पागल सपनों को क्यों अब भी नींद नहीं है आ पाती
मौन पड़ीं वो चीखें कबसे जिनको रातें सहलातीं
परिवर्तन के चोटों ने जब घायल मन को तोड़ा है
मैंने बेसुध आशाओं को तब शब्दों से जोड़ा है
किन औषधियों का हो लेपन घावों को सहलाने में
बोलो कितने साल लगेंगे, मन को अब समझाने में ।।१।।
पाँव धरे पानी से बचकर अंगारों पर चलने को
अपनी साँझ विदा की मैंने सूरज के संग ढलने को
काँटों को चूमा था मन ने, पर फूलों की मार बहुत
जीते युद्ध कई गैरों से पर अपनों से हार बहुत
कितने अपनों में अपनापन अपनों को अपनाने में
बोलो कितने साल लगेंगे, मन को अब समझाने में।।२।।
कितने सीपों ने त्यागे हैं कितनी मणियों के सपने
मिलने और बिछड़ने के पल कितनी सदियों को सहने
अगणित पीड़ाओं के पथ को लघु पद दूरी नाप रहे
एक अकेलेपन को कितना और यत्न बहलाने में
एक अकेलेपन को कितना और यत्न बहलाने में
बोलो कितने साल लगेंगे, मन को अब समझाने में।।३।।
(2)
मेरे इन व्याकुल नयन के द्वार जब तुम खटखटाए
ओष्ठ सूखे देह कंपित देख तुमको मुस्कराए।
झर पड़े सावन बिना घन बूँद अगणित हैं बहाते
जोड़कर संवेदना हर स्नेह तुम पर हैं लुटाते
दृश्य पल भर का पलक में नेत्र से मन में समाए
मेरे इन व्याकुल नयन के द्वार जब तुम खटखटाए।
जब कठिन हो भेद करना प्राण दोनों एक से जब
नेत्र से जब नेत्र टिकते देखते सर्वस्व को तब
एक लघुतम प्राण में तुम देवता बनकर के आए
मेरे इन व्याकुल नयन के द्वार जब तुम खटखटाए।
भूलकर फिर मैं स्वयं को एकटक तुमको निहारूँ
जीत लूँ सब कुछ उसी पल या पुनः सर्वस्व हारूँ
प्रिय प्रतीक्षारत युगल दृग मोतियाँ तुम पर लुटाएँ
मेरे इन व्याकुल नयन के द्वार जब तुम खटखटाए ।
(3)
सुन सके न तुम मेरी आवाज़ को
किन्तु मेरी प्रार्थनाओं में रहे
वो दिवस का बोझ ढोकर स्नेह से
साँवली सी साँझ मेरी आ रही
दाँत से अपने दबाए होठ को
नाम चुपके से पुकारे जा रही
दीप बुझ जाते क्षितिज पर रोज दो
शेष निशि की अर्चनाओं में बहे।
रो पड़ा अंबर बरस सौ बू़ँद ले
ज्यों धरा व्याकुल पुकारी प्यास से
द्वार पर सूने रहे कुछ देश में
देहरी भीगी रही नित आस में
त्रास आँखों की कहानी स्वप्न की
आँसुओं को वेदनाओं ने गहे।
इक अपरिचित पत्र यू़ँ लिखते रहे
पर उसे भेजे कभी न डाक में
आँख मू़ँदेंगे तुम्हे ही देखकर
साँस यू़ँ लेते रहे इस ताक में
हम कहाँ कुछ बोल पाए आज तक
गीत मेरी भावनाओं ने कहे।
(4)
साथ मेरे तुम युगों से
पर मुझे न जान पाए।
सब कथाएँ मौन हो लीं
बोलती मेरी व्यथाएँ
एक निर्वासित महल के
द्वार पर लिपटी लताएँ
पूछती हैं वो पवन से
आर्द्रता वह खो गई क्या
या बरसकर उन घनों की
अब पिपासा बुझ गयी क्या?
विरहिनी सावन सलोनी
के नयन पहचान पाए?
शाख से अपने बिछड़कर
पुष्प जो फिर मिल न पाए
अर्चना की थाल पर वे
थे पड़े पर खिल न पाए
एक प्रतिमा के गले में
लिपटकर करते समर्पण
चरण पर उनके बिखरकर
कर रहे जो आत्म तर्पण
किंतु क्या अगले दिवस फिर
पुष्प सूखे, मान पाए?
भोर का उतरा हुआ मुख
साँझ ने देखा नहीं क्या
चिर रही थी जो क्षितिज पर
वह मिलन रेखा नहीं क्या
जो सदा बंदी रहे वे
प्राण निर्वाचित हुए क्यों
दीप को जो चूमते थे
वे शलभ आहुति हुए क्यों
तुम रहे निज वेदना में
पर मुझे अनजान पाए।
(5)
मिलन के भी उन क्षणों में घुल चुकी है विरह बेला
विश्व के इस भीड़ में भी प्राण तुम बिन है अकेला ।
आर्द्र स्मृतिहार चित्रित वेदना की एक रेखा
सजल नयनों से ढुलकते बूँद में सौ बार देखा
एक ओझल दृष्टि में छूटा हुआ वह एक रेला
मिलन के भी उन क्षणों में घुल चुकी है विरह बेला ।।१।।
पात्र अंतिम थक चुके हैं और बिखरा है कथानक
मधुर सुख के तार टूटे रागिनी रूठी अचानक
इक खिलौना मानकर जो भाग्य ने हर बार खेला
मिलन के भी उन क्षणों में घुल चुकी है विरह बेला ।।२।।
टूटते हर आस के विश्वास तुमको ढूँढ़ते हैं
श्वास प्राणों में अमर भर प्राण तुमको पूछते हैं
सीपियों के पुतलियों पर मोतियों का एक मेला
मिलन के भी उन क्षणों में घुल चुकी है विरह बेला ।।३।।
(‘लौटती हुई साँझ’ गीत संग्रह से)