(1) दरारें
दीवार की दरारों के बीच
झाँकता पीपल का पेड़
कुछ हम जैसा ही तो है
न किसी ने प्यार से रोपा
न ही उसके अस्तित्व की चिंता में नजरों से सींचा
और न किसी ने स्निग्ध हाथों से उसे संभाला
फिर भी वो जी गया
क्योंकि वो बज्जर था
रोपना, सींचना और संभालना उसके भाग्य में नहीं
कुछ ऐसा ही तो हमारी लकीरों में था
दाईं ने पेट को टटोल कर कहा था
लड़की हुई तो बच जाएगी
लड़का होगा तो झेल नहीं पायेगा
कोई दुआ नहीं कोई मन्नत नहीं
न कोई चाहत और न ही आगमन पर कोई स्वागत
फिर भी
अपने अस्तित्व को बचाते जी लेते हैं हम
और जन्म देते हैं दूसरे अस्तित्व को…
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(2) कबड्डी
कबड्डी एक खेल
महज एक खेल नहीं
दर्शाता एक दृष्टिकोण… औरत के जीवन का
साथियों के हाथों का स्पर्श सुकून देता अपनत्व का…
हिम्मत देता है वो स्पर्श लक्ष्य को भेदने का
मैदान में खीची लकीर
महज लकीर भर नहीं
चेताती है उनकी सीमा-रेखा उनकी मर्यादा को
दुनिया देती है उदाहरण सीता का और रोक देती है उसके कदमों को
काट देती है उसके पंखों
तोड़ देती है उसके सपनों को
लकीर के उस पार हाथों का स्पर्श बदल जाता है, आत्मा छली जाती है, कदम रोके जाते हैं, सपने मरोड़े जाते हैं
और वो छटपटाती, कराहती उस लकीर तक पहुँचने के लिए
अंतिम समय तक प्रयास करती है
उखड़ती है टूटती है पर
फिर भी कोशिशें जारी रहती है उस लकीर तक पहुँचने की…
सांसे टूट जाती हैं
और वो चेहरे उफ्फ!
किया है तो भुगतो
पसीने से लथपथ शरीर सोचता है हर बार ये संघर्ष सिर्फ हमारे हिस्से ही क्यों…