संवेदनशीलता किसी भी समाज की पूँजी होती है, जिसके नींव पर सभ्यता खड़ी होती है। अपने आसपास के जरूरतमंद व कमजोर लोगों के प्रति संवेदनशीलता ही हमें मानव बनाती है। भारतीय समाज में वर्गगत विभाजन के कारण हासिएँ पर आए तबके जब अपने अधिकारों और हकों को लेकर अपना स्वर मुखर कर रहे हैं, तब हमें इसी समाज के एक बेहद संवेदनशील तबके विकलांगों को नजरदांज नहीं करना चाहिए। विकलांगों के लिए प्राचीन काल से तिरस्कार, उपहास और सहानुभूतिपरक भाषा ही अपनाया जाता रहा है। उन्हें सामान्य मानकर उनके अंदर की शक्ति को पहचानने की कोशिश हमारी दृष्टि ने नहीं की। यही कारण हैं कि यह वर्ग सर्वाधिक उपेक्षित और एकाकीपन में जीवन जीने को अभिशप्त रहा।
विकलांगों को कहीं पूर्वजन्म के पापों का अधिकारी माना गया तो कहीं अपशगुन, अपूर्ण या बेकार वस्तु। मनुष्य को ही उपयोगिता के आधार पर बेकार और स्वीकार घोषित करना कहीं से भी मनुष्यता का लक्षण नहीं है। अगर कोई समाज ऐसा करता है तो वह स्वयं मानसिक विकलांगता से ग्रस्त है। हेनरी एव. केसलर ने लिखा है- ‘‘भारत में विकलांग बच्चों को गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता था।’’
सिर्फ भारत ही नहीं पश्चिम के देशों में भी विकलांगों की स्थिति कमोवेश यही रही। विनोद कुमार मिश्र लिखते है- ‘‘स्पार्टा और एथेंस में दृष्टिहीनों की हत्या के लिए रास्ते में गड्ढ़ा खोद दिया जाता था ताकि विकलांग उसमें गिरकर मर जाए।‘’ यह बात पूरी तरह से भले ही स्वीकार न की जा सके, परन्तु पूर्णतः नकारा भी नहीं जा सकता। विकलांगों के प्रति असंवेदनशीलता व उपेक्षा का ही परिणाम था जो ‘द रिपब्लिक’ में प्लेटों ने लिखा- ‘‘जो व्यक्ति सामान्य क्रिया-कलाप भी नहीं कर पाता, वह स्वयं के लिए तो बेकार है ही, राज्य के लिए भी अनुपयोगी है।’’
उपयोगितावाद का इससे घिनौना स्वर नहीं मिल सकता। यद्यपि यह उस दौर की अवधारणा है जब राज्य के विजय और स्थापना के लिए योग्य व शक्तिशाली नागरिकों की जरूरत थी परन्तु फिर भी उपेक्षा का यह भाव अमानवीयता की हद से पैदा होता है। तिरस्कार की इस भावना का ही परिणाम था कि प्लेटों ने कहा- ‘‘विकलांग बच्चों व उनके माता-पिता को किसी दूर-दराज के गुप्त या रहस्यमय स्थान पर रखा जाना चाहिए।’’
प्राकृतिक अशक्तता के प्रति इस दुराग्रह का ही परिणाम है कि विकलांग आज तक समाज में समायोजन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यहाँ तक कि भारत के संविधान में ‘विकलांग’ शब्द का एक बार भी प्रयोग नहीं मिलता। विकलांग समुदाय सर्वाधिक पीड़ित समुदाय है जिसकी न ही कोई जाति होती है, न ही धर्म होता है। सभी जाति, धर्म, संप्रदाय के विकलांगों की पीड़ा एक ही होती है। उन्हें मनुष्य रूप में देखा जाए। उनकी अपूर्णता को देखने के बजाए उनके सर्जना को उभार कर, उसकी प्रशंसा करके ही हम उनमें उस शक्ति का संचार कर सकते हैं जो सदियों से लानत का जीवन जीने के कारण कहीं खो-सा गया है। इस शक्ति और सर्जना के पड़ताल का ही उपज है मृदुला सिन्हा जी का यह उपन्यास- ज्यों मेंहदी को रंग।
अनादि काल से पीड़ा और उपेक्षा के साथ अपूर्ण होकर जीवन जीने वाले विकलांग समुदाय की प्रखर अभिव्यक्ति केन्द्रीय रूप से किसी उपन्यास में पहली बार आयी। उत्पादन के साधनों में जो जितना उपयोगी है वह उतना ही सभ्य, सम्पन्न और अधिक ‘मानव’है- ‘मानववाद’ की की इस नकारात्मकता को खारिज करता है यह उपन्यास। ‘मानवीयता’ को ही जब सर्जना और आत्मसंतोष का साधन बनाया जाएगा तभी पृथ्वी सुंदर ग्रह बन पाएगा। यांत्रिक हेती दुनिया और संबंधों के बदलते दौर में यह रचना वैसी ही है जैसे संविधान के अनुच्छेदों में हम कुछ भूल गए थे, उसे फिर से जोड़ा गया हो। हाँ, इसमें बुद्धि के साथ हृदय भी है, यही कारण है कि यह अनुच्छेद न होकर उपन्यास हो गया, विधि न होकर विधा हो गया है।
उपन्यास शालिनी नामक एक नव विवाहिता नायिका पर केन्द्रित है। शालिनी यौवन से भरपूर, नफासत में चटक और चाल में गर्भजोशी धारण करने वाली युवती है। वह पति और सास के आँख की पुतली है, उसकी सास उसके पायलों में संगीत के आरोह-अवरोह को महसूस करती है। जिन्दगी के खूबसूरत पहिए को किसी की नजर लग जाती है और शालिनी नौकाविहार के दौरान पैर कटने से विकलांग हो जाती है। व्यक्ति का शारीरिक रूप से विकलांग होना उतना पीड़ादायक नहीं है जितना कि मानसिक उपेक्षा व चोटों से आयी विकलांगता पीड़ा देती है। शालिनी का यह कथन उसके मानसिक मजबूती को उद्घाटित करता है जब वह अपने पति राजेश से कहती है- ‘‘क्या हुआ जो हमारे दो पैर कटे, दो तो हैं।‘’ परन्तु तुरन्त ही उसकी कल्पना, उसकी मजबूती सब असंवेदनशीलता की भेंट चढ़ जाता है जब प्राणों की तरह प्रेम करने वाली सास कहती है- ‘‘बहू मेरे बेटे का क्या होगा? पूरी जिंदगी पड़ी है उसकी।‘’ यह कहना ही शालिनी को इस उपेक्षा, अपंगता और अपूर्णता का एहसास कराता है जहाँ से व्यक्ति मानसिक तौर पर स्वयं की निशक्तता को स्वीकार कर लेता है, अक्षमता के स्वीकार से उपजी भावना ही मनुष्य के सृजनात्मकता की हत्या कर देता है। लेखिका लिखती है- ‘‘स्टीमर से उतरते वक्त शालिनी के दोनों पैर कट जाने से उसकी इच्छाएँ-आकांक्षाएँ तो खत्म नहीं हुई थीं। पूरा शरीर तो पड़ा ही था। उड़ान भरता मन, उड़ान की योजना बनाता मस्तिष्क तो सजग था, सचेत था। उसकी सजगता और चेतनता तो मानों बढ़ ही गई थी, फिर राजेश उससे क्यूँ कटता-फिरता था?’’
क्या संबंध सिर्फ शारीरिक सौंदर्य से होता है। क्या रिश्तों में हृदय का लगाव इतना कमजोर हो गया है कि हम एक दुर्घटना मात्र से अपनों की उपेक्षा करने लगेंगे। शालिनी के घायलावस्था में ही लोग राजेश की दूसरी शादी की योजना बनाने लगते हैं। पैरों को हार कर भी हार न मानने वाली शालिनी अपनों की इस योजना से काँप जाती है- ‘‘राजेश की माँ बेटे को समझाओ! अभी वह नासमझ है। दुनियादारी समझता नहीं। पूरी जिंदगी पड़ी है उसकी। गाँव की किसी गरीब लड़की से शादी कर दो उसकी। जो उसे भी सँभालेगी और खटिया पर पड़े अपाहिज सौत को भी।‘’ जिस समय शालिनी को अपनों की सर्वाधिक जरूरत थी उसी समय उसे यह सब सुनना असहनीय लगा। वह स्वयं अपने पति का स्नेह पाने को बेताब होने लगी परन्तु पति का उसके और उसके शरीर के प्रति जो उपेक्षा था उसी का परिणाम यह प्रस्ताव था जो स्वयं शालिनी राजेश के सामने रखती है- ‘‘तुम दूसरी शादी कर लो न?’’ चारों तरफ लोग राजेश के भाग्य का रोना रो रहे थे, किसी ने यह नहीं कहा कि हम सब शालू के साथ है। हमारी शालू अब भी हमारी प्यारी रहेगी। एकाएक स्नेह का तिरस्कार में परिवर्तन असहनीय होता है। शालू अब ईलाज के लिए विकलांगों के एक अस्पताल जाती है। अपने रंग रूप में वह विकलांगों के आश्रम जैसा है। वहाँ पर सभी विकलांग ही है, विकलांग ही दरबान हैं, रसोइए हैं और वही कर्मचारी हैं।
इस आश्रम को चलाने वाले हैं डॉ. अविनाश जो दद्दा नाम से जाने जाते हैं। उनके शारीरिक फूर्ति और लगन के कारण कोई नहीं जान पाता कि उनके पैर नहीं है। इस रहस्य को अपने अंदर छिपाए वह सैकड़ों लोगों को जीवन दान दे रहे थे। वह जब अपने धन पिपाशु पत्नी से मिलते है तो यह भेद खुलता है- ‘‘मेरे दोनों पैर कट गए, और लंदन जैसी जगह में तुम मेरे बच्चे को लेकर चली गई, मुझे हास्पिटल में छोड़… क्या अपंग होना अभिशाप है? क्या अपंग अपने लोगों से वैसे ही कट जाते है, जैसे मैं कट गया था… तुमसे, अपने इकलौते बेटे से।’इस प्रकार विकलांगों के प्रति नजदीकी रिश्तों में जो उपेक्षा का भाव भरा है उसी से यह भाषा जन्म लेती है- ‘‘क्या किसी को पता है कि तुम… तुम भी इस लोहे-लक्कड़ के पाँव पर चलते हो।‘’ शालू के शुरूआत में उसकी दादी कहती है हमें आशंका थी कि तुम चल नहीं पाओगी तो तुम्हारी माँ कहती- ‘‘एक तो बेटी, वह भी लोथ-लांगड़, क्या जरूरत थी भगवान को मेरी कोख भरने की? इससे अच्छा तो भगवान इसे ले ही जाए।‘’ विकलांग सर्वाधिक उपेक्षा परिवार में ही झेलते हैं। परिवार में मिलने वाली उपेक्षा का ही परिणाम है कि वे अन्दर ही अन्दर प्रतिपल मर रहे होते हैं। लेखिका एक विकलांग पात्र युनूस मियाँ के लिए लिखती हैं- ‘‘जब से पाँव कटे लोग उन्हें लंगड़ा ही कहकर पुकारते थे। यहाँ तक कि उनकी पत्नी ने भी कई बार गुस्से में आकर लंगड़ा कहा था। पत्नी ने कह ही दिया, तो चार वर्षीय पुत्र क्यूँ पीछे रहता!’’ इस प्रकार अपूर्णता को गाली बना लेना, हमेशा दर्द को कुरेदने वाला तरीका अपनाते हुए हादसे का जिक्र करना, उनकी विकलांगता को अपने मनोरंजन, सहानुभूति और मानवीयता के प्रदर्शन का कारण बनाना, विकलांगों में और अधिक उपेक्षा और पीड़ा की भावना को तीव्र करता है। शालिनी का यह कथन इसी पीड़ा की उपज है- ‘’कैसे नहीं जानना चाहेंगे? इस प्रसंग से बढ़कर प्रभुत्वशाली, जीवंत और मुखर मेरे जीवन की कोई कहानी नहीं है।‘’ यह पीड़ा लगातार विकलांगता के भाव को उभारने से उपजा है। हम उनके प्रति सहानुभूति में उनकी अपूर्णता, अक्षमता और निशक्तता की ही बात करते हैं जबकि हमें उनमें शक्ति और सर्जनात्मकता खोजना चाहिए। यदि हम इतने अमानवीय, असंवेदनशील हैं तो हमें स्वयं मूल्यांकन करना चाहिए कि क्या हम पूर्ण मानव है? यदि नहीं है तो शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों से अधिक सहानुभूति की आवश्यकता ऐसे समाज को है। दद्दा का यह कथन समाज से प्राप्त इन्हीं अनुभवों को मुखर करता है- ‘‘सारी दुनिया अपाहिज है शर्मा, … सारी दुनिया! बड़ी द्रुत गति से भागता चलता, हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति भी अपंग है शर्मा। उसकी भावनाएँ तो अपंग है न, कुंठित है। और शारीरिक अपंगता से नैतिक अथवा भावों की अपंगता ज्यादा खतरनाक है शर्मा! शारीरिक विकलांगों को यह दुनिया सही ढंग से देखती रही। शारीरिक अपंग व्यक्ति अपने लिए बेकार होता है। लेकिन ये भावनात्मक अपंग लोग तो दूसरों को बेकार बनाते है, सारे समाज को पंगु बना बैठते हैं। सारा समाज पंगु है। तभी तो…।’’ यह कथन समाज के उसी स्वरूप को स्पष्ट करता है जिसमें हम देखते हैं मानसिक रूप से विक्षिप्त महिला का बलात्कार होता है, विकलांग बच्चे को मनोरंजन का पात्र समझा जाता है, उन्हें हम डराकर, मारकर अपनी कुंठा निकालते हैं। तुलसीराम अपने आत्मकथा ‘मुर्दहिया’में लिखते हैं कि उन्हें कम दिखने के कारण परिवार के लोग उपहासित कर मनोरंजन करते थे। राजेश जोशी की कविता इसी स्थिति को दर्शाती है-
एक सिनेमाघर के सामने छूटी हुई जगह में
एक नये मॉडल की चमचमाती कार
एक विकलांग बच्चे को डरा रही है
× × ×
ड्राइवर मुस्करा रहा है
और आसपास खड़े तमाशबीन अंदर ही अंदर डर रहे है
तरस खा रहे है
पर हँस रहे हैं।
यह तरस खाना, हँसना इसका प्रतीक है कि हम उन्हें अपनी तरह का प्राणी नहीं मानते, उन्हें ‘कार्टून’ समझते हैं या फिर सहानुभूति से देखते हैं। यह सहानुभूति उपेक्षा से कम पीड़ादायी नहीं होता। भगवंत अनमोल ‘जिन्दगी 50-50’ में लिखते हैं- ‘‘अक्सर हम विकलांगों या फिर ऐसे लोगों को अलग से सहानुभूति देते हैं और सहायता करते हैं हमें कभी उनको यह दिखाकर मदद नहीं करनी चाहिए कि वे विकलांग हैं। इससे उनकी विकलांगता मन में अधिक बढ़ जाती है। वे खुद को आपसे कमजोर समझने लगते हैं। वैसे भी शारीरिक विकलांगता से अधिक मन की विकलांगता घातक होती है।‘’ इसी मानसिक विकलांगता की उपज है ऐसे लोग जो शालिनी को नौकरी देने के लिए उसके शरीर का सौदा करने लगते है- ‘‘इस कॉलेज के लिए डोनेशन देने की जरूरत नहीं पड़ती। कॉलेज का सेक्रेटरी बड़ा ऐय्याश है। तभी तो लड़कियों का कॉलेज खोला है। आप एक दिन उस लड़की को ही…।‘’
सभ्य कहे जाने वाले समाज में मदद के नाम पर कैसा दिखावा है वह देखकर मानवता भी राने लगेगी- ‘‘एक सज्जन की इच्छा थी कि वे संस्था में बने पाँवों का पूरा-का-पूरा खर्चा आजीवन देते रहेंगे। यदि उन पाँवों पर उनका और उनकी कंपनी का नाम खुदा रहे।‘’ इस प्रकार समर्थ, सभ्य और संवेदनशीलता की खोल ओढे़ समाज में ऐसे अनाचारी, दुराचारी, पाप आत्माएँ बसी है कि उनके रहते समाज का भला होना मुश्किल है। जरूरी है ऐसे तत्वों को उद्घाटित किया जाए। सरकार के साथ ही संवेदनशील सामाजिक लोगों को विकलांगों के हितार्थ कार्य करने होंगे। सहानुभूति और करुणा के साथ नहीं, बल्कि मनुष्य का मनुष्य के प्रति जो कर्तव्य है उसके निर्वाह हेतु।
दिखावे और उपेक्षा के कारण लगातार पीड़ा का अनुभव कर रहा विकलांग समूह यदि स्वयं की अपूर्णता के कारण हीनता की ग्रंथि में जकड़े तो यह समर्थ समाज की दिशा में बढ़ रहे पीढ़ियों के लिए चुनौती है। हमें इस चुनौती को स्वीकार करना होगा विकलांगता एक घटना है, घटनाएँ जीवन की दिशा बदल सकती है परन्तु जीवन नहीं छीन सकती। हमें समाज के निशक्त जनों के अंदर की सर्जनात्मक क्षमता को पहचान कर उन्हें अवसर उपलब्ध कराना होगा। इन्हीं अवसरों की समानता, विकलांगों की क्षमता, उनकी सर्जनात्मक शक्ति और मनुष्य के रूप में उनके महत्व को रेखांकित करने का प्रयास किया है मृदुला जी ने। तभी तो द्द्दा के बहाने उनका यह उद्गार है- ‘‘मैं तो अपंगों का एक गाँव ही बसाना चाह रहा हूँ। मेरी कल्पना तो पुरानी है। लेकिन अब साकार होने के आसार नजर आने लगे है। हमारे पास पैसे देने वाले भी बहुत आने लगे हैं। अधिकांश तो गुप्तदान देने को तैयार है। उस आदर्श गाँव में इन्हें बसाकर मैं दिखाना चाहता हूँ कि ये कितने दृढ़ संकल्पी, मनोयोगी और उद्यमशील होते है, समाज में इनकी भी कितनी उपयोगिता है।’’