1.
मैं जो हूँ
वही कहलाने से डरता हूँ
डरता हूँ कि कहीं
किसी जागरूक क्षण में
अपनी ही उँगली
कमजोर नसों पर न पड़ जाए
और पूरा व्यक्तित्व
प्रश्नों से न घिर जाय
डरता हूँ, उस प्रश्न से
जो रोज, रात ढलने पर
अकेले में उठता है
और कहता है
कि सुनो-
जब साहस दिखाने का वक्त था
तुम कायर बन
पिछली गली से निकल गए
छलनी करने वाले दृश्यों से
हाय, मुख मोड़ गए
बताओ तो, कितनी-कितनी बार
अपनी ही आवाज़
अनसुनी कर दी
हृदय के मंतव्य दबा दिए
धारा संग बह गए
अपने ही आदर्शों को कुचल
बढ़ गए और बढ़ते गए
मैंने कब कहा कि
तुम जीना ही छोड़ दो
सब जीते हैं, तुम्हें भी पड़ेगा जीना
अपने ही सीने पर
हथौड़े की मार झेलना
मगर सुनो, तुमने
हथौड़े की चोट तो सुन ली
पर, उसे कब सुनोगे
जो सीने से भी कहीं
गहरे में पड़ती है
भीतर ही भीतर उठती है, पिराती है
उठती और पिराती ही चली जाती है
पूरे वज़ूद को ही झकझोर जाती है
मैंने कब कहा कि
तुम ज़माने के विरुद्ध चलो
सब चलते हैं
तुम्हें भी पड़ेगा
उसके साथ ही चलना
मगर कुछ तो ऐसा करो
कि तुम्हारा भी अपना
कुछ बचा रहे
अंश मात्र ही सही
पर कुछ तो कहीं
सच्चा रहे
देखो वह पत्ता कितना छोटा
कितना नगण्य है
परंतु हवा के थपेड़ों से
वह भी खड़खडाता है
अपने मर्मर के स्वर से
जिंदा होने का सबूत दे जाता है
तुम तो मनुष्य हो
बल-बुद्धि-विवेक से
तुम्हारा जन्मजात नाता है
यत्र-तत्र-सर्वत्र
तुम्हारा ही झंडा लहराता है
फिर क्यों तुम्हारी यह कायर गाथा है
यह अँधेरा तुम पर
क्यों गहरा ही हुआ जाता है
सुनो, झूठ-मूठ ही सही
मगर कभी तो वह
सच्ची तान दो
कि लगे कि
नहीं, अभी तुम मरे नहीं हो
है अभी बहुत कुछ
शेष है, शेष है अभी…!
*********
2.
हम उतना बढ़ेंगे
आप जितना रोकेंगे
हम उतना बढ़ेंगे
सनद रहे, हम उतना बढ़ेंगे
षड्यंत्रों से कभी संकल्प डिगे हैं
बाधाओं से कभी इरादे झुके हैं
सत्य के आगे कभी प्रपंच टिके हैं
अवरोधों का सीना चीर
हम फिर फूटेंगे, बढ़ेंगे, लहलहाएँगे
आप जितना रोकेंगे
हम उतना बढ़ेंगे
सनद रहे, हम उतना बढ़ेंगे
कल हमसे मनुष्यता अर्थ पाएगी
ऊँचाई मानक तय करेगी
पीड़ित-पददलित जन न्याय पाएँगे
हर बाहरी अँधेरे को
हम अपने भीतरी उजालों से पराजित करेंगे, फिर उठेंगे
हर अँधेरे को चीर
फिर… फिर… उठेंगे
आप जितना रोकेंगे, हम उतना बढ़ेंगे
सनद रहे, हम उतना बढ़ेंगे
आप बादल बन
सूरज को कब तक ढकेंगे
कब तक उसकी चमक कुंद करेंगे
कब तक उसके व्यक्तित्व पर
कुंडली मारे बैठे रहेंगे
बादल हटेगा, अँधेरा छँटेगा
हम सूरज बन फिर दमकेंगे
अपनी अरुणिम आभा से
प्राची के मस्तक पर
फिर धर्म-ध्वजा फहराएँगे
हम फिर निकलेंगे
आप जितना रोकेंगे
हम उतना बढेंगे
सनद रहे, हम उतना बढ़ेंगे
खुशबू को कैद में रखने की आपकी अभीप्सा-महत्त्वाकांक्षा
कभी कामयाब नहीं होगी
हर बासंती बयार के साथ
हम मलयज बन बहेंगे, फैलेंगे
हर आती-जाती साँस को
अपने होने के सुखद एहसासों से
भर जाएँगे, आप जितना रोकेंगे
हम उतना बढ़ेंगे
सनद रहे, हम उतना बढ़ेंगे
हम सनातनी हैं
हमारा प्रेम जितना ऊँचा होता है
संघर्ष भी उतना ही गरिमापूर्ण होगा
हम संघर्ष को भी नई ऊँचाई देंगे
और गर हम लड़ते-जूझते
मर-खप गए
तो भी व्यर्थ नहीं जाएँगे
चिता की चेतना बन
ऊँचा उठेंगे, और उठेंगे
और उठेंगे…
अपनी लपटों से
हरेक को कुंदन बनाएँगे
दिक्-दिगंत में प्रकाश भरेंगे
हर मौन को समवेत सस्वर करेंगे
हम अपनी चिता की राख से भी
नित नव निर्माण करेंगे
सृजन को, स्वप्नों को,
संकल्पों को
पालेंगे-पोसेगे…
और बड़ा करेंगे…
आप जितना रोकेंगे, हम उतना बढ़ेंगे
सनद रहे, हम उतना बढ़ेंगे।
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3.
ऐसे आओ
जैसे तपती धूप में
बारिश की पहली फुहार
ऐसे आओ
जैसे हहराते पतझड़ में
मदमाती बासंती बयार
ऐसे आओ
जैसे रेगिस्तानी झुलसन में
झूमती बरखा बहार
ऐसे आओ
जैसे रुकी हुई जिंदगी में
दरिया की ताज़ी धार
ऐसे आओ
जैसे ढलती आयु में
यौवन का शृंगार
ऐसे आओ
जैसे अँधेरे जीवन में
उजालों का संसार
ऐसे आओ
जैसे रिश्तों के बियाबान में
भरोसे का आधार
ऐसे आओ
जैसे बेगानों की भीड़ में
नेह का आगार
ऐसे आओ
जैसे जीवन के शोर में
संगीत का सितार
ऐसे आओ
जैसे बंजर जमीं पर
फूट पड़े फ़सलें अपार
ऐसे आओ
जैसे गूँगों के देश में
वाणी का उपहार
ऐसे आओ
जैसे निर्जन भटकन में
अपनों की पुकार
ऐसे आओ
जैसे चिर वियोग के बाद
मिले हों पहली बार
दसों दिशाओं में
गूँज उठे राग-मल्हार
ऐसे आओ
जैसे छेड़ता आए
कोई संवेदनाओं के तार
जिसका स्पर्श पाते ही
पोर-पोर में बज उठे
चेतना की झंकार
ऐसे आओ
जैसे महक उठे हों
समग्र धरती-संसार
न कोई अपना, न बेगाना
हर तरफ दिखे
बस प्यार ही प्यार
ऐसे आओ
जैसे…
*********
4.
प्रौढ़ों का प्रेम
प्रौढ़ों के प्रेम में
तन का उद्दाम
आवेग नहीं होता
न सतह के ऊपर
उठती लहरें
न लहरों का ज्वार
न शब्दों का शोर
न धूप की कौंध
न आसमानी ख़्वाब
प्रौढ़ों के प्रेम में
सागर की अतल
गहराई होती है
आकाश-सा विस्तार होता है
होठों पर गीत सजे न सजे
आत्मा का संगीत होता है
शब्द नहीं बोलते
मन-प्राण बजते हैं
न व्यथा बाँचनी पड़ती
न शब्द उछालने पड़ते
न बात-बेबात
कसमें ही खानी पड़तीं
न विश्वास ही दिलाना पड़ता
न ही तटबंध तोड़
बह चलने की या
बहा ले जाने की
व्यग्रता होती है
प्रौढ़ों के प्रेम में
ठहराव होता है
गति हो या न हो
भीतर कहीं जुड़ाव होता है
प्रौढ़ों के प्रेम में
बरसाती नदियों-सा
उछाह और तरंगें हो न हो
पर साथ-साथ चलने का
मंजिल तक पहुँचने का
सलीका होता है
प्रौढ़ों के प्रेम में
होठों की भाषा
काम नहीं आती
आँखों की भाषा
आँखें समझती हैं
तन का संगीत
मन में उतरता है
पोर-पोर बजता है
दूर कहीं कोई टेरता है
और आवाज़
सीधे दिल तक पहुँचती है।
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5.
वह बूढ़ा बरगद
गाँव के मुहाने पर खड़ा
वह बूढ़ा बरगद
अब किसी की राह नहीं तकता
न पलकें बिछा मनुहार ही करता
न कुशल-क्षेम ही पूछता
न अपना हाल-चाल ही सुनाता
बस खोया-खोया रहता है
उसकी आँखों में खिले
उम्मीदों के कमल
अब कुम्हलाने लगे हैं
उसकी पथराई आँखों में
अब न खुशी छलकती
न दर्द ही उभरता
उसके चबूतरों पर अब
न चौपालें लगतीं
न अपनों की महफिलें सजतीं
न दोस्तों संग गप्पें छिड़तीं
न बच्चों की धमा-चौकड़ी ही मचतीं
कुछ उदास-एकाकी वृद्ध स्वर
उसके साये में आकर डूब जाते हैं
अब उसकी घनी शाखों पर
न कोई चिरैय्या चहचहाती
न कोई गोरैया गाती
न मैना फुदकती
न बुलबुल ही गुनगुनाता
सब आकाश नापने, ऊँचाई छूने
दूर…बहुत दूर…निकल गए हैं
सबको कुछ होना है
सबको कुछ पाना है
पीछे मुड़कर देखने की
उन्हें फ़ुर्सत ही कहाँ है
तिनका-तिनका जुटाकर
बनाए गए उस बूढ़े पेड़ की
नीड़ों और शाखों पर
अब किसी का बसेरा नहीं
जहाँ कभी जिंदगी मुस्काती थी
वहाँ अब खाली हवा सनसनाती है
हाँ, कभी-कभी उसकी
उखड़ती साँसों की गंध पा
वहाँ कुछ चील और गिद्ध
गाहे-बेगाहे मंडराया करते हैं
*********
6.
चुका भी नहीं हूँ मैं…
जानता हूँ
चुका भी नहीं हूँ मैं
है, अभी बहुत कुछ शेष है
अभी भी खूब खिला फूल
बच्चों की मासूम हँसी
नदी-पर्वत-सागर
धरती-आकाश-चाँद-सितारे
साहस, संघर्ष, संकल्प
खूशबू, सपने, उम्मीदें
मुझे बाँधे है!
सहजता मुझे आज भी
भाती है, आकर्षित करती है!
पर यह भी सत्य है
कि कुछ है जो मुझे
अंदर-ही-अंदर कचोटता रहता है
कुछ है जो अपनों के बीच भी
अजनबियत के एहसास से
मुझको उबरने नहीं देता!
थक चुका हूँ
ओढ़ी हुई मुस्कानों से
अभिवादनों, नकली सलमे-सितारों से
जीवन की यांत्रिकता, असहजता
भीतर-भीतर पिराती है
रिश्ते हैं, पर उसकी ऊष्मा
न जाने कहाँ ग़ायब हैं
दिलों पर जमी बर्फ़
न पिघल पाती है
न जीने देती है
साधनों के बीच भी
न जाने कौन-सा अभाव
खालीपन के एहसास को
तरी रखता है!
अपनों और परिचितों के बीच भी
भीतर…और भीतर
…न जाने कौन… किसे
टेरता रहता है!
ढलती उम्र के साथ
सफलता के शोर
और दावों के बीच
सार्थकता का सवाल
न जाने क्यों
और गहरा होता जाता है?
*********
7.
ऐसे आओ…!
ऐसे आओ
जैसे तपती धूप में
बारिश की पहली फुहार
ऐसे आओ
जैसे हहराते पतझड़ में
मदमाती वासंती बयार
ऐसे आओ
जैसे रेगिस्तानी झुलसन में
झूमती बरखा बहार
ऐसे आओ
जैसे रुकी हुई जिंदगी में
दरिया की ताजा धार
ऐसे आओ
जैसे ढलती आयु में
यौवन का शृंगार
ऐसे आओ
जैसे अँधेरे जीवन में
उजालों का संसार
ऐसे आओ
जैसे रिश्तों के बियाबान में
भरोसे का आधार
ऐसे आओ
जैसे बेगानों की भीड़ में
नेह का आगार
ऐसे आओ
जैसे जीवन के शोर में
संगीत का सितार
ऐसे आओ
जैसे बंजर जमीं पर
फूट पड़े फ़सलें अपार
ऐसे आओ
जैसे गूँगों के देश में
वाणी का उपहार
ऐसे आओ
जैसे निर्जन भटकन में
अपनों की पुकार
ऐसे आओ
जैसे चिर वियोग के बाद
मिले हों पहली बार
दसों दिशाओं में
गूँज उठे राग-मल्हार
ऐसे आओ
जैसे छेड़ता आए
कोई संवेदनाओं के तार
जिसका स्पर्श पाते ही
पोर-पोर में बज उठे
चेतना की झंकार
ऐसे आओ
जैसे महक उठे हों
समग्र धरती-संसार
न कोई अपना, न बेगाना
हर तरफ दिखे
बस प्यार ही प्यार
ऐसे आओ
जैसे…