कृति : जुर्रत ख़्वाब देखने की (काव्य–संग्रह)
कवि : रश्मि बजाज
अयन प्रकाशन, देहली, 2018 (पृ.सं.108)
1. “बन जाती है कविता/एक पेट्रोल बम/फैंका चाहता है जिसे आतंकी कवि/गली मोहल्ले और हर घर/भस्म हो जाएं ताकि सारी वर्जनाएं, धारणाएं, कुप्रथाएं धांय धांय कर/हो जाती है कलम/कंटकी एक दरांती/काटती/ज़हर भरी खेती/सभ्यता संस्कार/संस्कृति की/लिखने लगते/लहू की स्याही/आग के अक्षर/महा समाप्ति के/महावृतांत की/अंतिम पंक्ति!”
… … … … …
2. “तभी दहकती हवाओं में/घुलने लगती है ठंडक/जलती ज़मीन को/भिगोने लगती है फुहार/बंजर धरती पर/उभरने लगता है दूब घास/ठूंठ पेड़ों की/बेजान शाखों पर/उगने लगते हैं नए पल्लव/गूंजने लगती हैं/मंद सुगंधित स्वरलहरियां/फुलियाने लगते हैं अमलतास/बदलने लगता है/रंग अम्बर का/दूर कहीं गाने लगते हैं बंजारे/गीत कभी न खत्म होने वाले सफर का…”
रश्मि बजाज के सद्य: प्रकाशित पांचवें काव्यसंग्रह “जुर्रत ख्वाब देखने की” की लंबी कविता ‘निःशेष’ से उद्धृत ये प्रथम पंक्तियां एकबारगी अपने उग्र, आक्रोशपूर्ण भावोन्मीलन के कारण चेतना को गहरा झकझोर देती हैं तो इसी कविता की अग्रिम पंक्तियां कोमलतापूर्ण पुनर्निर्माण का स्निग्ध, सुंदर आख्यान रच जीवन एवं कविता के भविष्य के प्रति आश्वस्त एवं आशावान भी करती हैं। यही इस संग्रह का मूलचिंतन है- चहुंओर व्याप्त हिंसा, घृणा, नैराश्य, पीड़ा, अमानवीयता के बीच विचारोत्तेजक एवं भावोद्वेलक कविताओं द्वारा प्रेम, शांति, सौहार्द, संवेदना एवं मानवीयता के स्वर मुखरित करना।
कविता एवं कवि को बहुधा नकारा बताने वाले पोस्टमॉर्डन काव्य-संकलनों के बीच “जुर्रत ख्वाब देखने की” कवि एवं कविता की शक्ति को रेखांकित करता है। कवयित्री ने संग्रह “कवि के, कविता के साहस, संघर्ष, सौंदर्य “को समर्पित किया है : “शर-शैय्या पर पड़ा हमारा छलनी युग/चाहता है कविता हो छल से ज्यादा कुछ”- प्रारम्भतया यह स्पष्ट हो जाता है कि कवयित्री का यह ख़्वाब कोई स्वान्त सुखाय देखा गया ‘रोमांटिक ख़्वाब’ नहीं अपितु एक ऐसी क्रान्ति का ख़्वाब है जो नए शुभ जीवन-मूल्य वाली व्यष्टि एवं समष्टि का निर्माण करेगा। बेमानी वाद, अर्थहीन संवाद और बौने पैगंबरों के अंधकारमय काल-समय में कवि ही एक प्रकाश पुंज है :”अंधकार का पटल चीर तब/कवि तू ले विराट अवतार”। यह कवि ‘साधक ‘है ,’त्रिकालज्ञ’ एवं ‘अंतर्भेदी है’ जो चल, अचल, अपरा, परा की यात्रा करता है और उसमें सामर्थ्य है ‘नए ब्रह्मांड’ और ‘नव सृष्टि’ रचने का!वह खंडित अस्मिता वाला पंगु नहीं अपितु एक ‘समूचा समग्र जीवित स्पंदित मानव ‘है। उसकी रची अंधकार को दूर करने वाली नई कविता होगी ‘नीर-क्षीरी साक्ष्य पत्र’ और करेगी ‘निर्भय सिंहगर्जना अराजनीतिक सच्चाई की’। ‘निर्भीक’ पृष्ठों पर लिखे ये ‘दुस्साहसी आखर’ ही रचेंगे नया आख्यान, नया वृत्तांत! कवयित्री का अकाट्य विश्वास है:
“नहीं होतीं
कभी नि:शेष
संभावनाएं
कवि की, कविता की…
संग्रह की कविताओं के केंद्र में है मानवपीड़ा और मानवीयता। कवयित्री को तलाशनी और तराशनी हैं- ‘सब संभावनाएं इंसान के इंसान बना रहने की”, उसका जिहाद है- ‘आदम को इंसान करने का’। उसे रचने हैं :
“नया शास्त्र
और नया समीक्षक
नई सृष्टि
और नूतन मानव ”
किंतु इस ‘सहस्रमुखी’ क्रांतिकामी कवयित्री का मार्ग किसी हिंसक क्रांति के रक्तस्नान से नहीं गुज़रता:
“आग उगलना
और कर देना
स्वाह सभी संभावनाएं
मानवता की
और मानव की
यह सब मुझसे
कभी ना होगा”
उसके पास तो हैं सूफी दरवेशों की ‘अनलहक की अनवरत सदाएं’, बुद्ध की विरासत, ‘इबादत को मोहब्बत का इंसानी जज़्बा और मोहब्बत को इबादत की बुलंदियां देती’ अमृता प्रीतम, ‘बाहरी स्पेस’ को ‘भीतर के स्पेस’ से जोड़ ‘मानव के विराटत्व की चिर संभावना’ आलोकित करता अब्दुल कलाम और अंधकार को पराजित करता निर्भीक चिराग अंबेडकर!
कवयित्री समकालीन राजनीतिक, सामाजिक सांस्कृतिक एवं विशेषकर बौद्धिक परिदृश्य से अति खिन्न एवं क्षुब्ध है। ‘लिए लकुटिया हाथ ‘यह ‘कबीरन’ समस्त छ्द्म-मुखौटों को तहस-नहस कर देती है। मठाधीशों को चुनौती देती ये कविताएं निःसन्देह एक जुर्रत का काम हैं:
” कत्लगाह से कातिल निकल पड़े हैं
मेरे अपने लोग भी हाथ में पत्थर लिए हैं”
यह जुर्रत कवयित्री ने खूब दिखाई है वर्तमान ‘ग्लोरिफाइड’ खंडविखंडवादी एवं अस्मितावादी दृष्टिकोण के प्रतिपक्ष में ‘इनक्लूसिव’ मानववादी एवं मानवतावादी समग्र दृष्टिकोण प्रस्तुत कर व्यंग्य का हथियार एवं पैनी धार लिए यह कवयित्री छ्द्म-जनहितैषी राजनेताओं, बुद्धिजीवियों, एक्टिविस्ट्स, विचारकों, विमर्शकारों सबको दर्पण दिखाती है, तीक्ष्ण प्रहार करती है एवं आत्मचिंतन हेतु विवश करती है।
कविता ‘विडंबना’ उन सबों की घिनौनी मानसिकता पर कड़ा प्रहार है जिनके लिए मजदूर दिवस एवं इस वर्ग की दुर्दशा अपनी राजनीति या विचारधारा ‘प्रमोशन‘ का मात्र एक मंच है। कवयित्री की चिंता के केंद्र में है- चिलचिलाती धूप में पत्थर कूटता ‘करमा’, दमघोटू धुएं में धुखता ‘कल्लू’, आंखों, छातियों से पानी बहाती ‘संतरो’ की भूख से बिलबिलाती और मुरझाया, लहूलुहान अंगूठा चूसती बच्ची: “रहेगी तड़पती तरसती/मेरी प्यासी झुलसती धरती/पानी को दो बूंद बारिश हमदर्दी की”। यही आक्रोश ‘मुआफ़ मत करना’ में भी अभिव्यक्ति पाता है जहां धर्म, जाति और वर्ग के नाम पर राजनीति करने वाले जननायक हर कत्ल और खुदकुशी को अपने स्वार्थ का ‘खूनी अखाड़ा’ बना लेते हैं और खेलते हैं : “अपने अपने खेल, रौंदते अभागे मासूमों की अनगिनत लाशें अपने नापाक पैरों के नीचे’’। कवयित्री का हृदय तार-तार है: “ज़ख्मी हुई तो सिर्फ मोहब्बत/नॉकआउट हुई तो सिर्फ इंसानियत।” ‘शब्दास्त्र’ कविता विचारधारा के नाम पर की गई हिंसा को मानवता की विजय-पताका का जामा पहनाने के विरुद्ध मुखर विरोध दर्ज करती है।
अपने अलग कथ्य एवं तेवर के कारण संग्रह की दो कविताएं विशेष ध्यान आकर्षित करती हैं- ‘न कोई नबी न मसीहा’ एवं ‘चिट्ठी पंकज नारंग की ‘जो उस पीड़ा की हृदय-विदारक गाथा कहती हैं जिसे पीड़ित लोगों के वोट-बैंक न होने के कारण अनदेखा किया गया। कवयित्री की गहन चिंता यह है कि राजनेताओं के साथ-साथ भारतीय बुद्धिजीवी, लेखक, विचारक, एक्टिविस्ट भी इस ‘मौन के षड्यंत्र’ में सम्मिलित हो रहे हैं जो कि किसी भी समाज के लिए अत्यंत घातक है। ‘न कोई नबी न मसीहा’ काश्मीरी हिंदुओं की व्यथा-गाथा है : “अब तक है देश निकाला/घर है पर हूं बंजारा/मैं लाश हूँ चलती फिरती/है दर्द का एक समंदर/आंखों में खूनी मंज़र/है कौन यहाँ जो मेरा/न कोई नबी न मसीहा”। ‘चिट्ठी पंकज नारंग की’ दिल्ली के निर्दोष डॉ. पंकज की हत्या की अनदेखी किए जाने पर शासन, प्रशासन, मीडिया और समकालीन भारतीय न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाती है। ये दोनों कविताएं उस समकालीन संकीर्ण सोच एवं विमर्श पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाती हैं जहां पीड़ा या अन्याय को सिर्फ ‘फिक्सड’ अस्मिता-दायरों से ही जोड़ कर देखा जाता है- नए भारत को इन नये प्रश्नों से जूझना ही होगा :
“क्यों मेरी जिंदगी, मेरी मौत
नहीं रखते आपके लिए कोई अर्थ?
क्यों नहीं मैं कभी बनता
आपके संवेदनशील जुझारू विमर्श का कोई हिस्सा?
मैं पंकज नारंग
‘नया’ दलित
‘नया’ अल्पसंख्यक
‘नए’ भारत का!’’
ये दोनों कविताएं उक्त विषयों पर समकालीन हिंदी कविता में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराती हैं।
रश्मि बजाज की काव्यदृष्टि की एक महती विशेषता यह है कि वह जीर्ण-शीर्ण सांस्कृतिक, सामाजिक एवं साहित्यिक संरचनाओं, व्यवस्थाओं पर मात्र बेबाक, निर्भीक प्रश्न ही नहीं उठाती अपितु एक आश्वस्तिपूर्ण, सशक्त विकल्प का सृजन भी करती है। संग्रह का स्त्री-विषयक खंड “मैं हूं स्त्री” इस दृष्टिकोण से विशेष रूप से द्रष्टव्य है। कविताएं अजन्मी, भ्रूण-संहारित बेटियों के रक्त से रंगोली रचने वाली ‘निर्लज्ज’ भारतीय संस्कृति की भरपूर भर्त्सना करती हैं; मनुस्मृति-समर्थकों एवं मनुस्मृति-दाहकों दोनों के हाथों ‘रसोई घर से शयनकक्ष’ तक स्त्री के होने वाले शोषण के विरुद्ध ज़ोरदार विद्रोह करती हैं; स्त्री के अभिशप्त ‘शाश्वतदलिता’ अस्तित्व के प्रति तीव्र आक्रोश प्रकट करती हैं; धर्म तथा जाति को प्रमुख एवं स्त्री मुद्दों को गौण कर उनकी उपेक्षा करने वाले समकालीन नेताओं, बुद्धिजीवियों, एक्टिविस्ट को जबरदस्त ढंग से लताड़ती हैं एवं फिर संग्रह की अंतिम कविता के रूप में पाठकों के समक्ष आती है कवयित्री की कविता ‘पुत्री जनक की’ जो परंपरावादी भारतीय पारिवारिक संबंधों एवं प्रथाओं के ढांचे को चुनौती देती हुई एक नया विधान रचती है। यहां समकालीन सीता पत्नी, भाभी, बहू के संबंध-जाल एवं अग्निपरीक्षा से ही आगे नहीं निकल जाती अपितु अपने धरती में समाने वाले अंत का भी पुनर्लेखन करती है। हिंदी काव्य साहित्य में पहली बार सीता अपनी पुत्री-दायित्व के निर्वाह के प्रश्न से रूबरू होती है। अष्टावक्र, ब्रह्मज्ञान, यम-जनक प्रसंग से गुजरती हुई यह कविता एक ‘अपराधिनी’, ‘पश्चातापिनी’ पुत्री के अपराध-बोध एवं उसके मनोविज्ञान की अत्यंत मार्मिक अभिव्यक्ति करती है:
“बहुत है लज्जित/आज यह बेटी/अपने आप पर/जो पति घर जा/सब कुछ भूली/अपने सुख दुख में ही झूली/पल भर को भी सुध ना लीनी/अपनी मां ,अपने बाबा की/अपनी जनकपुरी, मिथिला की”
एक नए युग एवं नई परिवार-व्यवस्था का सूत्रपात करती इस पुत्री की घोषणा के साथ कविता अपनी परिणति पाती है:
“अब इस भू पर आऊंगी मैं
बनकर इक अवलंबन शक्ति
अपनी मां अपने बाबा की
और मैं हूंगी
लोकपोषिणी जन कल्याणी
चिरप्रतीक्षारत अपनी उस
प्यारी मिथिला की”
यथास्थितिभंजक, पुनर्नवात्मक एवं नए मिथकों की साहसपूर्ण, कुशल रचना करती यही दृष्टि रश्मि बजाज को समकालीन हिंदी कविता में एक विशिष्ट उपस्थिति बनाती है।
भाषा-शैलीगत मूल्यांकन की दृष्टि से विचाराधीन संग्रह परंपरावादी हिंदी समीक्षक के लिए एक चुनौती खड़ी करता है। कवयित्री का ‘ईडीयम वेरिएशन’ आश्चर्यचकित करता है। कहीं आग की तरह धधकती हिंसक शब्दावली है तो कहीं शीतलता एवं ठंडक प्रदान करता स्निग्ध, शीतल शब्द-चयन एवं विन्यास। रचनाएं आह्वानधर्मा, संवादात्मक भी हैं तो वर्णनात्मक एवं दार्शनिक तत्व लिए भी। ओज, माधुर्य, प्रसाद गुण अपना यथोचित उन्मीलन पाते हैं। संग्रह में लघु, मध्यम, लंबी सब प्रकार की कविताएं हैं तथा तत्सम, तद्भव, उर्दू, आंचलिक, अंग्रेजी आधुनिक, पुरातन सभी शब्दों का सहज, नैसर्गिक प्रयोग है। वर्णनात्मक कविताओं के साथ साथ एक-शब्दीय पंक्तियों वाली मितभाषी कविताएं यथा ‘घोषणापत्र’ भी संग्रह को अर्थवत्ता प्रदान करती हैं। कुछ कविताओं में नाटक-तत्व की प्रचुरता है तथा उन्हें प्रभावशाली मंचीय प्रस्तुति में ढाला जा सकता है। कवयित्री के हाथों में भाषा रबड़ की तरह प्रतीत होती है जिसे वह मनचाहे ढंग से तोड़-मोड़ सकती है। जहां कवयित्री पाठक की चेतना को सीधे-सीधे झकझोरना चाहती है वहां सपाटबयानी वाली ‘लाउड’ कविताएं भी लिखी गयी हैं। कवयित्री की प्रयोगधर्मिता भी दृष्टिगोचर हुई है, संग्रह में कई नए शब्दों एवं पदों का सृजन हुआ है जिसने सटीकता और संप्रेषण में वृद्धि की है। मुक्त छंद में रचित इन कविताओं में लय, गति एवं कहीं कहीं आंतरिक तुकबंदी भी है जो इन्हें गेयता भी प्रदान करती है। संग्रह की कुछ कविताएं यथा ‘अमृता रहेगी ज़िंदा’ काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से हिंदी कविता की बहुमूल्य धरोहर बन गई हैं। सूक्तिपूर्ण, सारगर्भा शैली में रचित कुछ लघु कविताएं कविता में महाकाव्य के सिमटने का एहसास भी दिलाती हैं।
कवयित्री के पूर्वप्रकाशित चार संग्रहों में शोषण, अन्याय, छद्म तथा वैषम्य के प्रति व्यक्त पीड़ा एवं आक्रोश इस पांचवे संग्रह में और अधिक तीव्र एवं सघन अभिव्यक्ति पाते हैं। “जुर्रत ख़्वाब देखने की” हमारे आंतरिक एवं बाह्य परिवेश में उत्तरोत्तर बढ़ रही हिंसा, घृणा एवं नकारात्मकता के प्रति उसकी कविचेतना का प्रतिरोधात्मक काव्यस्फोट है। इस कवयित्री की सृष्टि एवं दृष्टि की श्रेयस्कर उपलब्धि यह है कि उसकी सकारात्मकता एवं आस्था निरंतर बने रहते हैं।यह काव्यसंग्रह पाठक को ले चलता है उद्विग्नता, आक्रोश से आशा की ओर, न केवल कवि और कविता के साहस की, उसके रौशन ख़्वाबों की अपितु उसके विश्वास की भी कि इंसान और इंसानियत रहेंगे कायम हमेशा ही।
अंततः संकलन “जुर्रत ख्वाब देखने की” 2018 में प्रकाशित हिंदी काव्य-कृतियों में ही अपना विशेष स्थान नहीं बनाता अपितु हिंदी कविता में भी अपनी एक अलग उपस्थिति दर्ज कराता है। भारतीय साहित्यिक परिदृश्य में ‘पोस्ट-पोस्ट मॉडर्न’ युग के आमद की आहट सुनाता यह संग्रह विमर्श एवं शोध की दृष्टि से भी ग़ौरतलब है, हिंदी कविता को समृद्धतर करने वाले इस पठनीय संग्रह का स्वागत अवश्य होना चाहिए।