1. खिलौने
अनजाने में भी जब
टूट जाते हैं बच्चों से
वो रो पड़ते हैं—
बिलख पड़ते हैं,
वो बड़े लोग
रोयेंगे ही क्यों भला
वो तो हँसते हैं—
मुस्काते हैं,
तोड़ देते हैं
जो जानबूझ कर
खिलौने।
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2. सम्भल जा ऐ पथिक
मुश्किलों के तूफान में,
अनादर में, सम्मान में,
रहना पड़ेगा अचल,
है ये संघर्ष-स्थल,
सम्भल जा ऐ पथिक,
समय के साथ चल।
मत सोच कल की,
न सोच बीते पल की,
आज के साथ ढल,
है ये संघर्ष-स्थल,
सम्भल जा ऐ पथिक,
समय के साथ चल।
धैर्य जब तेरा हिले,
राह कहीं ना मिले,
रख ये याद हरपल,
है ये संघर्ष-स्थल,
सम्भल जा ऐ पथिक,
समय के साथ चल।
मंजिल न होगी दूर,
पहुँचेगा तू जरूर,
हर पल कर नयी पहल,
है ये संघर्ष-स्थल,
सम्भल जा ऐ पथिक,
समय के साथ चल।
हौसले की मशाल ले,
विश्वास-तिलक भाल ले,
कर मानवता पर अमल,
है ये संघर्ष-स्थल,
सम्भल जा ऐ पथिक,
समय के साथ चल।
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3. काले बादल आएंगे…
वो बोले—
काले बादल आएंगे
अच्छी वर्षा होगी
गर्मी से राहत मिलेगी
खूब पैदावार होंगे
धरती तृप्त हो जाएगी।
उनकी बात सच निकली—
सावन आया
काले बादल छाये
पर अच्छी वर्षा ना हुई।
कहीं-कहीं बूंदाबांदी
कहीं वो भी नहीं।
इससे गर्मी तो गयी नहीं
उमस और बढ़ गयी।
पैदावार तो दूर
धरती का गला भी—
ना गीला हुआ।
फिर पूछने पर वो बोले—
अभी तो बरसात आयी ही है
सावन भी अभी चढ़ा है
इसके बाद भादो भी है।
धैर्य धरो।
काले बादल आएंगे
अच्छी वर्षा होगी।
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4. ‘पचस रोपेयहिया चप्पलें’
तलवे की उभरी हड्डियों से
ऊपरी हिस्से में बने
छोटे छोटे गड्ढे
तकरीबन तीन-चार,
एंड़ी पर पड़ने वाले अत्यधिक भार से
खियाया उसका निचला छोर
एक बड़े आधे-खुले गड्ढे-सा,
अंगूठे की जगह नली चिरी
और जमीन की ओर बहती,
टूटने और टँकवाने के बाद
दस रोपेयहिया फीता धराया,
और प्रदर्शन के दौरान
रगेदे जाने पर छूटा—
वो,
और उस जैसे सैकड़ों और
लाखों उन्हीं जैसे गड्ढों वाले चेहरों के
प्रतिनिधि के रूप में,
भीगीं-कुचलीं टूटी-बिखरीं
अपने धारकों के भाग जाने के बाद भी
उनके और उनके हालातों को बयाँ करतीं,
दबी-सम्पीड़ित आवाज़ में
अब भी नारे लगातीं,
झकोर रही थीं तन-मन
सब,
पार्लियामेंट-स्ट्रीट पर पड़ीं—
वो पचस रोपेयहिया चप्पलें।
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5. कचरे के उसी ढेर से
क्षण भर को जब भी
गुजरते हैं वहाँ से
सिकोड़ लेते हैं
आप अपनी नाक-भौहें,
घिना जाता है आपका मन
चित्त,
थूक पड़ते हैं
फच से
वहीं पर,
उमसा जाते हैं और
भाग पड़ते हैं
सिर पर पाँव रखकर।
पर उनका क्या
जिनके परिवार
दशकों से,
धूप-छाँव—
सर्दी-गर्मी-बरसात,
हाथ-नाक-मुँह
सब डाल कर
ढूँढते रहे हैं
अपनी रोटियाँ,
भरते रहे हैं
अपना पेट
कचरे के उसी ढेर से।