पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के मेरे कक्ष में एक खिलखिलाती लंबे बालों व बड़ी आँखोंवाली आकर्षक युवती ने प्रवेश किया था। चार वर्ष पहले की बात है, उसने अपने चैनल ‘फुल वॉल्यूम’ के लिए मेरे एक साक्षात्कार की गुज़ारिश की थी। तभी पता लगा कि मेरे ही कैंपस के मास कॉम विभाग की गेस्ट फैकल्टी हैं महिमाश्री। उम्र में मुझसे छोटी होने के बावज़ूद एक प्रगाढ़ मैत्री में जुड़ गए थे हम। सकारात्मक दृष्टिकोण, निश्छल हृदय और अनवरत कर्म इनकी खास पहचान है।
कला एवं संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार से सीनियर फेलोशिप प्राप्त महिमाश्री ने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता व जनसंचार विश्वविद्यालय से पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर किया है। लगातार लेखन करते हुए काव्य एवं गद्य विधाओं में तीन पुस्तकों के अतिरिक्त अनेक साझा संकलनों में इनकी रचनाएँ संगृहीत हैं। देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं सहित वेब-पत्रिकाओं में भी लगातार अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हुई, रेडियो एवं दूरदर्शन से भी जुड़ी रही हैं।
इनकी प्रथम काव्यकृति ‘अकुलाहटें मेरे मन की’ की छिटपुट रचनाओं से फेसबुक के माध्यम से जुड़ना हुआ था मेरा, जिसमें पुस्तक का नाम भी चिन्हित होता था। कविताओं की अकुलाहटें खींचती थीं…पढ़े बिन बढ़ने नहीं देना, सोचे बिन रहने नहीं देना, सच्ची रचनाओं की पहचान हैं। गंभीर भावों एवं सच्ची अनुभूतियों से गुजरती कवयित्री पाठकों के मन को मोहने में सक्षम नज़र आती हैं।
आज कवयित्री महिमाश्री का एक अन्य रचना-संग्रह ‘जरूरी है प्रेम करते रहना’ मेरे हाथों में है। पुस्तक की भूमिका पढ़ता पाठक अंतःकरण से हिल जाता है, जब कर्मक्षेत्र और सामान्य जीवन में अपनी पीड़ाओं को अनवरत खिलखिलाहट में छिपाने वाली युवती आज एक एक दुःख, अपार दर्द और तकलीफों को किस प्रकार अपने सशक्त शब्दों से मूर्त कर रही हैं।
पहली बार पाठक समझ पाते हैं कि प्रस्तुत पुस्तक ‘जरूरी है प्रेम करना’ ‘कैंसर’ जैसी बीमारी की अनगिनत जकड़न के साथ, घनघोर अंधकार में उम्मीद का एक दीया जलाए, सकारात्मकता का अनमोल दस्तावेज़ है। निराशा में टूटना नहीं, जीवन से प्रेम करते रहने का संदेश देता यह संग्रह रचनाकार की जीवन-शैली, चिंतन-प्रक्रिया से जोड़ता है…प्रत्येक रचना एक साँस में पढ़ जाने को प्रेरित करता है।
इस संग्रह के तीन खंड हैं, जिनमें बावन रचनाएँ संकलित हैं।
‘प्रथम खंड’ की रचनाओं में कर्क रोग से लड़ता ‘कवि’ दीख पड़ता है, कभी कमजोरी के क्षण, कभी तटस्थता, कभी अपार शक्ति तो कभी निर्वेद मनः भाव। इस खंड की शुरुआत ‘काफ़्का’ के दार्शनिक कोटेशन से होता है– ‘हम मरने के लिए नहीं, जीने के लिए अभिशप्त हैं।’
‘कर्क रोग से लड़ते हुए’, ‘यहाँ किसी की सदा नहीं आती’, ‘हॉल नंबर 206’ जैसी रचनाओं के माध्यम से कवि के भोगे यथार्थ से गुजरती हूँ। पुनः ‘गढ़ने होंगे सौंदर्य के नए प्रतिमान’ .. पढ़ते पढ़ते अंतःकरण तक भीग जाती हूँ… क्या पीड़ा, कैसी अभिव्यक्ति और स्वयं का कितना मान…! पाठक के अंदर सम्मान सा जगता है, सच है उम्मीदें कभी नहीं मरतीं…
‘उसकी एक छाती कैंसर खा गई है
कोई उसे समझा दो
छाती के बिना भी वह स्त्री ही है
आकार बदल जाने से रिश्ते नहीं बदलते
ममत्व छाती का मोहताज नहीं
कोई उसे बता दो जरा!
बालों के बिना पहले से भी ज्यादा खूबसूरत हो गई है।
सौंदर्य के प्रतिमान तो गढ़े जाते हैं!!’
सच में एक नया प्रतिमान गढ़ा गया है।
इस रचना से आगे बढ़ते ही पुनः ठिठकती हूँ…
‘बुद्ध भीतर ही मिलेंगे’…
महिमाश्री सिर्फ एक रचयिता नज़र नहीं आतीं…कभी वीरांगना, कभी सौंदर्य खोने के दर्द में विलाप करती युवती-
‘टूटे पंख किताबों में ही अच्छे लगते हैं’…कहती-कहती अचानक एक गंभीर अकाट्य दर्शन रच देती है…
‘बुद्ध भीतर ही मिलेंगे
अपनी खीर भी खुद ही बनानी होगी
सुजाता अंतर्मन की पुकार है।
साँसों की अंगीठी सुलगा कर तुम बस प्यास को जगाए रखना
बुद्धत्व तुम्हें भी मिलेगा
मेरे यायावर!!’
दूसरा खंड ‘फर्ग्युसन’ की वाणी से प्रारंभ किया गया है-
‘प्रेम संवेदना से ज्यादा कुछ नहीं है, लेकिन प्रेम प्रतिबद्धता से अधिक है।’
महिमा जी इस खंड में जीवन के उलझे सिरे सुलझाने को प्रतिबद्ध नज़र आ रही हैं…
‘जब कभी हम मिलें
मुझे हर वो दरख़्त, चिड़िया, तितली
और उन सारे जंगली फूलों के नाम बताना
जो तुम्हारी उदास शामों में
जुगनू की तरह नुमाया थे…
तमाम उलझनों को सुलझाने का
शायद
अनजाने ही कोई सिरा हाथ आ जाए!!
इस खंड में कभी दो पंक्तियों की, कभी चार पंक्तियों की रचनाएँ कवयित्री के मनोभाव की झलकियाँ सी हैं…शायद इतने में उनका चित्त अभिव्यक्ति का सुकून पा लेना चाहता है-
‘उसने कहा वह बहुत व्यस्त है
मैंने इंतज़ार सुन लिया…’
या फिर –
‘पहाड़ अपने गीत झरनों को सौंपते आए हैं
सैलानी सोचते हैं-
‘झरने कितना सुंदर गाते हैं’…
ऐसा लगता है कवि-मन अन्योक्ति भाव से कुछ अलग संवाद देना चाहता है। द्वितीय खंड की रचनाओं में ‘प्रेम अपनी जगह रहेगा’ का केन्द्रीय भाव इस कविता संग्रह के शीर्षक को परिपुष्ट करता प्रतीत होता है-
‘प्रेम आकाश फूल है।
भाता तो बहुत है
पर किसी विरले के हाथ आता है।
मीरा ने पिया विष का प्याला
राधा रमी कर्तव्य और मित्रता में
कृष्ण ने चुना वैश्वानर हो जाना
और इस तरह एक दिन
हमें भी प्रेम में आकाश हो जाना है!!’
संकलन का तीसरा खंड ‘अकुलाहटें मेरे मन की’…
इस भाग में कुछ अकुलाहटें हैं तो कुछ भीड़ भी, बाबूजी हैं, माँ के माथे की बिंदिया है तो एक प्यारी दिदिया भी है, किसी का मौन है तो अनुबंधों के दिन भी हैं…ऐसा लगता है जैसे कि रचनाकार के चित्त की मुक्तावस्था जैसा है इस संग्रह का अंतिम खंड।
संग्रह की अंतिम रचना पुनः पीड़ाओं के भँवर में कसमसाती दीख पड़ती है, पाठक के हृदय में टीस सी उठती है… कवयित्री की करुण तान पुस्तक बंद करने के बाद भी एक हूक सी छोड़ जाती है…
‘अश्वत्थामा हूँ मैं
त्रिशंकु बनी जनम-मरण की पीड़ा के बीच फँसी
किसी शाप को जीती
धरती-अंबर के बीच लटकी
अनित्य अव्यक्त चराचर जगत को भोगती
प्रतीक्षा के अंतहीन राग को सुनती
सीख रही हूँ अखिल विश्व के चैतन्य गीत…’