वरिष्ठ साहित्यकार एवं गोवा की पूर्व राज्यपाल डॉ. मृदुला सिन्हा का 18 नवंबर 2020 को 77 साल की उम्र में निधन हो गया। वह हिंदी की बड़ी लेखिका थीं और अपनी यश: काया के रूप में आज भी वे जीवित हैं, सदा जीवित रहेंगी। इनके लेखन का आधार व्यापक लोक अंचल है। यह लोकअंचल क्षेत्रीयता से महज आबद्ध नहीं: संपूर्ण राष्ट्र से संबद्ध है। हर जगह जीवन और संघर्ष है। इसी में निहित है सुख, आनंद और समरसता।
मृदुला सिन्हा का साहित्य लोक का सुवास, अंचल के रंग और संस्कृति की धड़कन सहेज कर जीवंत और ऊर्जावान हो जाता है। इसके परिप्रेक्ष्य में समृद्ध परंपरा, वैभवशाली अतीत और गौरवपूर्ण संदर्भ सहज स्वाभाविक रूप से सन्निहित रहता है। लोकरंग, अंचलराग और संस्कृति संवेदन मृदुला सिन्हा के साहित्य के प्राण तत्व हैं। संवेदना की छुअन से भला कौन अछूता रह सकता है!
मृदुला सिन्हा के साहित्य का पाठक संसार बड़ा और व्यापक है। वे निरंतर लिखती रहीं। सौ से ज्यादा उनकी पुस्तकें प्रकाशित हैं। कई अखबारों में स्तंभ लेखन करते हुए—’बिहार लोक समग्र’ नाम से वृहद ग्रंथ का संपादन भी उन्होंने किया। ‘पांचवां स्तंभ’ जैसी पत्रिका के संपादन के साथ ही साथी नाम से स्वैच्छिक संस्था भी वे संचालित करती रहीं। अपनी शासकीय व्यस्तताओं के बावजूद वे लेखन के लिए समय निकाल ही लेती थीं। वे अपने मन, ह्रदय और आत्मा के संवाद को लोकाभिमुख करती हुई उसमें जीवनराग को विस्तार देने वाला साहित्य रचती रहीं। उनके व्यक्तित्व तथा कार्य कौशल से साफ-साफ लगता था कि वे जहां कहीं भी रहती थीं पूरे मन और पूरी निष्ठा के साथ होती थीं।
राज्यपाल के दायित्व का निर्वहन उन्होंने बखूबी किया और प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के स्वच्छता-अभियान के प्रथम नवरत्न के रूप में वे समादृत हुईं और इस दायित्व को कर्तव्य मानकर जीवन पर्यंत समर्पित रहीं। भारत सरकार के हर सरोकार को अपने क्षेत्र और दायरे में प्रसारित तथा मजबूत करती हुई उसे विस्तार देने की कला डॉ. मृदुला सिन्हा जानती थीं और उन्होंने इसका भरपूर उपयोग जनहित में किया।केवल स्वच्छता अभियान ही नहीं; बेटी बचाओ तथा पर्यावरण-संरक्षण के क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी अग्रणी भूमिका का निर्वाह किया। राज्यपाल होकर भी लाटसाहब की तरह ठस्से में नहीं बल्कि सहज वात्सल्यरूपा मानवी के रूप में सुरसरि सी अमृतमयी रहीं।
डॉ. मृदुला सिन्हा का प्रभाव अक्षर रुप में सदा जीवित रहेगा। कहानी, लघुकथा, उपन्यास कविता, समीक्षा, निबंध, संस्मरण तथा और और विधाओं में उनके साहित्य उपलब्ध हैं जो सहज ही पाठक के हृदय को छूते हैं। अपनी औपन्यासिक कृतियों—घरवास, अतिशय, विजयिनी, सीता पुनि बोली, परितप्त लंकेश्वरी में जहां वह अपने समय, समाज की स्थितियों और संघर्षशीलता को बहुत ही बारीकी से देखती हैं, वहीं अतीत में जाकर पुराणों से जीवंत कथा को लेकर आती हैं और उसे समयानुकूल बनाती हैं। कथा के प्रवाह में अनेक सामाजिक, नैतिक और वैश्विक संदर्भों को उजागर करती रहीं। जीवन की गतिशीलता के लिए अनेक प्रेरक तत्व उन्होंने प्रदान किए। उनके सृजन का संसार फैला हुआ है जिसमें लोकोक्तियां और कहावतों पर भी सविस्तार लेखन सन्निहित है। उनका विविध वर्णी लेखन, बहुस्पर्शी भाव और बहुविध अभिव्यंजना मुग्धकारी तथा मंगलकारी है।
डॉ. मृदुला सिन्हा के साहित्य में अनेक कालजयी तत्व विद्यमान हैं। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर कई विश्वविद्यालयों में शोध कार्य हुए हैं। लोक आलोक की सांस्कृतिक सुरसरि डॉ. मृदुला सिन्हा अपने सकारात्मक और संवेदनात्मक लेखन प्रवाह और व्यक्तित्व में सतत गतिशील रहीं। उन्होंने संबंधों की मिठास को जीया और जुड़े हुए तमाम लोगों की सुखद स्मृतियों को स्नेह से सदा संभाल कर रखा। वे केवल बड़ी लेखिका ही नहीं थीं; बड़ी समाज सेविका और हारे हुए मन को प्रेरित करने वाली वात्सल्य की प्रतिमूर्ति भी थीं। आदर्श भारतीय नारी का स्वरूप उनकी कृतियों में सहज ही देखा जा सकता है। सीता पुनि बोली, ज्यों मेहंदी को रंग, बिटिया है विशेष, उस आंगन का आकाश, एक दीये की दिवाली जैसी कृतियां भारतीय परिवार और नारी की अस्मिता का उदात्त संदर्भ प्रस्तुत करती हैं।