स्त्री पृथ्वी है
1.
आसान कहां
किसी सूरज के प्रेम में
पृथ्वी हो जाना
न चुम्बन, न आलिंगन
न धड़कनों पर कान धर
सांसों का प्रेम गीत सुन पाना
बस दूर से निहारना
और घूमते रहना
उसी दुखों भरे
विरह पथ पर
मिलन की प्रतीक्षा लिये
निरंतर…
2.
यकीनन पृथ्वी स्त्री ही है
जो घूमती रहती है
उम्र भर
किसी के प्रेम में पड़कर
उसके घर, परिवार
बच्चों को संभालती
चकरघिन्नी बनी
बस उस एक के इर्दगिर्द।
3.
स्त्री अगर किसी से प्रेम करती है
तो फिर कभी
उसका साथ नहीं छोड़ती
भले ही उसे
लाख तपिश क्यों न सहनी पड़े
झुलस ही क्यों न जाए
सूरज के प्रेम में पड़ी
पृथ्वी की तरह…
4.
पृथ्वी गोल है
बिलकुल सपाट
बहुत कठोर!!
यह भ्रम है
कोरा भ्रम
कभी ध्यान से देखना उसकी गहरी आंखों में
मिल जाएंगी तुम्हें
उसके पलकों के नीचे जमी नमकीन झीलें
प्रेम से छूना उसकी सपाट काया
अनगिनत खरोंचों से भरी उसकी देह
तुम्हारी अंगुली के पोरों को
लहूलुहान कर देगी
धीरे से खोलना उसके मन की गिरहों को
बहुत रीती और पिघली हुई मिलेगी भीतर से
बिलकुल एक स्त्री की तरह।
5.
जब दोनों हाथों से
लूटी खसौटी जाओ
दबा दी जाओ
अनगिनत जिम्मेदारियों के तले
तुम्हारे किए को उपकार
नहीं अधिकार समझा जाने लगे
तब हे स्त्री
डोल जाया करो न !
तुम भी
अपनी धुरी से
पृथ्वी की तरह ।।
6.
कोरी कल्पना
और किस्से कहानी
से अधिक कुछ भी नहीं
ये सारी बातें
की पृथ्वी
टिकी है
गाय के सींग
शेषनाग के फन,
सूर्य की शक्ति
या फिर
लटकी है अंतरिक्ष के बीचों बीच
गुरुत्वाकर्षण के बल पर
सच तो यह है
कि अपनी करुणा, प्रेम
सृजन और जुनून
के बल पर
स्त्रियां लादे
घूम रही हैं
पृथ्वी का बोझा
अपनी पीठ पर
युगों युगों से
7.
सुबह सवेरे घर से निकले
नौकरी पेशा लोगों को
गौर से देखना
ताजगी से भरा
अपनी नींद उठा पुरुष
और
अलार्म की आवाज पर
हड़बड़ाकर उठी
उनिंदी स्त्रियां
जो जिम्मेदारियों का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला
थामे
उलझी उलझी,
जा रही हैं काम पर
जानती हैं वह
पृथ्वी के नसीब में कहां
आराम के लिए क्षण भर ठहर जाना।
8.
स्त्री देखती है
नींद में ख्वाब
ख्वाब में घर के काम
दूधवाले, सब्जीवाले का हिसाब
बच्चों का होमवर्क
खोजती है पति का रूमाल, मोजा, टाई
दोहराती है सास ससुर के रूटीन हेल्थ चेकअप की डेट
इसी बीच
झांक आती है पल भर को
मायके का आंगन
निरंतर घूमती रहती है एक औरत
अपने कर्तव्य पथ पर
क्योंकि जानती है वो
पृथ्वी के रुक जाने का अर्थ
सम्पूर्ण सृष्टि का रुक जाना है।
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बारिश के मौसम में
जैसे खिली घनी धूप के बाद
अचानक होने लगती है तेज बारिश
वैसे ही कभी चले आना तुम
बिना बताए अचानक
दरवाजे पर खड़े होकर
फैला देना अपनी दोनों बाहें
मैं कभी आंखें मलूं
तो कभी चुटकी काटकर
खुद को यकीन
दिलाने की कोशिश करूं
और जब हो जाए भरोसा
इस बात का
कि हां वह तुम्ही हो
तो झूम उठूं ऐसे
जैसे बारिश में नहाते हुए खुशी से
झूम उठते हैं छोटे बच्चे।
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नकचढ़ी बुढ़िया
उन्होंने कहा
ये मत करो
वो मत करो
मैंने मान लिया
वो बोले
हम तुम्हारे अपने हैं
अच्छे बुरे में काम आएंगे
मैं अच्छे बुरे की आशंका से घिरी
उनके आगे पीछे नाचती रही
कुछ अजनबी भले लगे
खुशियां मिली उनसे हंस बोलकर
कंधा मिला दर्द में
मैं झुकने लगी उनकी तरफ
वो फिर चौंके!
अपना मतलब निकलते ही
नोचकर खा जाएंगे तुम्हें
इनसे कौनसा तुम्हारा खून का रिश्ता ठहरा
फिर सुनाए गए डरावने किस्से
मैं भागने लगी उन अपने से लगे अजनबियों से दूर
गुजरने लगा समय
इस बीच
कुछ अपनों को मिल गए अपने
वो उड़ गए उनके साथ
बसा लिया पीठ फेर दूर डाल पर डेरा
कुछ अपने निकल गए
न लौट आने वाले सफ़र पर
जीवन की ढलती संध्या में
धीरे धीरे नितांत अकेली पड़ने लगी मैं
जरूरत महसूसी साथी की
जब मांगा उन तथाकथित अपनों का समय
एकांतता के जख्मों से भरी खुरदुरी देह
ताकती रही उनकी राह
कि वो कब आए और स्नेह स्पर्श से सुखा दें मेरे जख्म
मुंह में बंद जुबान
तालू से चिपक
मांस का लोथड़ा बन गई
जाम होने लगा जबड़ा
जो तमाम बातें वर्षों सहेज कर रखती रही
अपनों से कहने के लिए
आखिर में उनका भारीपन स्मृति को ही ले डूबा
उतरते दिसंबर में गठिया और निमोनिया
ने भरपूर साथ निभाया
ऐसे चिपके की जान लेकर ही साथ छूटा
आज मोहल्ले भर में शोर है
भूतिया घर में रहने वाली पागल औरत मर गई
अपनों के हृदयविदारक विलाप के साथ
फूट रहे हैं कुछ शब्द
हाय कितना कहा था अम्मा!!
हमारे साथ चलो
नाती पोतों के साथ खेलों
वो भी नहीं तो
कम से कम
बोल बतियाने के लिए
कुछ दोस्त ही बना लेती
इतना अंतर्मुखी होना ठीक नहीं था अम्मा…!!
कुछ कह रहें हैं दबी जुबान में
बड़ी नकचढ़ी थी बुढ़िया…।।
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