ब्यूटिया मोनोस्पर्मा
अभी चार दिन पहले ही तो दुलहंडी थी
बसंत शान से ऐंठा हुआ था
कुछ कपोलें फूट चुकी थीं
कुछ फूटने ही वालीं थीं
कुछ फूल खिल चुके थे
और कुछ खिलने ही वाले थे
लेकिन पलाश नहीं खिला इस बार…
‘ब्यूटिया मोनोस्पर्मा’ के अर्धचंद्राकार फूल
जिन्हें छूने से हाथों में ललाई छूट जाती थी
आँखों में लोहित मंडप बन जाता था
और कंक्रीट के गलियारे लाल गलीचे में
तब्दील हो जाया करते थे
आह! इस बार वे नहीं फूटे
पलाश रूठ गये हैं शायद
शायद यह पहली दफ़ा था
जब देस-देहात के अबीर में
‘जंगल की आग’ सहभागी नहीं थी
जब पिलासू ही नहीं हुआ
तो डाल पर लाह कहाँ से होगी!
वनवासियों की रोजी रोटी का क्या होगा!
मन में यह भाव आया ही था कि
नील आकाश में बादल घुमड़ने लगे।
2.
पलाश नहीं खिला इस बार
फगुनिया की वह अभागी टोकरी
उसके बचपन की खिलंदड़ सखी-सहोदरी
टेसुओं की छुअन और प्रेम से रिक्त ही रह गयी
आज फगुनिया बिदा हो रही है
चैत की आहट से पहले
घन घनन घन नगाड़ों के साथ
मेघ बदहवास होकर बरस रहे हैं
सुदूर पहाड़ों से संगीत फूट रहा है
भांग के मद में लड़खड़ाते
अधेड़-बूढ़े शहनाई वादकों ने
विरह की कोई तड़पती हुई लोकधुन छेड़ दी हैं
बिदाई की बेला सामने खड़ी है
पलाश की पंखुड़ियों के बिना
फगुनिया नहीं छोड़ना चाहती नैहर
अफ़सोस! उसे जाना ही होगा आज
अपने प्रियतम के बगैर
फगुनिया फूटकर रो रही है…
किंतु, यह दृश्य देखकर
मैं अधिक विस्मित हूँ
कि पिता की आँखों का नमकीन पानी
और माई के मन की वह चातक चिंता
भावों की पगडंडियों से यात्रा तय कर
हलधर की पथराई हुई आँखों में डबडबा रही है।
(‘ब्यूटिया मोनोस्पर्मा’ पलाश या टेसू के फूलों का वैज्ञानिक नाम है। ‘लाह’ एक किस्म का पदार्थ है जिसे वनवासी पलाश की डाल से इकट्ठा करते हैं और बाजार में बेचते हैं।)
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विलाप
मैं कुछ अलहदा तस्वीरें बनाना चाहती हूँ
जैसे दिगंबर की पीठ पर बेफिक्री से लदी हुई नदी
मरुस्थल में कलोल करते हुए पत्ते
नन्हीं नन्हीं चीटियों की भुरभुरी बांबी
पनही पहनकर इतरातीं भेड़-बकरियाँ
औरतों की हँसी-ठिठोली से गूँजती टपरियाँ
मधुमक्खियों के साबुत छत्ते
अलगनी पर झूलते हुए रंग-बिरंगे लत्ते
आसमान में उड़ती हुई मछलियाँ
पानी पर तैरती हुई तितलियाँ
हवा सी झूलती हुई लड़कियाँ
मौसम को अंक में भरती खिड़कियाँ
किंतु, मेरी कूची बना देती है –
विलाप करती हुई स्त्री
क्रंदन करते हुए खग-विहग
उदास सरिताएं
सहमे हुए वृक्ष और पहाड़।