कागज़ होता तो वो चूमती उसे
लेकर शायद उसका नाम भी
लेकिन सबकुछ मायावी था
तारों में, जालों में
मशीन पर
सबकुछ उसका कहा हुआ
और वो कहना चाहती थी
और भी बहुत कुछ
सब कुछ साफ़, साफ़
साफ़ बातों के अंदाज़ में
सीधी बातों के अंदाज़ में
चिर परिचित अक्षरों में
कि वो सोच रही थी
जागती सुबहों में
कि तस्वीरें हो सकती थीं
उनकी, साथ, ढेरों ढेर
जैसी कि वो चाहते थे
करीब, दूर, पास
लोगों के बीच
जोड़ते हुए गाठें
बिल्कुल नए किस्म की
और वह एकल, अव्यय, अक्षय, अक्षत गाँठ
बीच में
स्त्री और पुरुष के
यहाँ तक कि वो उठा लेना चाहती थी
फ़ोन का चोगा
और बता देना चाहती थी
उसे उन तमाम तस्वीरों के बारे में
जो ली जा रही थीं
कल्पना में उसकी
डाइनिंग टेबल पर
स्टडी टेबल पर
हर कहीं वह उसके साथ था
शयन कक्ष में भी उसके
बाहर लॉन की धूप में
और नदारद था
उसका सारा पता ठिकाना
गायब था वह जैसे ठगी का उसका कोई पुराना धंधा हो।