हर व्यक्ति अपने जीवन में कई किरदारों को जीता हैं उसके व्यक्तित्व की पहचान इस बात से होती है कि इन अलग-अलग किरदारों को वो कितनी बखूबी महसूस कर केकैसे जीता और निभाता है। सच्चिदानंद जोशी उन व्यक्तित्व में हैं जिन्होंने मानसिक-मनोवैज्ञानिक, भौतिक-सांस्कृतिक-आध्यात्मिक स्तर पर एक ही समय में कई किरदारों को बहुत ही सशक्त तरीके से जिया है। इन किरदारों में जिन भूमिकाओं को उन्होंने जीवन में निभाया, उन सबने उनके जीवन को समृद्ध बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है। इस भूमिका की एक छोटी सी झलक उनकी पुस्तक ‘कुछ अल्प विराम’ में दिखती है; जिसमें भाव और विचारों के अद्भुत समन्वय की शृंखला पूरे समय सक्रिय रहती है। जब किसी व्यक्ति के एक से अधिक रूप हमारे सामने आते हैं और वो सारे रूप एक से एक प्रभावशाली हों तो तय करना बहुत मुश्किल हो जाता है कि वह अपने किस रूप में ज्यादा श्रेष्ठ है। इस पुस्तक के बारे में भी कुछ ऐसे ही भाव आते हैं जो भी प्रसंग-पृष्ठ सामने खुलता है; लगता है यही सबसे सशक्त है, लेकिन दूसरा पन्ना खुलते ही वह और अपना,बेहतर व आत्मीय लगता है। एक ही व्यक्ति में कई व्यक्ति मिलने का जो आनंद है वही इस किताब में भी है।
उनका यायावरी जीवन उनके व्यक्तित्व को और मांजता है। अपने समय-समाज व राष्ट्रीय परिदृश्य के प्रति लेखक की दृष्टि साफ़ सुथरी है। अपने सरोकारों के प्रति वह ईमानदार हैं और अपनी बात को खुलकर रखते हैं, ‘हवाई यात्रा’ में लिखते हैं – ‘बहुत सारी बातों का हम भी आनंद उठाना चाहते हैं, लेकिन छदम आवरण हमे ऐसा करने से रोक देते हैं। हमे दूसरों का जोर से हँसना, बात करना, अच्छा नहीं लगता, लेकिन कान में ईयर फोन लगाकर शोर सुनना पसंद है। ये प्रसंग निश्चित रूप से घर बैठे दुनिया से पहचान कराती हैं और ये बताती है कि हमारा जीवन कितना आडम्बरपूर्ण होते जा रहा।
‘काम तो काम है’ में मानव जीवन में कर्म की प्रधानता को मानते हुए ‘दिलीप’ नामक ड्राईवर के माध्यम से कहते हैं –‘काम तो काम है जी, साब, उससे क्या शरमाना’ ये छोटी-छोटी मुलाकातें हमे कितना सिखा जाती हैं’। स्कूली ज्ञान और किताबों से अलग बच्चे बहुत सारी चीजें बिना बताए,सिखाए भी अपने परिवेश व खुद की संवेदनाओं से सीखते हैं जिसे ‘अपना बाज बहादुर’ में रौशन के उस प्रसंग के माध्यम से बताते हैं ‘जब रोशन रास्ते से कांच के टुकड़े बीन कर कोने में उसका ढेर लगा रहा था। पूछने पर रोशन अपने मिश्रित भाषा में कहता है –“वो जो बाई लोग हैं नीजंगल से आती हैं। उनके पैर में चुभ जाता है। साधारण और महानता के टैग से परे जीवन का विश्लेष्णात्मक पुर्नपाठ करते हुए हर लेख रोचकता बनाए रखती है। ‘कुछ अल्प विराम’ एक तरह का सुकून का बयां करती रचना है जिनमे नेपथ्य की आवाजें अधिक गूंज रही हैं।
ये ऐसे लेखक के रूप में भी हमारे सामने आते हैं जिनके सीने में अपनों के लिए ही नहीं प्राणिमात्र के लिए, प्रकृति के लिए, समाज के लिए, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए प्रेम, स्नेह व संवेदनाये हिलोरें ले रही। इन संवेदनाओं व मानसिक पीड़ा का पूरा दस्तावेज ‘लेडी श्रवण कुमार’ ‘बालश्रम’ ‘मेहंदी में छिपा दर्द’ में उभर कर आता है।यहाँ न ज्ञान का असंगठित प्रदर्शन है और न ही भावुकता का कोरा दिग्भ्रम। सबको खुशहाल देखने की आकांक्षा से प्रेरित लेखक का मन बार-बार तडपता है और विचलित भी होता है।
लेखक यात्रा के मामले में उत्साही व्यक्ति हैं।किसी स्थान को देखना सिर्फ देखना नहीं होता बल्कि वह इतिहास-साहित्य, कला-संस्कृति-सभ्यता के अतीत का पूरा और पुनर्नवास्मृतियों का दस्तावेज़ है और आध्यात्मिक आनंद का स्रोत भी। इस बात को वो बखूबी समझतेहैं। उनके शब्दों में ‘अपना बाज़ बहादुर’ में – हम उस यात्रा के एक-एक क्षण को जी लेना चाहते थे, हमने खोज-खोज कर सब स्थान देख डाले। आस्था औए विश्वास से लबरेज लेखक ‘मैनप्रपोजेस’ में लिखते हैं ‘ओरोविल का मातृ मंदिर एक ऐसा अनुभव है, जो स्वयं लेना पड़ता है।उसके बारे में कुछ भी लिख पाना मेरे शब्द सामर्थ्य के बाहर है’। ये किस्से मूलतः आत्म विह्वलता के ही नहीं बल्कि आत्म साक्षात्कार और आत्म प्रश्नाकुलता,आत्म-आनंद के भाव हैं।
सियासी फायदों के लिए साम्प्रदायिकसौहार्द्र बिगड़ने वाले लोग समाज में असंतुलन पैदा करते हैं पर कुछ लोगों जिनको सिर्फ पेट पालने से मतलब है उनको कोई फर्क नहीं पड़ता। ‘सहिष्णुता’ में इसी सत्य को रेखांकित किया गया है; इसके साथ ही मनुष्य के जीवनगत संघर्षों और उनकी बुनियादी जरूरतें मात्र ‘रोटी कपडा मकान’ को बताते हुए अभिव्यक्ति दी है। धार्मिक आधार पर बंटवारे की राजनीति करती व्यवस्था पर प्रहार करते मानवता की बात करते हैं तो दूसरी तरफ ‘भ्रूण हत्या’ हमारे समय की मुश्किलों, विडम्बनाओं और विद्रूपताओं से परिचय करवाती है और उनकी जड़ों तक जाकर देखने और दिखाने का जोख़िम भरा काम भी करती हैं। ‘बालश्रम’ में जब लेखक अपने घर काम करने वाली रमा के लिए कुछ नहीं कर पाता; जब उसका शराबी पिता उसे प्रताड़ित करता है और इसके लिए वो खुद को भी कठघरे में खड़ा करता है। ये किस्सा हमारे अंदर केवल एक गहरी बेचैनी ही पैदा नहीं करता बल्कि ज़िन्दगी के कडवे यथार्थ से रूबरू भी करवाता है।लेखक जितना ही अपने विषयवस्तु में डूबा संपृक्त है उतना ही वह अपने अंदर के विचार और दृष्टिकोण के प्रति सजग भी है। प्रसंगों को महसूस करने पर इनमे उतनी आबद्धता, सम्बद्धता और प्रतिबद्धता की अनूगूंज है, जितनी नागार्जुन की पंक्ति ‘‘जी हाँ मैं प्रतिबद्ध हूँ’’ में।
एक संघर्षशील रचनाकार की यह खासियत हमेशा बची रहनी चाहिए कि ज़िन्दगी से जूझते हुए ज़िन्दगी के सफ़र को खुद तय करे और अपनी रचना के जरिये व्यक्ति और समाज को जीना सिखाये। इस बात को ‘हवाई यात्रा’ के माध्यम से समझाते हैं जब अपनी विंडो वाली सीट को एक बच्चे को दे देते हैं जिसे अपने परिवार से अलग सीट मिली थी। सिर्फ इतना ही नहीं लेखक उनके हाव-भाव और ख़ुशी को पूरा महसूस करता है और जीता है दूसरों की ख़ुशी में आनंद अनुभव कर पाना इस युग में विलपत भाव है। बावजूद इसके कि उस परिवार ने लेखक के इस औदार्य के लिए धन्यवाद देना या कृतज्ञता ज्ञापन करना उचित नहीं समझा। लेखक की यह दृष्टि निरंतर खुली हुई खिड़की से दुनिया को देखने और अपनी समझ के कारण है जिसमे आत्मीय आंच भरपूर है।
अपनी भाषा से सबको प्यार होता है और सभी अपनी भाषा में ही खुद को अच्छे से अभिव्यक्त कर पाते हैं या समाज में गौरव पाते हैं। लेकिन भाषा के लिए प्रतिबद्धता या उसे समृद्ध करने का प्रयास विरले ही करते हैं वो भी दूसरे देश में जाकर। ‘विदेश में हिंदी के अनुभव’ यहप्रतिबद्धता का वह चेहरा, जो चमत्कृत भी करता है और भौंचक भी; जब ‘कोपेनहेगेन’ के चर्च में हिंदी में छपे सूचना-पत्रक में हिंदी की वर्तनी-त्रुटियों को लेखक खुद मांग कर ठीक करके भेजता है। लेखक का मूल कर्तव्य यही है कि वह अपने समय को अपने दैनंदिन जीवन में दर्ज़ करे और हमे अपनी नागरिकता याद दिलाये न सिर्फ अभिव्यक्ति के स्तर पर बल्कि व्यवहारिक रूप में भी।
‘धर्म-निरपेक्षता’ में इस तथ्य को समझाने की कोशिश की गयी है कि धर्म को बाज़ार व राजनीति निगलता जा रहा है और संस्कृति पर उपभोक्तावाद चढ़ता जा रहा है। इन प्रसंग में असुरक्षा से जन्मी आस्था है, गरीबी है, असफलता का भय है। सुविधा और प्रगति की भेंट चढ़ते मूल्य लेखक की चिंता के केंद्र में तो है ही वे उस व्यवस्था पर सोचने को मजबूर करते हैं जो धर्मों में बांटकर आदमी को देखती है और मानवता पर प्रश्न भी करती है। यह प्रसंग हमारे समय की भयावहता और समाज में बढती हिन्दू और मुस्लिम कट्टरता को सच्चाई के साथ बिना विवादस्पद या कटाक्ष के बयाँ करती है।
अधिकांश लेखक जहाँ विचारधारा से घटना स्थान और अनुभूति को व्यक्त करते हाँ वहीं जोशी जी घटना-स्थान-विचार को उसके समूचे ब्यौरों या बिम्बों को विचारधारा व संवेदना, संस्कृति व आध्यात्म से जोड़ते हैं इसलिए वे हर क्षण या घटना को अपने लेख में बाँध लेते हैं और उनका हर किस्सा इन भावों का आधार पाती है। ये सिर्फ सामाजिक सांस्कृतिक रुझानों के लेखक नही बल्कि जीवन जगत के अनुरागी और घरेलू जीवन के किस्सों के लेखक भी हैं। जीवन की विराटता और व्यापकता में अपना पक्ष कैसे, कब, कितना व कहाँ रखना है बखूबी आता है। मनुष्य का मनुष्य से एक संवेदनात्मक और अटूट रिश्ता बार-बार प्रकट हुआ है। सबको अपनी आत्मीयता में घुला देने वाले और सार्वजनिक जीवन को सुखद बनाने की कामना से ओतप्रोत लेखक की यायावर प्रवृति जगह वस्तु और आदमी में हो रहे परिवर्तन को भली भांति परखती है। समय का सीधा सामना और उससे मुठभेड़ करने वाला जीवित और स्पन्दित कल, आज और कल से वे शिद्दत के साथ जुड़े हैं और जुड़े रहना चाहते हैं। संस्कृति-संवेदना बोध सामाजिक चेतना, मानवीय दृष्टि से सजग रचनाकार ही समय को साध सकते हैं और दिशा दे सकते हैं।
लेखक की भूमिका महज़ अपने वक्त को जबान देने की नहीं, कहीं उसे बदलने, एक सार्थक विकल्प को ढूंढने की बेचैनी, अपने पाठकों के मानस में बो देने की भी है।मुक्तिबोध ने भी कहा था – ‘दुनिया जैसी है उससे बेहतर चाहिए/ इस दुनिया को एक मेहतर चाहिए। अगर भाषा की बात की जाये तो सम्पूर्ण पुस्तक सरल एवं प्रभावी भाषा में लिखी गयी है। कहीं-कहीं जरूरत के अनुसार रेखाचित्र भी दिए गए हैं। पुस्तक इतना रोचक समकालीन व प्रासंगिक है कि यदि यह पुस्तक कॉलेज के सहायक पुस्तक के रूप रख दिया जाये तो नयी पीढ़ी को इसी बहाने जीवन के संघर्ष संवेदना व मर्म का ज्ञान होगा।
इस संग्रह के सभी लेख मौजूदा समय की पहचान बन गए बदलावों को दर्ज करते हैं। हर प्रसंग को किसी मूवी-कैमरे की तरह उनके व्यक्तित्व को प्रक्षेपित कर दिया है,ये लेख उनके स्वभाव के शिनाख्त के साथ उनके व्यक्तित्व पर संक्षिप्त विमर्श भी प्रस्तुत करती है। लेखक ने कहीं भी किसी प्रसंग या विवरण को अनावश्यक खींचा नहीं है, एक भी शब्द अतिरिक्त नहीं बल्कि कहीं-कहीं कोई लेख ‘और और’ की मांग करते हैं ऐसी मनः स्थिति में पार्ट 2 के इंतजार के अलावा और कोई रास्ता बचता हुआ नहीं दिखता।