
कुछ लोग मुसलमानों की कृपा पाने के वास्ते अगर पूरे नहीं, तो आधे मुसलमान जरूर हो गए हैं। लेकिन जिन्होंने ऐसा नहीं किया, वे अब भी तुलसीदास, सूरदास, कबीर, बिहारी इत्यादि की रचनाओं का आदर करते हैं।
इसमें कोई शक नहीं कि हर जगह, हिंदी की सभी बोलियों में फारसी के शब्द काफी पाए जाते हैं। बाजार से लेकर हमारे जनाने तक में, वे घर-घर में बोले जाते हैं। भाषा का यह नया मिला-जुला रूप ही उर्दू कहलाता है। ……मेरा निवेदन है कि अदालतों की भाषा से फारसी लिपि को हटा दिया जाए और उसकी जगह हिंदी लिपि को लागू किया जाए।”
इसे पढ़ने के बाद बताना नहीं होगा कि राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द हिन्दी और भारत को लेकर क्या सोचते थे। शिवप्रसाद सितारेहिन्द न होते तो भाषा और शिक्षा के केन्द्रों पर हिन्दी को ऐसी स्वीकृति न मिली होती और वह साहित्य रचना तक ही सीमित भाषा रह जाती।
राजा सितारेहिन्द ने हिन्दी की एक दूसरे ज़रूरी मंच पर मजबूत लड़ाई न सिर्फ लड़ी बल्कि जीत भी दिलवाई। भारतेन्दु अगर जनता के लेखक थे तो शिवप्रसाद सितारेहिन्द उसी हिन्दी पठन-पाठन के लिए शिक्षण केन्द्रों में हिन्दी की ज़मीन तैयार कर रहे थे। इस तरह देखने से ये दोनों विरोधी की जगह एकदूसरे के पूरक दिखेंगे।
लेकिन भारतेन्दु और उनके चाहने वालों को राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द से दो जगहों पर असहमतियाँ थीं। पहली कि वे अंग्रेज़ी सरकार के ‘आदमी’ थे और दूसरी उनकी हिन्दी में अरबी भारसी के शब्द अधिक थे।
भारतेन्दु की हिन्दी में अरबी फारसी की जगह देसी भाषाओं से शब्दों के लिए वकालत थी। वे अरबी फारसी के शब्दों को हिन्दी में जबरन ठूसने के विरोधी थे। तथा दूसरे छोर पर अंग्रेज़ों के आदमी वाली बात का काउंटर यह था कि वे अंग्रेज़ों के नहीं स्वतंत्रता का स्वर्णिम स्वप्न देखनेवाली भारतीय जनता के आदमी थे।
अंग्रेज़ों ने राजा शिवप्रसाद की राजभक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें ‘सितारेहिन्द’ की उपाधि दी थी। भारतेन्दु के चाहनेवालों ने इसी के काउंटर में साहित्यकार हरिशचंद्र को ‘भारतेन्दु’ की उपाधि दी। आशय है कि तुम्हारा आदमी ‘हिन्द’ का ‘सितारा’ है तो हमारा देसी आदमी ‘भारत’ का ‘इंदु’(चंद्रमा) है। उस उपाधि में ‘हिन्द’ है तो इसमें ‘भारत’। इस नामकरण में भी वह विरोध और द्वंद्व देख सकते हैं।
भारतेन्दु तो निजभाषा को उन्नति का मूल मानते थे। उनकी इस घोषणा ने तो जैसे हिन्दी को एक राह दिखा दी- ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।’
यह पंक्ति जैसे हिन्दी के नई चाल में ढलने का संदेश ही नहीं दिशानिर्देश भी दे रही हो। इसी पंक्ति ने, इसी लाइन ने हिन्दी को रीतिकालीन ब्रजभाषा से मुक्त कर खड़ीबोली हिन्दी युग में प्रवेश कराया इसी एक पंक्ति ने हिन्दी को नया मिजाज दिया, नई भाषा दी और नया तथा प्रखर तेवर दिया।
हिन्दी के साहित्य जगत में चंद्रमा की तरह चमकने वाला यह साहित्यकार केवल 34 साल की छोटी सी उम्र में ही इस दुनिया को छोड़कर चला गया। आप कल्पना कीजिए हिन्दी और भारत को लेकर इतने सपने और विचार रखने वाला साहित्यकार कुछ दिन और जी जाता तो हिन्दी और हिन्दी प्रदेश की आधुनिकता की क्या शक्ल होती।
इस महान साहित्य और समाज सेवी के जन्म दिन के दिन उनकी पुण्य स्मृति को प्रणाम करते हुए मैं उनके प्रति कृतज्ञता की भावना से ओतप्रोत तो हूँ ही लेकिन साथ ही गर्व से भी भरा हुआ हूँ कि मेरी हिन्दी के पूर्वज इतने विराट और गुणी थे। भारतेन्दु ने हमें वह आधार दिया जिसके कारण हम खुद को शान से हिन्दीवाला कह सकते हैं।