“हम नौ साल में बिहा गये थे बेटा. तुम्हारे दादाजी का तब सतरहवाँ साल शुरू हुआ था. हमारी छटपटाहट, हमारा डर, हमारा हदस और हमारा बचपन किसी को नहीं दिखता था. सबको जल्दी थी. जल्दी से हमको घरनी बना देने की.
शुरू में बहुत घबराए, बहुत भागे. पर कहाँ तक. आँगन से छत तक, कमरा से बाथरूम तक. बस. तीन–साढ़े तीन महीना में पक्का घरनी बन ही गए.
लेकिन अपने कमरा में जाने को जो डर था, उसमें घरनी न बन पाए.
बबलू के बाबूजी का भी दोस नहीं था. नए नए जवान हो रहे थे. इतनी गोरी मेहरारू मिल गई. अब नहीं रख पाये काबू.
याद है हमको. ठीक छै महीने बाद सास ने हमको घर भेजा था. साथ में बबलू के बाबूजी और नौकर भी था. इक्का ‘बाउनी’ नदी पार करता और हमारा घर आता, इससे पहले ही रोने लगे हम. खुसी (खुशी) का आँसू था लेकिन लोग बाग थोड़े ही समझते. बबलू के बाबूजी तो वापस जाने को तैयार. ऐसी कलपती हुई बहू को ले जाएँगे तो सब कहेंगे कि बहू खुस नहीं अपने ससुराल में. फिर नौकर के बहुत समझाने-बुझाने और मेरे एकदम दम साधकर चुप हो जाने पर इक्का आगे बढ़ा.
गाँव पहुँचे तो लगा जेल से छूट आए. अब तो हँसी आती है. वही जेल अब हमको सबसे ज़्यादा मुक्ति देता है.
नहीं आने के लिए माँ से लड़ाई किए, रूठे, रोए, काँपे, परारथना तक कर डाले थे कि इक्का का घोड़ा मर जाए.
बहुत बुरी लगी थी तब माँ. बाउजी भी. सभी लोग.
बस वही देखे हुए हैं माँ-बाउजी को. फिर सबके मरने का खबर ही सुनते रहे. एक बार और मौका मिला था जाने का. दो साल बाद. भइया के सादी (शादी) में. लेकिन जाने की खुसी से ज्यादा डर वापस आने का लगा. फिर से उनको छोड़के आना पड़ेगा. फिर माँ नहीं मानेगी. फिर हमको सब बुरे लगेंगे. फिर गुस्सा आएगा, रोना आएगा, दुख होगा, घबराहट होगा, आने का पछतावा होगा. हमने सास को बोल दिया—हम नहीं जाएँगे.
घिरनी नाम था हमारा. गाँव भर में चकरघिन्नी की तरह घूमा करते थे इसलिए माँ हमें घिरनी बुलाती थी. बाद में तो चलके इसका बहुत मतलब हो गया.
हम अपने कमरा में नहीं जाते थे बेटा. सच कहते हैं. रात में सास सोने के लिए भेज देती थी. दूध का गिलास स्टूल पर रखके हम कमरा के पिछले दरवाजे से भाग जाते थे. फिर हमारे पीछे छपरन माई को लगाया गया. दरवाजे के बाहर पहरा पर बैठने लगी वो.
तब हम फिर पलंग के नीचे छिपने लगे. पलंग के नीचे छिप जाते थे और वहीं सो जाते थे.
बबलू के बाबूजी गुस्सा भी होते थे.
फिर छपरन माई हमको बगल में बिठाके कहानी सुनाने लगी. और हमारे सो जाने पर हमें कमरा में पलंग पर रख आती थी. हमसे झूठ बोलती रही कि रात में किसन जी (भगवान कृष्ण) हमको उठाके पलंग पर सुला आते हैं.
कहना नहीं चाहिए पर जब बबलू के बाबूजी पढ़ाई पूरी करने बनारस गए, हम छपरन माई के गले लगकर रात में खूब रोए और छपरन माई को बोले कि अब हमको कहानी नहीं सुनना है. हम खुद सो जाया करेंगे. ऐसा लग रहा था कि कमरा में कोई खतरनाक राकस (राक्षस) रहा करता था जो चला गया है. कमरा तब पहली बार ठीक से देखे हम.
बबलू के बाबूजी छुट्टी में आते रहे. छपरन माई भी एक दिन बूढ़ी होके मर गई. कौन कहानी सुनाता. फिर पता ही नहीं चला कि किस उमर में हम बबलू की माँ बने, किस उमर में मोनू के, कब अवधेस के और कब सबीता के.
सब कहते थे बबलू के बाबूजी हमको बहुत प्यार करते थे इसलिए चार बच्चे दिए हमको. फिर ये भी कहते हैं कि हम उनको अपने नाम जइसा घिरनी की तरह नचाए इसलिए हमको छोड़ के चले गए. पता नहीं क्या सच है बेटा, हम खुद ही नहीं जानते.
उस दूसरी औरत के बारे में सुनके कलेजा फटता था मेरा, बहुत गुस्सा आता था, बहुत दुख, एकदम वैसा ही जब माँ इक्के पे हमको वापस यहाँ भिजवा दी थी. लेकिन जब बाबूजी वापस घर आएँ तो फिर वही हदस. मुँह सूख जाए. छपरन माई की याद आने लगती थी. लगता था कि बस किसी तरह वापस चले जाएँ और कमरा फिर से पूरा हमारा हो जाए.
ये कैसा घिरनी था, समझ नहीं आता था हमको. आज भी नहीं आता.
सास खटिया पर बैठी-बैठी कहती थी कि चार बच्चे हैं इसके. पति है. सुख से इसी खटिया पर बैठकर ठाठ वाला बुढ़ापा काटेगी. खूब हँसकर कहती थी, ‘घिरनी को आखिर घरनी बना ही दिये हम. घिरनी नहीं रही अब ये.’ और अपनी पीठ खुद हे थपथपाती थी. मानती बहुत थी वो हमको. समय से पहले ही चली गई.
अच्छा हुआ चली गई, नहीं तो देखती कि उसकी घरनी सुधरी नहीं. घिरनी की घिरनी ही बनी रह गई. कभी एक बेटा के घर, कभी दूसरे के घर तो कभी तिसरे (तीसरे बेटे) के. बेटी के यहाँ दमाद को माँ-बाबूजी हैं नहीं तो साल में एक बार वहाँ भी रह आना पड़ता है तीन–चार दिनों के लिए.
सबके यहाँ घिरनी जैसे चक्कर काटते रहते हैं, बस उसकी घिरनी ही नहीं बन पाए जिसकी घरनी थे. बनारस नहीं गए. कभी जाएँगे भी नहीं. पता नहीं गुस्सा से, दुख से, डर से या घबराहट से. कलेजा फटता भी है, कलेजा हदसता भी है.”
PS: घिरनी दादी आज भी बनारस नहीं गई. न ही अब उसके बबलू के बाबूजी आते हैं उसके आँगन. उसके कमरे का राक्षस चला गया. सास की खटिया को सम्हालकर एक कोने में रख दिया है उसने. पाँव में घिरनी डाले, सिर पर घरनी का आँचल लिए पता नहीं वो कभी इस खटिया को देख भी पाती है या नहीं जिसपर सुख से बैठकर ठाठ चलाते हुए बुढ़ापा काटने का सपना उसकी सास ने उसके लिए देखा था. हाँ, पिछले साल श्रावणी पूजा में जब वो अपने घर पर थी तो शाम के समय गोधूली बेला में उस खटिया के पायदान पर बैठे सुस्ताते देखा था मैंने उसे.