1) खालीपन के बिल में
स्त्री नहीं भरती खालीपन को
मित्र नहीं भरते
दुनिया में चलतीं इतनी साँसें
एक खाली पिंजर को भरने की कोशिश में हैं
तुम्हारी कविता खालीपन के बिल में एक छोटी चींटी की तरह समा जाती है
खिड़की खोलते ही खालीपन भर जाता है कमरे में
ठिठुरती हवा जैसे
कमीज़ की खाली बाहों में दुबक जाता है
शीत में काँपता कर्मचारी
खालीपन बुहार कर निकालता है रोज़ सुबह लाइब्रेरी में
तुम चाहते हो फिर भी तो मिल लो मुझसे
खालीपन ले जाओगे अपने लिये।
2) रुकने की जगह
प्रेम में यही कहती है वह
एक सुन्दर शरद में घुला बचपन ले आओ
देर हो रही है
घर प्रतीक्षा में है
चुंबन में यही कहा
ढेर उड़ते हैं चीड़ की पत्तियों के
रुकने की जगह
कहाँ है
यही कहती है गुनगुनाते हुए
पीले होंठों को सर्दियों की शाम मिली है
ठंडी खुशबू में
दरवाज़ों की तरह खुलते हैं
बंद होते हैं
यही सुनाती है मुड़ते समय
बाल खोले थे कि आसमान बाँध ले
थोड़ी माटी झरती है
खोलते हुए
जब बंद करती है खिड़की तो कहती है यही
इसी तरफ से आये सब यात्री
मुझे डर है
खोज लिए जाने से
रूकती है शालभंजिका की तरह तो बुदबुदाती है
कोई देश है तलवों में धॅंसा हुआ
खून से सना
निकालो उसे।
3) मैंने जब भी लिखी कविता
हम जहॉं होंठों तक जाकर लौट आते हैं
वही गिरने लगते हैं हमारे शब्द
मैं जहाँ चुप रहती हूँ
वो जगह है
ठीक धान के खेतों में
आधे घुटने तक
मुझे लगता है
तुम्हारा कविता लिखना व्यर्थ है
अगर तुम यहाँ आकर चूम नहीं सकते
मेरी चुप्पी
मैंने जब भी लिखी कविता
यही लिखा
तुम्हें चूमना
इस उन्माद में आये बीजों के
महक उठने से ज्यादा अच्छा होता
4) सिर्फ लगता है तुम्हें
सिर्फ लगता है तुम्हें
वे सो रहे हैं दो पत्थरों के बीच
अपनी स्त्री के वक्षों के बीच
अपने पिता की आस्तीन के बीच
किन्तु वे कहीं नहीं हैं
जबसे आए हैं
तबसे विलुप्त हैं
घर के आंगन में खाट बुनते देखा था एक बार उन्हें
एक बार देखा था
ढोल की खिंची लगाते
अब तो वे लोक गीतों में नहीं आते
पीपल के दीपक की लपट में नहीं दीखते
तुम्हें लगता है सिर्फ
आवाज़ दोगे तो
वे झॉंकेंगे पीले पत्तों के टीले से
शायद गिर पड़ेंगे पाले की तरह
किन्तु वे ऊपर नहीं गए
गए होंगे तो
नीचे ही किसी अनश्वर खोह में
अपनी देह से भागते हुए
सिर्फ लगता है तुम्हें
मैनें छुपाया होगा अपनी कविता में
किन्तु मैंने कभी नहीं देखा उन्हें
जबकि एक रोज़ वे मेरे पास ही खड़े थे।
5) सौंदर्य की इच्छा में
सौंदर्य की इच्छा में ही सौंदर्य की अलभ्यता है
तुम्हारे जो बालारुण ओंठ हैं
उन पर नहीं लिख सकती
मन कर्कश हो गया है जो निर्विघ्न श्लोक उच्चारते
नखों से उसे नहीं खुरच सकती
लोग जितने दुरूह हैं ऊपर से उतने ही सरल भीतर से
जैसे एक वन था तुम्हारे भीतर
साहित्य की तरह और कामना की तरह व्यवहार में
गूढ़ ज्ञान यह लिखने योग्य नहीं
यह शिशिर की गरिमा है
तुषार में भीजते जो अपना वक्ष खोल कर दिखाता है
बहुत ऋतुओं के बाद
सुन्दर और असुंदर का विचार इतना अप्रीतिकर होता है
कि झरता है जल पर और
तल में बैठ जाता है
सौंदर्य में भीजे पैर तुम्हारे लिखने में अधार्मिक हो जाने का भय है
मेड़ के सटकर झाड़ियां हैं कंचन वर्ण की
उपमाओं में एकदम निर्दोष
वही इस कठिन काल में लिखूँगी
मेरा विश्वास है
सब धर्मों में उजागर इस विषय में
संसार बिल्कुल निर्द्वन्द है।