1. किताबें
बंद किताबें
रहती हैं जितनी खामोश
ये खुलकर करती हैं
उतना ही ज्यादा
शोर!
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2. पतंगें
आकाश में उड़ती पतंगें
नहीं जानती अंकुश का अर्थ
वे जानती हैं खुली हवा में विचरना
और छूना आसमान की ऊँचाइयों को
पतंगें
नहीं महसूस पातीं
उस हाथ के दबाव को
जो थामे रखता है उनकी डोर अपने हाथ में
पतंगें
लड़ना नहीं जानतीं
वे जानती हैं सिर्फ मिलना-जुलना
और बढ़ना एक-दूसरे की ओर
वे नहीं पहचान पाती उस धार को
जिससे मिलते ही कट जाती है ग्रीवा
पतंगें
नहीं जानतीं लुटने, मिटने, कटने का अर्थ
वे देखना चाहती हैं दुनिया को ऊँचाई से
उनका ऊँचा-नीचा होना निर्भर है
मुट्ठी में कसे धागे के तनाव पर
पतंगें
नहीं थाम पातीं अपनी ही डोर अपने हाथ में
नहीं सीखा पतंगों ने स्थिर रहना
विजय और वर्चस्व की उम्मीदों को संजोए
आ गिरती हैं एक रोज़
जमीन पर!
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3. मजदूर
उनका होना चेतना का होना है
उनका चलना विकास का चलना है
उनका ठहरना प्रगति का ठहरना है
उनका जागना उम्मीदों का जागना है
उनका खोना विचारों का खोना है
उनका सोना मेहनत का सोना है
उनका मरना सभ्यता का मरना है
उनके इसी होने, चलने, सोने, जागने
और सभ्यता में रहने से तृप्त है दुनिया भूख
इसी तृप्ति पर टिकी हैं तमाम जीवित इमारतें
वे नहीं जानते
मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्त्व
पर, जानते हैं वे जीवन के मूल कर्तव्य
उनके लिए रक्षा जैसे शब्द बेमानी हैं
उनकी सुरक्षा के लिए नहीं है
कहीं कोई इंतज़ाम
असुरक्षा ही उनका सबसे सुरक्षित स्थान है
उनकी खबरों को नज़रअंदाज़ करना
सरकार का सरकारी सलीका
उनकी मौत पर नहीं होते विमर्श
न मनाए जाते हत्याओं पर मातम
ढक दिये जाते हैं शालीनता से उनके शव
बड़ी सहानुभूति से लगाया जाता है
योजनाओं में उनके जख्मों पर मरहम
सुना है
किसी आदमी की
मजबूरियों का वजन
ज्यादा होता है उसकी देह के वजन से
वे तो माहिर हैं बोझा ढोने में
फिर क्यों नहीं उठा पाते वे
अपना ही भार?
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4. चुनौतियाँ पेट से हैं
बैसाख की चमचमाती धूप लिए
रवि भारी है रबी पर
और सुनहरी चमक लिए खड़ी हैं बालियाँ
देख रही हैं बाट मजदूरों, काश्तकारों की
कसमसा रही हैं मीठे दर्दों में
सुना है चुनौतियाँ पेट से हैं
अभी करनी है उन्हें गर्भ से गृह तक की यात्रा
संजोए खड़ी हैं उन नन्हें दानों को
जो आतुर हैं बाहर आने को
कहीं झुलस न जाएँ रवि के तेज ताप से?
उनके जन्मते ही जंग तय है
लड़ना है उन्हें राष्ट्रीय राजमार्गों पर
घोड़ागाड़ियों, बैलगाड़ियों, रेलगाड़ियों से
पहुँचने को पेड़ से पेट तक
करनी है उन्हें दिल से दुकान तक की यात्रा
क्या झेल पाएँगी
संक्रमण का क़हर?
लॉकडाउन का असर?
महामारी का जोखिम और हजार शर्तें?
पता नहीं!
सरकारी वादों और इरादों पर
टिकी हैं इनकी उम्मीदें
और उन उम्मीदों पर टिकी है
दुनिया की भूख
न जाने
क्या होगी नई मिसाल
और उनकी आधारशिला?
सुना है चुनौतियाँ पेट से हैं!
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5. हाशिए की औरतें
वे जो नहीं करतीं कभी हक़ की बात
रह जाती हैं थक कर दिन-रात
नहीं लिखीं गईं इनके लिए स्त्री विमर्श की बातें
ना ही नारी उत्थान से इनका कोई सरोकार
मगर खोज लेती हैं ये
अपने लिए घर-बाहर रोजगार
इनके सुख सपनों में
दुख हाथों की लकीरों में रहते हैं
नहीं बनते इनके कभी संघ
न दर्ज़ होतीं कहीं सेवाएँ
फिर चाहे हथेलियों पर बने मेहराब हों या चूड़ियों पर नक्काशी
या फिर साड़ियों पर की गई कसीदाकारी
पहचान भले ही सीमित हो
पर, करतब में नहीं इनका कोई सानी
अपने सब गम ओखल में डाल
कूट देती हैं मसालों के संग
चूल्हे की आँच में सेक सारी निराशाएँ
उड़ा देती हैं धुएँ में
नहीं होती ये पूरी औरतें
होती हैं आधी मजदूर, आधी किसान
आधी घरेलू, आधी व्यापारी
नहीं खेला इन्होंने कभी साँप-सीढ़ी का खेल
पर, पार कर जाती हैं
सीढ़ियाँ चढ़ने के सारे सोपान
बात अर्थ की हो या कर्म की
ये अग्रणी ही रही हैं
नहीं भूलतीं संतान की परवरिश
नाते रिश्तों के सरोकार
या फिर तीज-त्यौहार
पढ़ लेती हैं ये पत्थरों की भाषा
पर, नहीं आती इन्हें विकास की नयी परिभाषा
ये जानती हैं सिर्फ
मिट्टी की महक, बच्चों की चहक
काँच की गलन, आँच की तपन
हृदय की छुअन, साँसों की सिहरन
पहचानती हैं
सुईं की नोक और नज़र का संबंध
सुहाती है इन्हें बस पसीने की गंध
नहीं लेती तकलीफ़ में भी दवाई
उठा लेती हैं देवी के नाम की सौगंध
तमाम कोशिशों के बाद भी नहीं बन पाती
बड़ी उद्यमी, छोटी काश्तकार
मानती हैं ये सारी नेमतें
शायद ही इन पर कभी बरसती हैं
खुदा की रहते
क्या सचमुच! इन्हीं को कहते हैं
हाशिए की औरतें।
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6. मनुष्य न कहना
सुनो मित्र!
अभी मैंने पेश नहीं किए
मनुष्यता के वे सारे दावे
जो जरूरी हैं मनुष्य बने रहने को
इसलिए तुम मुझे मनुष्य न कहना
तुम मुझे खग या विहग भी न कहना
क्योंकि उड़ना मुझे आया नहीं
मत कहना तुम मवेशी
क्योंकि मूक रहना मुझे भाया नहीं
तुम मुझे नीर, क्षीर या समीर भी मत कहना
क्योंकि उनके जैसी पवित्रता और शीतलता
मैंने कभी पाई नहीं
न कहना तुम मुझे धरा या वसुधा
क्योंकि उसके जैसी क्षमा मुझमें समाई नहीं
हाँ! कुछ कहना ही चाहते हो
पुकारना चाहते हो संबोधन से
तो पुकारना तुम मुझे एक ऐसे
खिलौने की तरह
जो टूटकर मिट्टी की मानिंद
मिल सकता हो मिट्टी में
जल सकता हो अनल में
बह सकता हो जल में
उड़ सकता हो आकाश में
उतर सकता हो पाताल में
ताकि तुम्हारे सारे प्रयोगों से बचकर
दिखा सकूँ मैं अपनी वही चिर-परिचित मुस्कान
दुखों से उबरने का अदम्य साहस
और एक संवेदनशील हृदय
इसके सिवाय एक मनुष्य
और दे भी क्या सकता है
अपनी मनुष्यता का
साक्ष्य!
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7. बैसाख की आस
तुमने भूख का वास्ता दिया
मुझे अन्न उगाने की सूझी
मैंने बो दिए गेहूं, जौ, चना, चावल, दाल
और शर्बत, चाय, चीनी, के नाम पर
रोप दी ईख
मेरे इसी कार व्यवहार पर
टिके थे सब त्यौहार
बसंत आया, फूल खिले, हवा चली, खेत लहलहाए
और आस जगी बैसाख की
इसी सुनहरी चमक में थे
वनिता के गहने, लाजो की चुनरी
नन्हें मुन्नों के खेल खिलौने
और कॉपी किताब
शाम होते ही बादलों का रुख बदला
रंग गहराया, बिजली चमकी
और छाए उमड़ घुमड़कर
जैसे कर रहे हों पैमाईश धरा की
मैंने नज़र उठाई देखा और गुहार लगाई
आज बादलों से ज्यादा गड़गड़ाहट मन में थी
भीतर की अर्चना रोक रही थी
ऊपर की गर्जना को
प्रकृति पर पहरे का प्रयास कोरी मूर्खता है
उस रात कंकड़ों ने भी दिखाई खूब नज़ाकत
यौवन में मदमाती फसल सिमट गई
वृष्टि की आगोश में
और समा गई धरा की गोद में
भोर होते ही मैंने यूँ निहारा खुले मैदान को
जैसे विदा के वक्त देखता है एक पिता बेटी को
मेरे पास डबडबाई आँखों के सिवा
कुछ न था
बस एक हाथ में रस्सी थी दूसरे में हँसिया
और मन में तरह तरह के ख्याल
अब सरकारी वादों पर टिकी थी
हर एक साँस
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8. नहीं चाहिए
नहीं चाहिए
ठहाकों की बैसाखियाँ
सहानुभूति का मरहम,
और प्रफुल्लित कर देनेवाले
शब्दों का लेप
जो निर्द्वंद्व और बेसहारा कर दें मुझे
क्योंकि मैंने ईमान गिरवी नहीं रखा
न सीखा मुखौटा लगाकर जीना
सिर्फ चाहूँगी
वो कर्कशता, वो तीखापन
और वास्तविकता से परिपूर्ण
तुम्हारी वो तेज आवाज़
जो आत्मीयता का बोध कराती
मिटा दे त्रुटियों को
और मिला दे मुझे
खुद से!!