ज्ञान चतुर्वेदी अपने व्यंग्य लेखन में जो बेअदबी दिखाते हैं, वह अदबी दुनिया की एक महत्त्वपूर्ण संघटना है। हालाँकि वह उनके बहुत ही गंभीर व्यक्तित्व और डॉक्टरी की आलातरीन पढ़ाई और प्रैक्टिस के दौरान और दरमियान पनपने वाले प्रोटोकॉल से बहुत फरक है। पेशे से दिल का यह डॉक्टर व्यंग्यों में जो दिल का चीरा लगा देता है, क्या वह उनके जीवन-व्यक्तित्व की क्षतिपूर्ति या प्रतिस्थापन है या वह उसी का ही एक पहलू है क्योंकि व्यंग्य उपजता ही एक गहरे नैतिक बोध से है? यदि आप इस देश के नैतिक नागरिक के रूप में अपने को चीन्हते हैं तो नैतिकता से विचलन को दैनंदिन मापना ही व्यंग्य का सृजन कर देता है।
ज्ञान चतुर्वेदी जी की अन्य व्यंग्यकारों से जो विशेषता है वह है व्यंग्य की दैनंदिनता के पीछे की थीमेटिक इंटीग्रिटी को पहचानना। यानी हरिशंकर परसाईं व्यंग्य की स्फुट बहुतायत (miscellany) के व्यंग्यकार हैं, हालाँकि उन्होंने ‘रानी नागफनी की कहानी’ जैसी औपन्यासिकता के रूप में व्यंग्य का ‘खंड-काव्य’ जैसा कुछ लिखा भी खंडकाव्य नहीं कह सकते तो उसे व्यंग्य की खंड-कथा ही कह लें-यही बात शरद जोशी के साथ भी है। श्रीलाल शुक्ल रागदरबारी में व्यंग्य की जो प्रबंध-कथा एकबारगी जिस ऊँचाई पर लिख गये, उस पर वे स्वयं अपनी दूसरी कोशिश में भी न पहुँच पाये। लेकिन ज्ञान चतुर्वेदी लगातार एक के बाद ये व्यंग्य-प्रबंध बहुत सफलता से रच रहे हैं। परसाईं जी के व्यंग्य राजनीतिक वैमनस्य (political hostility) के भी व्यंग्य रहे, लेकिन ज्ञान चतुर्वेदी का फलक ज्यादा बड़ा लगता है। परसाईं जी के व्यंग्य मुझे सत्रहवीं शती में लिखी जाने वाली poems on Affairs of state की याद दिलाते हैं।
ज्ञान उपन्यासों के जरिए व्यंग्य के फेंफड़ों में बहुत-सी आक्सीजन भर देते हैं और इस अर्थ में वे महाप्राण व्यंग्यकार हैं। मैंने कितने व्यंग्यकारों को करेंट अफेयर्स की तात्कालिकता में फँसते देखा है। वह तुरंत वमन प्राय: एकायामी हो जाता है और एक जटिल समाज की संरचनाओं की सर्जरी उससे नहीं हो पाती ज्ञान व्यंग्य का टी-20 तो बहुत दक्षता के साथ खेल ही लेते हैं, लेकिन उनका असल महत्त्व व्यंग्य के टेस्ट मैच में ही समझ आता है। इसलिए उनके व्यंग्यों में जितना आक्रमण है, उतना धैर्य भी है। वे व्यंग्य के जितने अच्छे युवराज सिंह हैं, उससे कहीं बेहतर वे उसके चेतेश्वर पुजारा हैं। उनके व्यंग्यों में जितना बगावत (subversion) का नैरेटिव है, उससे कहीं ज्यादा स्थानिकता की ग्रांडडिंग है। उनका व्यंग्य आलोचनात्मक विवेक का भी व्यंग्य है। इससे इंकार नहीं है पर उससे कहीं ज्यादा वह देखने की क्षमता का व्यंग्य है क्योंकि उनके पास दूरबीन और खुर्दबीन दोनों उपकरण हैं। उनके लेखन का जो भौमिक विस्तार (territorial) है, वह इन दिनों कहाँ देखने में आता है बल्कि पहले भी कितना देखने आया।
ठीक-ठीक तो यह अभी तक भी नहीं कहा जा सकता है कि व्यंग्य एक विधा है या अदा है। क्योंकि व्यंग्य तो कविता में भी हो सकता है, कहानी में भी, नाटक में भी, एकांकी में भी है। लेकिन व्यंग्य में यदि कोई ‘जेनेरिक उपन्यास’ हो सकत हैं तो वे ज्ञान चतुर्वेदी ने लिखे हैं और बड़ी प्रविधिगत स्थिरता (मेथोडोलॉजिकल स्टेबिलिटी) के साथ लिखे हैं।
ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य की आँचलिकता के कदाचित् सबसे बड़े उपन्यासकार हैं। राग दरबारी का शिवपालगंज भारत का कोई भी गाँव हो सकता है, लेकिन ज्ञान जी की बुंदेलखंडत्रयी की विशिष्ट भौगोलिकी है। और उनके व्यंग्य में उस भौगोलिकी की विद्रूपताओं के प्रति जितनी सचेतनता है, उतना-उतना वे उसे अमर भी बनाते चले गये हैं। उनके इन उपन्यासों में स्थानिकता के छींटे नहीं हैं, वहाँ वह बाहर से एक दर्शक की तटस्थता से देखी गयी क्षेत्रीयता भी नहीं है, किसी भद्रलोक की भदेस पर छींटाकशी भी नहीं। यह बुंदेलखंड किसी परिदृश्य की संकीर्णता का बुंदेलखंड नहीं है यहाँ व्यंग्य जैसे उपजता है, वह किसी नागर श्रेष्ठता-बोध से नहीं प्रेरित-प्रभावित लगता है। इसकी आँचलिकता के चलते इसमें वह व्यक्तिगत या राजनीतिक द्वेष (animus) भी नहीं रह जाता जिसने व्यंग्यों की एक बड़ी आबादी हिंदी में पैदा कर दी है। यह व्यंग्य को जमीनी (earthy) बनाना है। और यह वैसा नहीं है जैसे अपनी कविता के अभिजात्य को बचाने अज्ञेय लोक-शब्दों की एक झालर खड़ी कर देते थे। पर उसके बावजूद भी अपने अकेलेपन से बाहर नहीं आ पाते थे। यहाँ वह ‘आउटसाइडर’ वाली दृष्टि नहीं है, इसलिए ‘बारामासी’ की बिन्नू अपने पाँच सालों से चले आ रहे ‘रिजेक्शन’ को लेकर लडक़े वालों के सामने बार-बार नुमाइश लगाये जाने को लेकर किसी गुस्से, उदासी या निराशा में डूबी हुई ज्ञान चतुर्वेदी द्वारा नहीं बताई गई है। यानी ज्ञान स्थानिकता को मात्र शब्दों में या अपने पात्रों के बिन्नू, रम्मू, लल्लन, छुट्टन जैसे नामों में ही नहीं रचते बल्कि अपने चरित्रों के मनोविज्ञान के जरिए भी स्थापित करते हैं। बोली (dialect) का जब तब प्रयोग कर ना वे भी जानते हैं पर स्थानिकता को बुंदेली समाज की परंपराओं और संस्कारों में ढूँढक़र बताने में उनकी एप्रोच की सफलता है। कई लोग ग्राम्य जीवन को पीड़ा और वेदना का जीवन बताते हैं, किसी को वहाँ प्रकृति की सुषमा दिखती है, लेकिन ज्ञान के व्यंग्य के चुटीलेपन की एक सामाजिकता है।
जब-जब भी मैं डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी को पढ़ता हूँ तो मुझे मैथ्यू होडगार्ट के द्वारा व्यंग्य का डाक्टरों से जोड़ा गया संबंध याद आ जाता है। होडगार्ट ने बहुत से ऐसे व्यंग्यकारों का उल्लेख किया जो स्वयं डाक्टर थे। सोलहवीं सदी के एडेमस पोलोनस हों या अठारहवी सदी के जॉन आर्मस्ट्रांग हो उन्नीवीं सदी के ओलीवर गोगार्टी-यह सूची बहुत लंबी है। ब्रायन ए. कोनरी ने होडगार्ट के इस विचार के बारे में यों लिखा कि : satire shares science`s propensity for analysis and categorization, as well as medical research`s fascination with anatomizing and dissection संभवत: ज्ञान जी की व्यंग्य के क्षेत्र में सफलता का राज यही हो। इतनी बारीक नजर और चीरफाड़। शायद ज्ञान डॉक्टरों पर इतने सालों से किये जा रहे व्यंग्यों का इकट्ठा जवाब देने के लिए पृथ्वी पर उतरी हुई आत्मा हैं।
क्षेमेन्द्र ने तो डॉक्टरों को इतना चिढ़ाया है : ‘चरक चरक न जानाति’ ‘वक्ति न दोषान् दोषी’ सिरफिरा चरक को नहीं जानता। कि दोषी को पता नहीं कि दोष क्या है। कथा सरित्सागर से लेकर कलिविडंबना तक विश्वगुणदर्शचंपू से लेकर ‘पादताहितक’ तक कितनी रचनाओं में डॉक्टरों पर व्यंग्य ही व्यंग्य थे। वेंकटध्वरिन ने कहा-‘असून भृत्या मृत्योरि वसु हरन्ते गदजुषाम्’ कि उपचार का या दवा का या रोग की प्रकृति का अता पता न रहने पर भी वह पूरे आत्मविश्वास के साथ वह लोगों को उनके बचे हुए स्वास्थ्य और पैसे से छुटकारा दिला देता है। तो डॉक्टर ज्ञान चतुर्वेदी ने बताया कि लो व्यंग्य हम भी कर सकते हैं।
लेकिन सबसे अच्छा व्यंग्य वही होता है जो स्वयं पर किया जाए। जैसे शंकर राजारमन ने ‘वैद्योपहासकलिका’ नामक व्यंग्य-ग्रंथ में स्वयं वैद्यों का उपहास किया, खुद वैद्य होते हुए भी। उसी प्रकार डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी ने ‘नरक-यात्रा’ लिखी जो अस्पतालों की हालत पर है। प्राय: आयुर्वेद एलोपैथ पर और एलोपैथ आयुर्वेद पर व्यंग्य उछालता रहता है किंतु इन दोनों-यानी शंकर राजारमन एवं ज्ञान चतुर्वेदी ने क्रमश: संस्कृत और हिंदी में स्वयं की चिकित्सा व्यवस्था (या अव्यवस्था) को नहीं बख्शा, यह बड़ी बात है। शंकर राजारमन कहते हैं। ‘दान धर्मतपस्तीर्थ स्नानादिक्लेशवर्जितम्/ प्रदर्शयन्ति लोकेभ्य: स्वर्ग मार्ग चिकित्सका:’ कि दान, धर्म, तप, तीर्थ, स्नान आदि का इतना कष्ट क्यों उठाते हो जब डॉक्टर लोग आसानी से तुम्हें स्वर्गमार्ग पर प्रेषित कर सकते हैं। उस स्वर्गमार्ग वाले व्यंग्य की तुलना में यहाँ डॉक्टर चतुर्वेदी नरक-यात्रा कराते हैं। इस कोरोना-अनुभव के बाद नरक यात्रा उपन्यास को एक बार फिर पड़ें तब लगता है कि इस व्यंग्य-कथा को ज्ञान किसी मजाक में नहीं कह रहे थे बल्कि एक तरह के प्रॉफेटिक विजन के साथ कह रहे थे। इस देश के अस्पतालों के डॉ. चौबों से देश संत्रस्त हो गया है। इन्हें तो हर बीमारी इस व्यंग्य उपन्यास में मलेरिया ही लगती है। आश्चर्य नहीं कि वे कोरोना या कोविड-19 को भी मलेरिया कह देते नरक-यात्रा का यह अंश देखें : ‘मलेरिया से डॉ. चौबे के संबंध पतिव्रता स्त्री जैसे थे। यानी कि सपनेहुँ आन पुरुष संग नाहीं’ वे हर मरीज में मात्र मलेरिया ही सोचते तथा देखते थे। मलेरिया ही उनका ओढऩा बिछौना, दस्तरखान तथा कुमोड था। हुंशी हुरी हुंशीलाल ने ‘लव इन द टाइम ऑफ मलेरिया’ नामक एक गुजराती राजनीतिक व्यंग्य लिखा था, लेकिन डॉ. साहब शुद्ध चिकित्सकीय व्यंग्य लिखते हैं।
कोरोना ने अस्पतालों की सन्नद्धता के बारे में हमें अचानक सजग कर दिया। यदि एक साहित्य-संवेदनशील समाज और राज होता तो शायद यह सजगता डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यास से ही आ जानी चाहिए थी, पता नहीं किताब को सिरहाने रखकर सोने वाले लोग कहाँ गये, अब तो मौत को सर पर खड़ी देखकर ही लोग जागते हैं। नरक-यात्रा अपने आप में एक सबक थी लेकिन ‘सुनि इठलैंहें लोग सब’ जैसी स्थिति हो गई। नोबोकोव ने भी यही कहा था कि व्यंग्य एक पाठ है, पैरोडी एक खेल। यह असफलता ज्ञान चतुर्वेदी की नहीं, उस पॉलिटी और समाज की है जिसने साहित्य को अपनी स्थितियों पर पुनर्विचार की चीज़ माना ही नहीं।
अन्यथा यहाँ तो एक ‘इनसाइडर व्यू’ देने वाला साहस देखने को मिल रहा था। वह जो कहता हो कि कर लो मेरी अवहेलना, मगर अपनी जोखिम पर थी। व्यंग्य के तीखेपन के विरुद्ध एक सुरक्षा कवच उपेक्षा का भी होता है भाव ही न दो। ऐसा जताओ कि जैसे सुना ही नहीं। जैसे नंगे राजा की कहानी व्यंग्य के रूप में पुनप्रस्तुति में एंडरसन (2005) बताते हैं।
डॉक्टरों के पीछे ज्ञान सिर्फ ‘नरक-यात्रा’ में या ‘पागलखाना’ उपन्यासों में ही नहीं पड़े, उनके फुटकर व्यंग्यों में भी वे बख्शे नहीं गये : ‘घटा घिरी तो डॉक्टर प्यार से स्टेथेस्कोप पर हथेली फिराने लगा। जैसे कि चक्कू की धार देखे कसाई, बकरे को आता देखकर। कवि पुन: कहता है कि काली घटा देखकर ढोर, सुअर, मच्छर, मलेरिया तथा डॉक्टर-सभी को ऐसा आत्मिक आनंद हुआ कहि न जाइ का कहिए, घिर आईं सावन की घटाएँ।चिन्हित हो उठे नाली के कीड़े। बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं।’ (साँप और सावन की घटा नामक व्यंग्य) यहाँ केशवदास और दुष्यन्त दोनों के अंतर्पाठ्यत्व से कहीं ज्यादा ध्यान इस पर जाता है कि कैसे प्रकृति और प्रफेशन दोनों साम्बन्धिक हो रहे हैं । रिलेशनल बिकमिंग की तरह देखे जा रहे हैं। यह व्यवसाय का प्रकृतिवाद (नेचुरलिज़्म) ज्ञान चतुर्वेदी जगह-जगह ढूँढ़ते चलते हैं और इसमें उनके और उनकी मित्र मंडली के तजुर्बों की झौंक लगती चलती है।
व्यंग्य साहित्य के सभी माध्यमों में सबसे ज्यादा तुर्शमिजाज माध्यम है। और किसी ‘क्षण’ की गर्मागर्मी को भी सबसे तीव्रता से भी यही अवशोषित करता है। प्राय: इसी कारण आजकल के कई व्यंग्यकार ‘अर्जेन्ट’ और ‘इम्पोर्टेंट’ के बीच फर्क करना भूल गये हैं। व्यंग्य स्तंभाधारित हो जाने से त्वरित टिप्पणी’ जैसा कुछ हो गया। ज्ञान चतुर्वेदी की विशिष्टता इसमें है कि वे ‘इम्पोर्टेंट’ को कभी ओझल नहीं होने देते। उनका व्यंग्य कभी भी तुच्छ (trivial) या मूढ़ (silly) व्यंग्य नहीं है। उसकी परिव्याप्ति (comprehensiveness) स्वयं ज्ञान चतुर्वेदी पर छा जाने वाली परिव्याप्ति है। जैसे वे अपने विषय की वशिमा में हों, भूतबाधाग्रस्त और सम्मोहित । ऐसा व्यंग्यकार हिंदी में दुर्लभ है जो व्यंग्य भी ऐसे लिखता है जैसे वह अपने ही भीतर के कुछ अजीब-से नियमों के वश में है, अपने ही तप के रोमांच में है, जैसे एक मकड़ी की तन्मयता के साथ अपने व्यंग्य का जाल बुन रहा है। उसकी आदत नहीं है किसी चीज़ को सरसरी नजऱ से देखने की। उसकी दृष्टि एक प्रेमी की दृष्टि है जिसमें एकाग्रता है, स्थैर्य है और इसी कारण उसकी सिस्टम ही जैसे सराबोर (overwhelm) हो जाती है, बाकी सब चीजें जैसे पीछे छूटती चली जाती हैं, अभी तो बस ये है और यही है, बिना इस परिनिष्ठितता के न तो ‘नरक यात्रा’ लिखी जा सकती है, न ‘स्वांग’ संभव हो पाता है। व्यंग्य लिखते हुए ज्ञान जैसे स्वयं अपनी मन: स्थिति का मौसम रच लेते हैं, या कैसे तो भी वह रचा जाता है और जब तक उनका वह प्रोजेक्ट पूरा नहीं हो जाता वे जिंदगी की उस जलवायु से बाहर नहीं आते। उनका व्यंग्य एक शेयर्ड पब्लिक स्पेस है, इसमें शक नहीं लेकिन उसे रचने के लिए वे अपने प्रतिपाद्य की हवालात में कैद हो जाते हैं।
लेकिन उस एकान्त में वे अपने विषय की इतनी बारीक मैपिंग कैसे कर लेते हैं। कहाँ-कहाँ कैसे गढ्ढे हैं, किन गलियों में कौन-सी गंध आती है-यह सब वे कौन-सी खुर्दबीन से देख लेते हैं और सृजन के उस ‘सॉलिटरी कन्फाइनमेंट’ में ऐसे औजार उन्हें कौन पहुँचा गया-ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर स्वयं ज्ञान चतुर्वेदी ही दे सकते हैं, हम आप नहीं। वे ही बताते हैं कि बुंदेलखंड पर लिखने के लिए वे किन किन से मिले और कहाँ-कहाँ घूमे हैं।
अस्पताल तो खैर उनके अनुभव का क्षेत्र है ही। इससे वे एक ऐसे व्यंग्यकार के रूप में सामने आ पाए हैं जिसके पास एक उत्कट संदर्भ-संवेदनशीलता है, ऐसा व्यंग्यकार जो एक परिदृश्य का जितना भोक्ता है, उतना प्रस्तोता भी। वह इन परिप्रेक्ष्यों के जरिए एक सामाजिकता की निर्मिति करता है। उसके उपन्यासों में बहुत दिलचस्प व्यक्ति चिति, व्यक्ति-चित्र हैं, पर वे सब एक जीवंत कलेक्टिव बॉडी-चाहे वह संस्था हो या समुदाय में subsume हो जाते हैं, अस्पताल को उस लाक्षागृह की तरह देखना कि जहाँ से भाग निकलने के लिए कोई सुरंग नहीं है-संस्था की समीक्षा है। और डॉक्टर ज्ञान चतुर्वेदी इस संस्था के सम्पूर्ण स्खलन को दिखाते समय नाममात्र के मोह तक को स्थान नहीं देते। यह विवेक अग्निहोत्री की ‘कश्मीर फाइल्स’ जैसा ही है। इसे एकपक्षीय होना नहीं कहा जा सकता। वे अपने कथ्य को किसी झूठे दिलासे में उलझाकर डाइल्यूट नहीं करना चाहते। इसका अर्थ कहीं यह नहीं है कि अच्छे डॉक्टर नहीं होते। लेकिन फिलवक्त जो दिखाया जा रहा है उसकी वास्तविकता इतनी क्रूर है कि उसकी क्रूरता के प्रति जगाना ही व्यंग्य का लक्ष्य है।
संस्कृति के भीतर से निकली से उपमाएँ जीवन में फैल गई विकृति का जैसे पता देती हैं, वैसे अन्य उपमाएँ शायद कभी न दे पातीं। वे बताती है कि भीतर ही भीतर कौन-सा अघट घट गया है, कि संस्कृति किन विद्रूपताओं के औचित्य-निर्धारण में काम आ रही है। वहाँ विचलन का मानक-सा है वह सब कुछ इतनी सहजता से शेयर्ड है कि स्कैण्डल लगता है।
ऊपरी तौर पर यह लग सकता है कि ज्ञान चतुर्वेदी की व्यंग्य-प्रतिभा जितनी उपन्यासों में खिलती है, उतनी स्फुट व्यंग्यों में नहीं खिलती। मसलन दंगे में मुर्गा का व्यंग्य सायास लगता है, कुछ ऐसे स्फुट व्यंग्य टिप्पणी जैसे लगने लगते हैं। कई बार एकालाप उपन्यासों में अलग-अलग आवाजें हैं, उनके संवादों में पात्रों के आपसी द्वंद्व हैं, जीवन है, उसकी हरारत है, स्फुट व्यंग्य रचनाओं में ‘प्रीचिंग’ वाला स्वर कहीं न कहीं आ ही जाता है। उनके उपन्यास बिना किसी पर्वत-प्रवचन के अपनी बात पाठक के सीने पर खंजर की नोक-से लिख जाते हैं। हालाँकि ऐसा सभी स्फुट व्यंग्यों के साथ नहीं है, हिंदी की प्रथम गद्यपुस्तक वृहद् प्रेमपत्र निर्देशिका के सामने ‘राजदरबारी’ की ‘फिल्मी गीतों वाला प्रेमपत्र भी परास्त हो जाए और इस उपन्यास में बताई शिक्षा पद्धति और आपेक्षित घनत्व की पढ़ाई के मुकाबिल ज्ञानजी के ‘एक शिक्षा पद्धति यह भी’, ‘रामबाबूजी का बसंत, ‘शिक्षा पद्धति उर्फ एक विलाप इधर भी’ बाअदब, गुप्ता जी वैज्ञानिक बना रहे हैं’ को रखकर देखें। आपेक्षिक घनत्व इस आखिरी वाले व्यंग्य में भी वह है। ये सब उनके पहले व्यंग्य-संग्रह की रचनाएँ हैं और ये किसी तरह से कमतर नहीं है। बल्कि व्यंग्य उपन्यास में समापन तक व्यंग्य को निभा ले जाना उतनी बड़ी चुनौती नहीं होती क्योंकि इतने लंबे कथा-प्रवाह के दौरान वह पूर्णाहुति दृष्टि में आ ही जाती है, लेकिन प्रेतकथा की स्फुट रचनाओं में ‘क्लोजऱ’ का जो कौशल ज्ञान चतुर्वेदी दिखाते हैं, वह चकित है क्योंकि इतनी जल्दी व्यंग्य की किसी कथा को राउंड-ऑफ करना भी आसान काम नहीं होता। कई व्यंग्यकारों के व्यंग्य उपन्यास भी अंत तक व्यंग्य को कैसे निभाएँ, की दुविधा के कारण भी पूरे नहीं हुए। बायरन का डान जुआन, राबेला का गार्गंतुआ एवं पेंटाग्रुएल, बटलर का टूडीब्रास उनकी मृत्यु के कारण अधूरे रह गए अंत के अनैश्चित्य के चलते?
स्वाँग में गजानन बाबू जैसा चरित्र जिस तरह से ज्ञान चतुर्वेदी जी को मिला, वैसा ही मुझे महू और सागर-में मिला-या मिले। ज्ञान स्वाँग की अपनी भूमिका में उसे कम से कम तीन जगह देखने की बात कहते हैं, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अब तो गिनती के बचे हैं। वह नस्ल ही धीरे-धीरे खत्म हो जायेगी। ये प्राय: दुहराव के शिकार तो रहते ही हैं, लगातार बोलते भी जाते हैं, इनकी निराशा और इनकी खीझ सच्ची होने के बावजूद रहवासियों के बीच इतनी ज्यादा और इतनी बार प्रदर्शित हो जाती है कि सब उन्हें झकलट / पगलैट और न जाने क्या-क्या कहते रहते हैं। इनके सबसे उत्साह का दिन 15 अगस्त / 26 जनवरी का होता है। सबसे ज्यादा त्रासद इनमें यह लगता है कि नये दौर और इनके बीच कोई कॉमन ग्राउंड ही नहीं बचा। लोग इनसे कतरा कर चलते हैं। वह ‘देश’, जिसका स्वप्न देखकर उन्होंने बलिदान दिये जेल में गये, वह ‘देश’ भी उनका न रहा और यह ‘देस’ भी उनके लिए पराया हो गया। कब ऐसा हुआ जब संघर्ष करने वालों का यह ‘कनेक्ट’ टूट गया? क्या स्वतंत्रता ने उन्हें सेवानिवृत्ति की हालत में लाकर खड़ा कर दिया ?
सो शहर शहर जैसे आपको एक पागल मिलता है जिसे ट्रैफिक कांस्टेबल की भूमिका अदा करने की खब्त होती है, वैसे ही शहर-शहर गजानन बाबू अपने खो गये स्वप्न को ढूँढ़ते मिलते हैं। स्वप्न जो स्वराज का था। ज्ञान चतुर्वेदी अपनी कामदी से इस त्रासदी को उभारते हैं, ह्यूमर और हर्ट के बीच यहाँ बहुत कम फासला रह गया है, यह है ज्ञानवल्लभ का सत्याचार जो अतिशयोक्ति का सहारा लिये बिना भी आघात करता है। अंग्रेजों की लाठी खाकर जेल जाने को हमेशा तत्पर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को आजाद भारत के थाने के लॉकअप में बंद कर यह ‘स्वाँग’ पूरा होता है।
जान चतुर्वेदी जी के औपन्यासिक व्यंग्यों में जैसे कुत्ता उनका एक प्रिय पात्र है, वैसे ही शिक्षा और न्याय भी उनके प्रिय विषय हैं। इन विषयों पर स्वयं उनके लेखकीय एकालाप भी उतने ही नैरंतर्य से युक्त हैं जितने उनके दो या दो से अधिक पात्रों के बीच के संवाद जिनमें वे अहंकार, मूढ़ता और स्वार्थपरता की परतें प्याज के छिलकों की तरह उतारते जाते हैं : नकल वाले कॉलेज एक समय मध्यप्रदेश के कुछ अंचलों में विशेषत: कुख्यात रहे हैं। ‘स्वाँग’ में उनका कच्चा चिट्ठा है। एक लोकनाट्य एक लुटेरी सभ्यता के बीच लगभग छीज गया है, पर ऐसा लगता है कि उसकी राख जैसे समाज के सभी अंगों पर कालिख की तरह मल-सी गई है, स्वाँग मर गया, स्वाँग अमर रहे- जैसी स्थिति है।
ज्ञान अपने उपन्यासों में कथात्मकता को जैसे अलग-अलग दृश्यों के बीच में से बहाकर ले जाते हैं, उनमें स्वयं नाट्य बनने की बहुत संभावनाएँ हैं, लेकिन तब यह ‘स्वाँग के भीतर स्वाँग होगा। यह जो दुनिया है। इसके पंडिज्जियों का पूरी तरह से धर्मनिरपेक्षीकरण (सेकुलराइजेशन) हो चुका है। यहाँ कोई भावुकता काम नहीं करती। एक निष्करुण तर्काचित्यीकरण (रेशनलाइजेशन) है जो किसी की संवेदनाओं की परवाह नहीं पालता। क्रूर यथार्थ जिसमें टोकन फंतासी को भी जगह नहीं है। एक पढ़ी लिखी और कोटा जैसी जगह से आगे पढऩे को उत्सुक लडक़ी है, एक नन्हें मास्साब हैं, एक ईमानदार शिक्षाधिकारी हैं और एक गजानन बाबू हैं। ये दूसरा ध्रुव-स्तंभ हैं जो कथा के दूसरे प्रमुख पात्रों के प्रवाह में अस्थिरता और गतिरोध पैदा करते है। लेकिन भ्रष्टों की विजय को दर्ज करता अंत अंतत: एक त्रासद प्रभाव ही पैदा करता है जहाँ हमे स्वयं पर ही शक करने लगते हैं।
कि इन भ्रष्ट लोगों की विजय में हमें यह आदिम नरभक्षी आनंद आ कैसे रहा था? ‘बारामसी’ का अलीपुरा हो या ‘स्वाँग’ का कोटरा-बुंदेलखंड के गाँवों का ‘लोकेल’ बुंदेलखंड पर टिप्पणी की तरह नहीं हैं, व्यंग्य में एक ऊष्मा लाने के लिए है, ‘स्वाँग’ व्यवस्थाओं की समीक्षा है, जबकि ‘बारामासी’ सामाजिकताओं की- हालांकि दोनों में दोनों के उदाहरण मिल जिसे बुंदेलखंड के एक और ग्राम लुगासी में चित्रित किया गया है। उसी स्थानिकता का मृत्यु-केन्द्रित व्यग्य-उपन्यास है। मृत्यु जैसे गंभीर विषय पर दुनियादारी का ऐसा गँवई पुट ज्ञान ले आते हैं कि उनकी प्रतिभा की विलक्षणता माननी पड़ती है। मृत्यु के मुहाने पर जब शब्द तक निरर्थक लगते हैं तब ज्ञान यह उपन्यास लिखते हैं, वे लिखते है :
‘तो वैसे बब्बा एकदम ठीक ही थे? बुढ़ापे के अलावा और कुछ था नहीं? है न ‘एकदम कुछ भी नहीं था।…‘अच्छा?’ ‘और क्या?… एकदम फसकिलास ह्ते।’ ‘वैसे बुढ़ापे में क्या तो फसकिलास, क्या सेकंडकिलास? ‘जे भी सही बात…आदि-आदि।
जापानी लेखक मत्सुरा रीको की ‘द डे ऑफ द फ्यूनरल’ भी याद आ जाता है और प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय निर्देशक इतामी जूजो की फि़ल्म ‘द फ्यूनरल’ भी। रूदाली की बात बिना कहे भी कैसे रही जाती तो मंझली का चरित्र है।
‘वैसे तो परिवार की सभी औरतें बढिय़ा ही रो लती हैं परंतु नन्ना की पत्नी अर्थात् घर की मंझली बहू इसकी उस्ताद मानी जाती हैं, रुदाली करने में उनकी हैसियत लुगासी में ही नहीं, वरन आसपास के इलाकों में एक मिथक जैसी बन चुकी है… मझली मानों रोने वाली ऑटोमेटिक मशीन जैसी है। अच्छी भली बैठी बतिया रही हैं हँस बोल रही है। तभी दूर से कोई नया रिश्तेदार आता दिखाई दे गया कि बस मानो अंदर कोई खटका टाइप चीज दब जाती है। ये अचानक ही पछाड़े गवाने लगती है।… कोई कल ही मंझली की इस बात की प्रशसा करते हुए इसे ईश्वर के चमत्कार का दर्जा दे रहा था जिसने मझली में आँसुओं की टंकी फिर करके इस संसार में भेजा है और टंकी भी ऐसी चमत्कारी कि मंझली जब-तब इसके सारे नल एक साथ खोल देती है, परंतु टंकी फिर भी भरी की भरी ही बनी रहती है। साथ ही उनके गले में भी ईश्वर ने कुछ अनोखा मंत्र फिट किया है। तभी तो वे ऐसे ऊँचे स्वर में रोती है कि लोगों ने उनके रूदन पर छत के कवेलू तक खिसकते पाए हैं।
हिंदी फिल्म ‘रुदाली’ भी ज्ञान की इस पर्यवेक्षणात्मक बारीकी को नहीं पकड़ पाई है। मत्सुरा रीको रिचुअल रुदन के ‘कमोडिफिकेशन’ को पकड़ते हैं तो ज्ञान उसके कर्मकांडीकरणको। आँसू तो हृदय का ‘सार’ होते हैं। पर कैसे वे यांत्रिक हो जाते हैं-कैसे वे हृदय की स्वत:स्फूर्त प्रक्रिया न होकर ‘इंटेशनल’ होते जाते हैं, हम न मरब उस ड्रामे का अच्छा विश्लेषण करता चलता है।
क्रिस बाल्डिक ने कहा था कि This is a satirical age and among the vast reading public the power of an artist to awaken ridicule has never been so great इसी कारण ज्ञान जी के व्यंग्य इस युग के संदर्भ में इतने विश्वसनीय लगते हैं, लेकिन ‘मरीचिका’ में जब वे त्रेता युग और पादुका राज में चले जाते हैं तब उनका व्यंग्य अधिकाधिक एक शिष्ट स्मित ही उपजा पाता है।
व्यंग्य अपनी बहुत बड़ी शक्ति अपने समय की अधोगामिता और पतन से चुराता है। संस्कृतनिष्ठ हिंदी में मखौल और मसखरी का वह नटखटपना एक प्राचीन युग के संदर्भ में ला पाना वैसे नहीं हो पाता जैसे बुंदेली मे ठिठोली और दिल्लगी करते हुए हो जाता है। प्राचीन युग पर सेंसर भी ज्यादा लगे हैं, इसलिए उसे व्यंग्य-वस्तु के रूप में उठाना भी बहुत कंटकाकीर्ण गली से गुजरना है। डॉ. चतुर्वेदी यह साहस जुटा लेते हैं और एक बहुत खतरे वाले अंचल में अपनी तरह से एक प्रति विमर्श की रचना भी कर लेते हैं। अपने कथ्य को वे जिस कालखंड में ‘सिचुएट’ करते हैं, वह कालखंड ऐतिहासिक से कहीं ज्यादा पौराणिक स्मृतियों का कालखंड है। हमारे भारत में तो मध्यकाल तक को रोमांटिकीकृत किया गया है और हम शाहजहाँ या जहांगीर तक पर ‘कॅरी ऑन हैनरी’ जैसी किसी कॉमेडी फिल्म की सोच नहीं सकते। हेनरी अष्टम की तो छ: शादियाँ ही हुई थीं और वे भी एक समय में एक ही थी। लेकिन भारत में कोई मध्यकालीन बादशाहों पर ‘स्पूफ’ बनाने या लिखने की नहीं सोचता तो त्रेता में यह गुंजाइश निकाल पाना तो और मुश्किल है। खासकर अब जब भारत एक अलग ही मनोविज्ञान में मुब्तिला है। इसलिये ‘मरीचिका’ मरीचिका ही रह गई। उसके व्यंग्य में वह भावनात्मक तीव्रता नहीं आ पाई ‘व्यायामशाला से निकलकर सेनापति उपवन में विराज गये थे। यहाँ सुखद छाँव है। मंद-मंद प्रात: समीर है बह रहा है। पंछी चीं-चीं कर रहे हैं। इसी को राजकवि अपने काव्य में कहते है कि पंछी गा रहे हैं। कवियों की भली कही। पुन: गत रात्रि के आकंठ मदिरापान के पश्चात् प्रात: जब आपका भाल पीड़ा से फटा रहा हो, सब पंछी वस्तुत: गा भी रहे हों और वह उच्चस्तरीय संगीत ही क्यों न हो, सहनीय नहीं।’
यह एक ‘लेबर्ड’ (laboured) लेख-सा लगता है जिसमें वह स्वयं का नवीकरण करते रहने वाली गद्य-ऊर्जा नहीं दिखती जो ज्ञान चतुर्वेदी की पहचान बन गई है। गद्य की जो लोच उनके पूर्वोक्त उपन्यासों में है, वह यहाँ नहीं है। यहाँ व्यंग्य के ढाँचे (skeleton) की हड्डियाँ कड़ी हो गई हैं और जिनका तनाव ‘पागलखाना’ तक में पूरी-पूरी तरह निकला नहीं है।
क्या यह गँवई परिदृश्य की सहजता और राजधानी की कृत्रिमता का फर्क है? पर नरक-यात्रा तो-शहरी पृष्ठभूमि की है किन्तु ‘पागलखाना’ की तुलना में वहाँ बीमारी का ज्यादा अप-टू-डेट परीक्षण हुआ प्रतीत होता है ।
हँसी इतिहास या पुराण की दीवारों को, उनकी सरहदों को तोड़ देती है, बहाकर ले जा सकती है। लेकिन ‘मरीचिका’ में खुलकर हँसा नहीं गया है, जो है वह आनुभविक नहीं है, कल्पित हैं । व्यंग्य ‘इमेजरी’ के सहारे नहीं चल पाता, न इमेजिनेशन (कल्पना) के सहारे चलता है। उसे मानव समाज की गहनागहमी चाहिए होती है। इसलिए वर्जित क्षेत्र में जाकर परंपरा और प्राधिकार को चुनौती देने के बावजूद उसमें परिचितता और उन्मुक्ति की अंत: क्रियाएँ बहुत जीवन्त नहीं हो पाई हैं।
दरअसल ज्ञान अपने देहाती या ‘लोक’-व्यंग्य से स्वयं इतने आजिज़ आ जाते हैं कि वे शास्त्रीय सौंदर्य बोध पर व्यंग्य करने के लिए तृषातुर हो उठते हैं, सिर्फ जायका बदलने के लिए नहीं बल्कि दूसरे अंतरिक्षों में भी घूमकर आने के लिए, ताकि एक बार फिर वे अपनी सुपरिचित भूमि पर अपना पुनर्जन्म संभव कर सकें। वे स्वयं भी जानते हैं कि यह ‘क्लासिसिस्ट’ में व्यंग्य-परिहास का पता ढूँढ़ पाना एक मरीचिका है, लेकिन उस प्रयत्न के बाद ही ताजा होकर ‘प्रफेन’ तक उनका लौटना प्रभारी हो सकेगा-इसका बोध भी उनके लेखक के अवचेतन को है। आकाश-यात्राएँ अच्छी हैं, लेकिन अपनी मातृभूमि अपनी है।
पागलखाना में भी लेखक स्वयं थोड़ा ‘प्रीची’ (उपदेशात्मक) हो गया है। उसमें बुंदेलखंड-त्रयी के तीनों व्यंग्य-उपन्यासों या नरक-यात्रा की तरह का ‘लिबरेटिंग’ पाठानुभव नहीं हो पाता। रागदरबारी के शिवपालगंज में श्रीलाल शुक्ल जितने आडंबर- मुक्त हैं, उतने ‘उमरावनगर’, में नहीं है। यही बात ज्ञान जी के साथ है पर स्फुट व्यंग्यों में ज्ञान चतुर्वेदी जी के यहाँ रचनात्मक सफलता का यह शहरी-ग्रामीण द्वैत मिट जाता है। दोनों जगह उनकी कॉमिक हिंसा उतनी ही बनी रहती है। व्यंग्यों में वर्जनाओं के बीच मटरगश्ती करने की सुविधा का समान आसानी से उपभोग वे दोनों स्थान पर कर लेते हैं। उनकी बुंदेली स्फुट व्यंग्यों में गायब है, इसलिए जैसी विकृत्यात्मकता (grotesqueness ) उपन्यासों में है, वैसी उनमें न भी हो तो भी नगरों के बूर्ज्वा अहं की अच्छी खिंचाई वे ‘खामोश नंगे हमाम में हैं’ के छिटपुट व्यंग्यों में कर लेते हैं।
ज्ञान चतुर्वेदी फब्तियों को यों टोंचकर सिद्ध कर ही देते हैं कि वे एक उच्च नैतिक मंच पर खड़े हैं।
उनकी रचनाओं में आयी गालियों से लगता है कि यह लेखक कोई लिहाज नहीं पालता और एक तरह की अभावुकता का लेखन करता है। लोगों की बेशर्मी और बेहयाई को जिस बेतकल्लुफ़ी से वे बताते हैं, ऐसा लगता है जैसे अपनी मातृ-संस्कृति से उनके विरोधात्मक रिश्ते हैं। लेकिन एक हिंसक अमानुषिकता के प्रति उनकी ओर से उठाई गई अँगुली ही उनकी प्रतिबद्धता को उजागर करती है। वे भावुक हैं तभी वे ऐसी कमजर्फी से निगाह नहीं हटा पाते। जब वे त्रेतायुग को तेजोमंडित नहीं करते तब कलयुगी टुच्चेपन को कैसे नजऱअंदाज कर सकते हैं?
क्या यह उनकी अवज्ञाकारिता है और अपने अंचल से स्नेह के सभी रिश्तों का टूट जाना है? या कि बार-बार अपने अंचल की ओर उनका लौटना यह भी पता देता है कि इससे उनके कुछ ममता के तार बँधे हुए हैं। इसलिए वहाँ की कमीनगी पर कलम चलाते हुए वे कहीं से कर्कश और झगड़ालू नहीं दिखाई देते। वे अरसिक और रूखे स्वभाव का व्यंग्य लेखन नहीं करते हैं और व्यंग्य की शकल में कोई निंदा पुराण भी नहीं लिखते। वे किसी शत्रुभूमि में नहीं है। प्राय: या तो मातृभूमि में हैं या कर्मभूमि में और उनका इनके साथ किया गया संव्यवहार इनके लिए जरूरी एक मूल्यबोध के बिना संभव ही नहीं है।
उनके पाठक को कुछ एक अपवादों को छोड़ कहीं नहीं लगता कि वह एक गल्प-कल्प में है, ‘पागलखाना’ के अलावा प्राय: वे कहीं ज्यादा या दीख पड़ जाने वाली कमेन्ट्री भी नहीं करते है। उनकी रचनाओं में राजनीतिक पक्षपात या पक्षाघात दोनों में किसी के दर्शन नहीं होते। उनके लेखन में दलीय राजनीति की दलदल नहीं है और उसे हर प्रसंग में एक सर्वतोभावी सड़ाँध की तरह देखते ही रहने का दुराग्रह भी नहीं है। आज हालत यह है कि जिनसे आलोचक घृणा करता है, उनसे व्यंग्यकार उतनी ही तीखी घृणा नहीं करता तो आलोचक उससे प्यार नहीं करेगा। विचारधारात्मक और व्यक्तिपरक राग द्वेषों का अनुकरण उस व्यंग्यकार से कैसे माँगा जा सकता है जिससे हम उसकी बेबाकी और उद्धतता के कारण ही सम्बोधित हैं? यह ज्ञान चतुर्वेदी जी के लिए बहुत स्वाभाविक है कि वे निस्संगता का गुस्ताख लेखन करते हैं। इस मामले में वे जितने शोख हैं उतने सरकश हैं। हरिशंकर परसाई जी के सब और यहाँ फिर भी एक मोह बचा रह गया था। ज्ञान पूरी तरह से उत्पाती व्यंग्य लिखने का संकल्प निभाते हैं। यह Total disaffection सम्पूर्ण रागशून्यता। यही उनके प्रति पाठक का अनुराग जगाता है। इसी में उनकी प्रामाणिकता भी है।