घिरा जा रहा हूँ
चिलिया नीलगाय की लेंड़ी।
जब कवि जंगल में गहरे धँसता है तो आवारा पत्थरों के टुकड़ों से टकराकर यह कहना नहीं भूलता-
मैं नहीं रहा कौन करेगा तेरे पैरों को याद…
गहन ऐंद्रिक अनुभवों के बिना कविता नहीं बनती और जब बात जंगल की हो तो चाक्षुष बिंबों का सहकार ही कविता को जीवंत बनाता है। कहते हैं कविता मानवता की मातृभाषा है क्योंकि कविता में ही सबसे पहले मानवता ने तुतलाना सीखा। मानवता की आदिम अवस्था में जो जंगल बाहर फैले हुए थे, उसे सहस्राब्दियों से कोई कवि अपने भीतर ढोता रहता है। जो कवि जितने विशाल और गहन जंगल को अपने भीतर पनपने देता है, उसकी ऐंद्रिक शक्ति उतनी ही बिंबात्मक हो जाती है। संभवतः यही कारण है कि एम.डी. सिंह के इस संकलन में कविता और जंगल मिलकर एक हो गए हैं। जंगल की आवाज़ें, पशु-पक्षी-चिड़िया-कंकड़-पत्थर-चट्टान और निर्झर आपस में बोलते बतियाते लगते हैं। तकनीक के संजाल से पैदा हुए वहशी अजनबियत से भरे झंखाड़ तो हम हर जगह देखते हैं लेकिन विंध्याचल के इन जंगलों के सौंदर्य को तो कवि की आँख से ही देखा जाना चाहिए। विज्ञान ने हमें विकास की राह दी है लेकिन हमारी संवेदना को निरंतर ओछा भी किया है; जंगल ने हमें भटकाया बहुत लेकिन उसी ने संवेदना को सँवारकर ये भी जतला दिया कि हम प्रकृति के उपकरण हैं और शेष प्रकृति से कटकर नहीं रह सकते। पिछली शताब्दी का ज़ोर नगरीकरण पर रहा है। विकास की आपाधापी में जैसे जैसे यह बाहरी जंगल कटता घटता गया है वैसे वैसे हमारी आदमीयत भी खिरती गयी है।
आजकल हमारे नागरिक सरोकार कितने संकीर्ण और स्वार्थ केंद्रित होते जा रहे हैं, कवि ने इसे अनेक प्रकार से कहने की भरपूर कोशिश की है। उसका मानना ही यही है कि जंगल उसके भीतर अभी भी लहरा रहा है और वह उतना ही गझिन और ऐंद्रिक है जितना आदिम जंगल रहा होगा। कभी-कभी अपने को समझने की ख़ातिर भी इस मानसिक अरण्य में हमें प्रवेश करते रहना चाहिए क्योंकि सभ्यता के पतनशील दौर में एक जंगल ही है जो बेशर्म होकर भी हमें शरण देने को तैयार है। एम.डी. सिंह की पुकार उसी वानस्पतिक वैभव में प्रवेश करने की पुकार है जहां विंध्याचल है, गंगा है, सोन है, नर्मदा है। वहीं पर ऋतुओं का संगीत है, जीवन का अभयारण्य है पशु-पक्षियों की आदिम आवाज़ें हैं और प्रकृति के गहरे राज भी। यह संकलन वनध्वनियों के प्रसार को सभ्यता के अरण्य से लेकर अनंत के आँगन तक फैलाने की कोशिश है, भले ही इस कोशिश में कवि की संवेदनात्मक चादर कहीं-कहीं फट गयी है अथवा जंगली काँटों में अटक गयी है। यहाँ अनेक बार कविता अपने बने बनाये शिल्प को छोड़कर वनैली पगडंडियों पर उतरकर चलने लगती है। मानो उसे अहसास हो कि पगडंडी की पहुँच जंगल के उन कोनों तक भी है, जहां सभ्यता जाने से किनारा करती रही है। वहीं पर कुछ छंद प्रतीक्षा में मिलते हैं जिससे तृप्त होकर कवि लौटना चाहता है । जंगल से दूर होकर भी जंगल को कवि अपने मन में लिए लौट आता है- ‘एक जंगल मेरे भीतर’ उसी भावना का दस्तावेज है।