पूस की हाड़-कंपा देने वाली ठंड से सड़कें सांय-सांय कर रही थीं। आदमी तो क्या जानवर भी दुबक कर बैठे हुए थे पर ललिया उस ठंड में भी सब्जी की दुकान लगाए बैठी थी। उसका मर्द विलायत पैसा कमाने जो गया तो आज तक वापस नहीं आया। विलायत के नाम से उसका मुँह न जाने क्यों कड़वा हो जाता था। इस मौसम में सब्जी की बहार थी पर ललिया की दुकान में वही आलू और प्याज… दो दिन से बड़ा तेज कोहरा पड़ रहा था, हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था। चौराहे पर सब्जी की एक बड़ी सी दुकान थी, सुना था उसकी दुकान पर देशी सब्जियों के अलावा विलायती सब्जियाँ भी मिलती थीं। दूर-दूर से लोग उसके यहाँ सब्जी खरीदने आते थे। एक पैसा नहीं छोड़ता था और न ही अलग से धनिया या मिर्चा देता पर भीड़ ऐसी कि पूछो मत… जैसे मुफ्त में बाँट रहा हो। बड़ी-बड़ी कारों से लोग उतरते झोला फेंकते और सब्जियाँ खरीद कर चले जाते। उस दुकान की कुछ दूरी पर ललिया भी अपनी सब्जियों की दुकान लगाती थी, सब्जी के नाम पर उसकी दुकान में सिर्फ आलू और प्याज ही होता था। कभी-कभी वह उस बड़ी सी दुकान में झाँक लेती। ऐसी सुन्दर-सुन्दर सब्जियाँ की पूछो मत… कुछ सब्जियों के तो वो नाम भी नहीं जानती थी। पिंकिया उस दिन कितना हँसी थी।
“अम्मा! जानती हो हरी वाली गोभी को ब्रोकली और तुम जो लोबिया बनाती हो न… उसको बिन्स कह रहा था। वो गाँव- खेतों में पानी के किनारे जो कुकुरमुत्ता उगता है, वो उसे पन्नी में बाँध-बाँध बेचता है। बड़ा अजीब सा नाम था मश-मशरूम। सब्जियाँ तो ऐसे सजाकर रखता है जैसे कपड़े की दुकान में कपड़े… लोग कहते है पूरे शहर में जो सब्जी कहीं न मिले वो यहाँ जरूर मिल जाती है। सब्जियाँ ऐसे-ऐसे चुन-चुन कर सजाता है कि बस लगता है अभी-अभी नहा-धोकर आईं हो।”
पिंकिया अपनी अम्मा से कहकर खिलखिलाकर हँस पड़ी, “अम्मा! एक बात बताओ, ये सब्जियाँ खाने में कैसी लगती होगी?”
“अच्छी ही लगती होगी… तभी तो बड़े लोग खरीदते हैं।”
“अम्मा मसाले क्या पड़ते होंगे?”
“मसाले! जब सब्जी विलायती है तो मसाले भी विलायती ही पड़ते होंगे।”
“ठीक कह रही हो अम्मा… ऐसा ही होगा।”
उस दिन से ललिया के दिमाग में विलायती सब्जियाँ चढ़ी हुई थी, मन तो उसका भी करता था कि एक बार वो भी उन विलायती सब्जियों का स्वाद चखे पर… परसों की ही तो बात है। रात घनी होती जा रही थी, सब अपने-अपने घरों में ठंड से दुबके हुए था पर पिंकिया उसकी तो बातें खत्म होने को नहीं आ रही थीं। तब ललिया ने ही नाराज़ होते हुए कहा, “अब चल ज्यादा बातें न कर देख तेरे लिए आलू की सब्जी बनाई, देख कितना सुंदर रंग आया है। तेरी विलायती सब्जियॉं भी पानी भरे इनके सामने…”
“क्या अम्मा फिर से वही आलू…कुछ नया काहे नहीं बनाती।”
पिंकिया मुँह फुलाकर बैठ गई थी, ललिया भी बेचारी क्या करती। गरीबों की सब्जी मानी जाने वाली सब्जी आलू-प्याज में भी आग लगी थी। कैसे-कैसे करके दो जून का खाना मयस्सर हो पाता था।
“अम्मा! एक बात कहूँ।”
“तू भी न वो महँगी वाली सब्जियाँ अपनी दुकान पर रख़ा कर, देख न वो चौराहे वाला सब्जी वाला विलायती सब्जी बेच-बेचकर कितना बड़ा आदमी बन गया।”
“बात तो तू सही कह रही है पर…”
विलायती के नाम पर उसका दर्द एक बार फिर उभर आया था। ललिया सोच में पड़ गई, आलू-प्याज जैसी सब्जियों को मंडी से खरीदने के लिए भी उसे कितने जतन करने पड़ते थे। इन विलायती सब्जियों को खरीदने के लिए पैसे कहाँ से लाये। उसने अपने खजाने को टटोलना शुरू किया, भगवान की तस्वीर के पीछे, चावल के डिब्बे में, बिस्तर के नीचे… पिंकिया कितना हँसी थी।
“अम्मा तुम भी न, गिनती के चार पैसे है। उन्हें इतना छिपा-छिपाकर कर रखती हो। चोर भी घर में घुस जाए तो तुम्हें कोसेगा…सारा समय बर्बाद कर दिया पर मिला कुछ नहीं।”
ललिया हमेशा सोचती हम गरीबों के घर चोर क्यों आयेगा पर न जाने मन का डर हमेशा हावी हो जाता। ललिया ने भी आज विलायती सब्जियों पर दाँव लगा दिया था। आज वो आलू-प्याज नहीं अपनी छोटी-सी जमा-पूँजी से विलायती सब्जियाँ ले आई थी। आज उसने बहुत तड़के ही अपनी सब्जी की दुकान लगा दी थी, उसने फ़टे हुए बोरे पर विलायती सब्जियों को ऐसे सजाया जैसे कोई गृहणी अपने सुघड़ हाथों से घर को सजा रही हो। ललिया सोच रही थी, अम्मा कितना सही कहती थी, “सजी-धजी मेहरिया और लिपी-पुती देहरिया हमेशा अच्छी लगती है।” करीने से सजी सब्जियाँ कितनी सुंदर लग रही थीं। ललिया के पास इतनी पूंजी तो नहीं थी पर उस छोटी सी पूँजी में वह विलायती सब्जियों की छोटी सी ढेरी लगाकर बैठी थी। दो पैकेट मशरूम, दो ब्रोकली, आधा किलो बिन्स, आधा किलो सफेद एलिफेंट… दिन चढ़ता जा रहा था पर अभी तक बोहनी भी नहीं हुई थी। ग्राहक एक नज़र भर सब्जियों पर डालते और आगे बढ़ जाते। ललिया निराश होने लगी। तभी पीछे के मुहल्ले से मिश्राइन आती दिखाई दी, बड़ा लम्बा-चौड़ा परिवार था उनका, अक्सर उन्हें चौराहे वाली दुकान से थैला भर-भर सब्जी ले जाते देखा था। ललिया का चेहरा उम्मीद से चमक उठा, “राम-राम! भाभी।”
“कैसी है रे ललिया… ठंड बड़ी ज्यादा पड़ रही है।”
“उ तो है…”
” अरे! तू भी ये सब बेचने लगी?”
ललिया की आँखें चमक उठीं, बगल में रखे तराजू की रस्सी को सही करते हुए वो बोल पड़ी, “क्या तौलूँ भाभी… ”
पर मिश्राइन एक नज़र डालकर आगे बढ़ने लगी, “क्या हुआ भाभी…सब ताजी है। सुबह ही मंडी से लाये हैं।”
“गिनती के चार सब्जी है, ऊपर से पाव-पाव भर… क्या फायदा। इससे अच्छा तो चौराहे वाली दुकान से ले लूँ। एक ही जगह से सब मिल जाएँगी…चल अब आ ही गई हूँ तो एक किलो आलू तौल दे।”
“आलू! आज आलू तो नहीं है।”
ललिया के स्वर में निराशा थी, मिश्राइन पर्स झुलाते आगे बढ़ गई। ललिया स्तब्ध थी, इन पाव-पाव भर सब्जियों के लिए उसे अपनी जमा पूँजी लगानी पड़ी। सोचा था कुछ कमाई हो जाएगी…पिंकिया से वायदा किया था, आज कमाई हुई तो उसकी पसन्द का खाना बनाऊँगी पर.. .विलायती सब्जियाँ वैसे ही पड़ी उसका मुँह चिढ़ा रही थीं और वो सोच रही थी कि रात में आलू की सब्जी परोसते वक्त वो पिंकिया से क्या कहेगी। एक बार फिर विलायत ने उसे धोखा दे दिया था।