(एक)
कोई मुफ़लिस के घर गये हैं क्या
थोड़ा हद़ से गुज़र गये हैं क्या
इन दिनों दर्द नहीं होता है
ज़ख्म सारे ही भर गये हैं क्या
झोला अब खाली खाली लगता है
सारे सपने बिखर गये हैं क्या
आजकल मीठा बोलते हैं बहुत
सा’ब सचमुच सुधर गये हैं क्या
हम तो तैयार हैं मरने के लिये
मारने वाले मर गये हैं क्या
(दो)
खुश न होना बिसार कर उसको
देखो दिल में उतार कर उसको
झूठे मन से ही सही लेकिन तुम
मानते हो ही हार कर उसको
कोई कचरा नहीं कि तुम जैसै
फेंक देंगे बुहार कर उसको
तुमने मारा मगर वो जीवित है
मर गये तुम ही मार कर उसको
अब भी तुम उससे माँग लो माफ़ी
प्यार से बस पुकार कर उसको
(तीन)
मैं सहरा में उमगना चाहता हूँ
तन्हा रातों में जगना चाहता हूँ
नहीं लगता है मेरा मन यहाँ पर
मैं सब से दूर भगना चाहता हूँ
कहीं दिख जाये कोई पेड़ बूढ़ा
उसके सीने से लगना चाहता हूँ
धुआँ देती है जैसे गीली लकड़ी
बिना दहके सुलगना चाहता हूँ
कैसी कमबख़्त दुनियादारी है
मैं अपने को ही ठगना चाहता हूँ
(चार)
आदमी वो कि मौत में भी ज़िन्दगी देखे
ज़िन्दगी वो कि रंजो ग़म में भी खुशी देखे
बढ़ रहा हो जो ज़ुल्मतों का ज़ोर चौतरफ़ा
नज़र वही जो अँधेरों में रौशनी देखे
लगे हैं सूखने दरिया-ए-मुहब्बत सारे
कोई तो हो कि जो सूखे में भी नमी देखे
खुला-खुला रहे आकाश उड़ानों के लिये
लहलहाती हुई हरी-भरी ज़मीं देखे
ज़ुल्म के सामने डर कर न टूट जाये वो
रात गहराये तो फिर सहर भी होती देखे
(पाँच)
ग़म की ऊन से रूह का स्वेटर कौन बुने
मन पाखी की कुरलाहट को कौन सुने
छू ले जो भी महक जायेगा भीतर तक
खिले फूल की पँखुड़ियों को कौन चुने
दर्द के मारे रेशा रेशा बिखर जायेगा
विरह तांत से प्रेम़ की रूई कौन धुने
दावानल-सी जलने लगती हैं यादें
रोज़ ख़्यालों में ख़ुद का ख़ुद कौन भुने
मछली का पानी से रिश्ता समझे कौन
इश्क़-मुहब्बत की सच्चाई कौन गुने