1.
जलप्रलय
फूल लिखना अनिवार्यता है
मैं चाहती हूं कुछ नए खिले
अधखिले महकते गंधहीन फूलों की बात लिखूं।
मुझे याद आते हैं आजकल
फूल से नन्हें शिशु
मां की छाती से चिपके!
भूख प्यास से मुरझाए चेहरे की अपरिहार्यता में
नहीं लिखी जाएगी
फूल कविता!
उमड़ते बादलों का वर्चस्व
स्वीकार करती मेघ की सीमाएं
कालिदास की
प्रेम पातियां पहुंचाने की व्यग्रता में हैं।
सौंदर्यबोध आत्मसात करते ही
अपराधबोध की दलदली में धंस जाती हूं।
मुझे हठात स्मरण होता है
भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की
घोर अंधेरी
जलप्रलय में बिछी रात।
मैं मूंद लेती हूं
अपनी दोनों आंख
बूंद की अतिरेकता बचाने हेतु।
2.
तपते दिन की बेचैनी से, कलियों के मन घबराए।
भर आये बादल के नैना, झहर झहर घन बरसाए।
बरसे सावन हरित हुआ मन, श्यामल नभ घिर इतराए।
दें मोती बनकर बिखरी, ज्योति कलश ज्यों छितराए।
ठहर ठहर पत्तों के मुख पर, बातें करती फूलों से।
तन सिहराये पवन झकोरे, ओझल होती झूलों से।
भीगी भीगी वल्लरियों ने, शृंगारित मुख दिखलाए।
मधुवर्षित आभा बिखराती, आंचल तन पर लहराए।
नीले पीले रंग सुनहरे, बहुरंगी आश्वासन थे।
निमिष निहारे चंचल नैना, श्वेत सरोरुह आसन थे।
मृदु कल्पित चुंबन अधरों से, न्योछावर करती बूंदें।
पात पुष्प के विहंस उठे तन, रहि रहि प्रेमिल पद चूमें।
महक रहा कस्तूरी सा मन, सुधि बुधि तन की बिसराए।
स्वाती बरसे पूर्ण मनोरथ, चातक के दिन फिर आए।
टप टप टिप टिप करती उतरी, ध्वनि मंगल शुभता न्यारी।
वन उपवन खलिहान खेत सब, हर्षित आंगन फुलवारी।
पी कर मन भर प्रेम सुधा घट, हरित हुई जीवन काया।
वसुधा की मनहर छवि मोहे, अद्भुत ऋतुओं की माया।
3.
अनकही पीड़ाएं…
नदी तोड़ चुकी है मर्यादा
किनारे से बाहर निकलकर
लांघ रही सीमाएं…
पुश्तैनी आंगन में
तुलसी चौरे की जलमग्न देह
खड़ी है समाधिस्थ।
ओसारे की ओर सरक रही नदी
बाबा के सपनों का घर
उजाड़कर रखने का मन
बना चुकी है।
जिन फूल पौधे पेड़ों से सीखी
मृदुलता।
जिनके रंगों में भीजकर कल्पना
करती रही चित्रकारी…
सब विवश दे रहे हैं
प्राणों की आहुति।
अल्फांसो दशहरी मल्लिका की आंखें भरी हैं
अमरुद के तने पर बैठने वाला सूगा
छोड़ चुका है नीड़।
लीची के सघन पत्ते अभी अपने
फलों की सुंदर स्मृति से उबर भी नहीं पाए थे।
नारियल की दृष्टि समस्त जलराशि का
सटीक आकलन करती मौन ओढ़े
बढ़ते तांडव का देख रही
रौद्र स्वरूप।
चंदन अशोक अर्जुन गुलेफानूस उदास हैं।
सेंसवेरिया के अनगिनत गमले डूब चूके हैं आकंठ
चीकू आंवले से लिपटा अलमंडा
नियति की विडंबना को कोसता
दे रहा तिलांजलि
एक एक कर अपने पात।
गुलाब मधुमालती कामिनी
और रात की रानी के गंध से सराबोर
सांझ रात पर लग जाएंगे ताले।
अब नहीं महकेगी बेली चमेली
चैत की पुरवाई में।
देव पूजा में अर्पण के लिए
चंगेरी भर उड़हुल कनेर धतूर बेलपत्र
भांग की पत्तियों का दुर्लभ होगा दर्शन।
मैं नहीं बचा पा रही मुझसे जुड़े जीवन अंश
क्योंकि डूब रहा है
पिता का घर!
4.
गीत
अब सुन पीड़ा के इंद्रधनुष
सारा आकाश तुम्हारा है।
दु:ख बरसे हैं जी भर भरकर
सुख प्रत्यर्पण से हारा है…!
बिखरा दो रंगों की शोभा,
भय अमिय कलश बन छितराए।
घनघोर घिरे जब घन कारे,
मन ज्योति पुंज सा जल जाए।
सुख से दु:ख का दु:ख से सुख का,
आजीवन संधि सहारा है।
अब सुन पीड़ा के इंद्रधनुष सारा आकाश तुम्हारा है।
एकांत गहनता बढ़ती है,
फिर मौन निशा में जलती है।
तरुवर की निर्जन देख व्यथा,
निश्वास प्राण आधारा है।
अब सुन पीड़ा के इंद्रधनुष सारा आकाश तुम्हारा है।
प्रतिशोध विरोध निषिद्ध किए,
जलते बुझते अनुताप सहे।
संघर्षों में नित तप जलकर,
कुंदन सा रूप निखारा है।
अब सुन पीड़ा के इंद्रधनुष सारा आकाश तुम्हारा है।
5.
दिवास्वप्न
मैं और मेरी कल्पना
देखते हैं मिलकर दिवास्वप्न
बैठते हैं एकांत मन की झील के
घाट पर तटस्थ होकर
अपलक निहारते आशाओं के
अधखिले श्वेत ब्रह्मकमल।
निमिष प्रलोभन मात्र से
विलीन होते अस्तित्व का
विक्षोभ
सह लेते हैं…
मैं और मेरी कल्पना।
मैं और मेरी कल्पना
उद्दीप्त करते हैं घोर तिमिर
अति व्याप्त अमावस की
यामिनी का आंचल
अखंड आस्था विश्वास के
अनगिनत दीये की
मध्यम लौ से।
ज्योतिर्मय आभा समेटती अंतरा
सह लेती
उन्मुक्त पवन के आवेग विप्लव।
मैं और मेरी कल्पना
साक्षी हैं उस वियोग की
उद्दातता के।
मैं और मेरी कल्पना
भरते हैं एक ऊंची उड़ान
विस्तृत आकाश की विशालता
आबद्ध करने को आतुर
अवलोकन करते रंग बदलते
बादलों का प्रेमालाप।
आनन्दातिरेक में छलकती बूंदों से
खिंचते सतरंगी इन्द्रधनुषी वितान
मैं और मेरी कल्पना
निहारते हैं पलभर में विलीन रंगों की निष्ठुरता का वियोग
सराहते हैं आकाश के धैर्य की पराकाष्ठा
मैं और मेरी कल्पना
जीते हैं सुख दुःख के संयोग वियोग।
6.
सिंदूरी हो सांझ सुहानी, सुंदर नख शिख बैन।
अलकें चूम रहीं मुख कोमल, अंबर ताके नैन।
ढलती जाती तिल तिल बेला, निशा निहारे बाट।
छिटकेगी फिर धवल चांदनी, तरणिसुता नव घाट।
उकताये मन के घन ऐसे, भर भर आए नैन।
उमड़ घुमड़कर लौटे बेकल, विरहन मन बेचैन
चमक रही अति वेग दामिनी, घन गरजे घनघोर।
सावन ऋतु अति मोहपाश में, बांध रहा मन डोर।
पात पात भीजे रस बरखा, कुसुम कली मृदु गात।
पावन मन आंगन की शोभा, झिर झिर बहे बतास।
डोल रही फूलों की डाली, बिखरी बास सुवास।
बूंद बरसती मन हर्षाए, पावस हिय उल्लास।
नैनों ने देखे मृदु सपने, प्रीति लिखे मधु गीत।
रिमझिम बदरा मन भरमाए, बजता मन संगीत।
7.
मैं जनती हूं कविताएं
किसी अन्य को
जनक के अधिकार के आधिपत्य से
मुक्त रखती हूं।
सहधर्मिता की नियमावली का
अनुपालन नहीं होता
इस सृजन में।
मैंने अपनी अनुभूतियों की हठधर्मिता
के निर्वहन मात्र से
अपने हृदय गर्भ में
बीज आरोपित किए हैं
जो बसंत और घहराते काले
मेघ सदृश पुष्पधन्वा की
धरोहर हैं।
कुसुम कचनार पाटली केतकी
से झड़ते रस गंध से पोषित
स्वाति उत्तराआषाढ़ नक्षत्रों की
बूंदों से अलंकृत
मलय पवन के रेशे से
बुने गए कौशेय वसन
सुसज्जित
मैं आसन्नप्रसवा जनती हूं कविताएं!