(1) अधूरी बातचीत
कोविड वार्ड में ड्यूटी करते-करते अब तो उसको कई महीने बीत चुके हैं। कभी-कभी उसे लगता है कि नाहक में उसने डॉक्टरी की पढ़ाई की। कुछ और पढ़ लेता तो जीवन में रात और दिन में फर्क करने का एक ऐसा समय तो बचा रहता उसके हिस्से, जिसमें थोड़ा सुकून से घर में रहकर पत्नी और बच्चों के साथ कुछ देर वह रह पाता। अब तो ऐसा हो गया है कि कई-कई दिनों तक हॉस्पिटल में ही रहना पड़ता है उसे।
उसने लोगों को मरते हुए देखा है, लोगों को रोते हुए देखा है, पर उसने कई महीनों से लोगों को हँसते हुए नहीं देखा। वह लोगों को हँसते हुए देखना चाहता है, पर उसके हिस्से में इन दिनों हंसते हुए लोग नहीं हैं। चारों तरफ दु:ख और तकलीफों के बादल जो अनचाहा बरस उठते हैं। कई बार उसे रातों में नींद नहीं आती। मन करता है कहीं भाग जाऊं। एक बेचैनी सी छाई रहती है। अजीब तरह के सपने आते हैं। जब उसे रातों में नींद नहीं आती, वह कोविड वार्ड के अपने चेंबर में आकर टेबल में सिर टिकाकर झपकियाँ ले लिया करता है। मेडिकल कॉलेज के उस हॉस्टल में अकेले रात बिताना उसे थोड़ा अजीब सा लगता है। डर भी लगता है। आंखों के सामने मरते हुए लोग और उनकी लाशें नाचने लगती हैं। उस दिन का वाकया उसे याद हो आया। ड्यूटी से लौटकर वह अपने कमरे में अकेले सोया हुआ था। आधी रात को अचानक नींद में उसे महसूस हुआ कि उसके कमरे के भीतर दो लाशें आपस में बातें कर रहे हैं-
लाशों के नाम नहीं थे बल्कि उनके नंबर ही उनके नाम थे।
लाश नंबर एक कहने लगा- मैं जीवन के हर क्षेत्र में पिछड़ जाता था, पर मरने के मामले में समय से पहले ही मेरा नंबर आ गया। मन में हमेशा यह भावना रही कि आराम से ही तो मरना है, इसलिए कुछ भी तैयारी नहीं थी घर छूट जाने की। बच्चे कितने छोटे छोटे हैं अभी। सोचा था आराम से उनके लिए कुछ कर लूँगा। पत्नी भी एकदम सीधी-सादी। कुछ भी तो आता जाता नहीं उस बेचारी को। उसे पता होता कि मेरा नंबर जल्दी आ जाएगा तो शायद कुछ सीख भी जाती बेचारी, पर समय रहते सीख भी नहीं पाई। पता नहीं आगे बच्चों को कैसे संभाल पाएगी।
शाम को कितनी बेसब्री से मेरा इंतजार करते थे बच्चे! मैं अक्सर उनके लिए कैडबरीस के चॉकलेट लाया करता था। कितने चाव से मेरे गले लगकर वे चॉकलेट के बदले मुझे राइम्स सुनाया करते थे। अब वे किसको राइम्स सुनाएंगे…? कहते कहते वह रोने लगा।
उसकी बातें सुन लाश नंबर दो भी कुछ देर के लिए सुबकने लगा…
तुम बहुत खुशकिस्मत हो… कम से कम इस जनम में अपने बच्चों का चेहरा तो तुम्हें देखने को मिल गया। मेरा तो बच्चा दो माह बाद इस दुनिया में आने वाला था। हम पति-पत्नी कितने खुश होते थे यह सोचकर कि उसे दुनिया में ले आऍंगे। उसकी अंगुली पकड़कर उसे चलना सिखाऍंगे। खूब पढ़ाऍंगे लिखाएंगे, डॉक्टर बनाऍंगे उसे! पर देखो ऐसा कुछ भी नहीं हो सका। सब धरा का धरा रह गया। मुझे फिक्र होती है कि डिलीवरी के समय पत्नी को डॉक्टर के पास कौन ले जाएगा? वह बच्चा भी कितना अभागा है बेचारा। अपने बाप का चेहरा भी देख नहीं पाएगा! उसे अंगुली पकड़कर चलना सिखाने की मेरी इच्छा पूरी नहीं हुई!
लाश नंबर दो की बातें खत्म होते-होते कमरे में सन्नाटा छा गया। नींद में अचानक सन्नाटे का आभास होते ही उसे महसूस हुआ कि उनकी बातचीत अधूरी रह गई। फिर उसकी नींद खुल गई। उसे महसूस हुआ कि उसका शरीर पूरी तरह पसीने से भीगा हुआ है। गीली देह लिये वह हड़बड़ाकर बिस्तर पर बैठ गया। बाहर कुत्तों के जोर-जोर से भौंकने की आवाजें आ रही थीं। अचानक उसकी आंखों में अपनी पत्नी और दो साल के बच्चे का चेहरा घूम गया।
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(2) चिट्ठी
समय के चेहरे भी कितने अलग-अलग होते हैं। पारसनाथ गुरूजी जब स्कूल के हेडमास्टर पद से रिटायर्ड हुए तो रिटायर्डमेंट के दिन उन्हें हाथी में बिठाकर पूरे गाँव की गलियों में घुमाया गया था। हर घर की चौखट पर उनके पाँव धोये गए थे। उनके सम्मान में पूरा गाँव उनके पीछे हो लिया था। यह सम्मान इसलिए भर नहीं था कि वे एक अच्छे स्कूल मास्टर थे बल्कि इसलिए भी था कि गाँव में जीवन भर तन, मन और धन से हर किसी के वे काम आते रहे। गाँव में ऐसा कोई परिवार नहीं था जिसका सहयोग पारसनाथ गुरुजी ने किसी न किसी रूप में न किया हो । पर अब समय का चेहरा बदल गया था। वही पारसनाथ गुरुजी जब कोविड संक्रमण की मार न सह पाने के कारण हॉस्पिटल में गुजर गए तो उनकी मृत देह अछूत होकर रह गयी। उसे किसी को छूने की इजाजत नहीं थी। समय के चेहरे में इतनी भर सुन्दरता बची रही कि इन सबके बावजूद गाँव वालों की इच्छा थी कि उनकी लाश गाँव में ही लाकर जलाई जाए। गाँव वालों ने स्थानीय विधायक और प्रशासन को लिखकर दिया कि उनकी इच्छा का सम्मान हो। प्रशासन तो तैयार नहीं था पर दबाव इतना था कि गाँव वालों की इच्छा का सम्मान भला कौन टाल सकता था, कोविड प्रोटोकाल को पूरा करते हुए उनकी लाश प्लास्टिक कीट में पूरी तरह लपेटकर हेल्थ डिपार्टमेंट की देखरेख में गाँव भेजी गई और उनका वहां अंतिम संस्कार कर दिया गया। पारसनाथ जी की कहानी तब भी खत्म नहीं हुई।
जब हेल्थ डिपार्टमेंट की गाड़ी लौटने लगी तो उस टीम में मौजूद युवा डॉक्टर गाँव वालों के सामने मुखातिब होकर कहने लगा… ‘कितने आशावान व्यक्ति थे पारसनाथ! मुझसे रोज कहते रहे कि मेरा छोटा बेटा संक्रमण से ठीक होकर अब तो घर जा चुका होगा। अपने छोटे बेटे से मुलाक़ात किए बिना मैं इस दुनिया से नहीं जाऊँगा!
सच कहूँ तो वे अकेले रह-रहकर एकदम उकता चुके थे, पर उनकी आशाऍं जीवित थीं। हम तो मजबूर थे। किसी परिजन को उनके निकट आने-जाने की इजाजत देना हमारे लिए संभव नहीं था। वे हमेशा अपने दोनों बेटों को बहुत याद किया करते थे। पता नहीं क्या चल रहा था उनके मन में! एक दिन कोविड वार्ड में जिद करते हुए मुझसे उन्होंने यह चिट्ठी लिखवाई। कहने लगे कि अगर मैं मर जाऊँ तो यह चिट्ठी मेरे घर वालों को दे देना।
चिट्ठी का जिक्र सुनते ही सबकी नजरें उस युवा डॉक्टर पर आकर ठहर गईं।
‘क्या लिखा है चिट्ठी में?’
‘क्या लिखा है चिट्ठी में?’
सबकी जिज्ञासा एकाएक बढ़ गई। कुछ हाथों से होते हुए पारसनाथ के बड़े बेटे के हाथ चिट्ठी पहुँची और पढ़ी गई।
पढ़कर थोड़ी देर के लिए उसने चुप्पी साध ली।
देखते-देखते भीड़ के सामने उसका चेहरा भावशून्य होने लगा।
जब दर्द का गुब्बारा एकाएक फट पड़ा तो सबके सामने रोते रोते वह कहने…’मैंने भाई की मृत्यु की खबर पिताजी को नहीं बताई। सोचा था वे थोड़ा ठीक हो जाऍंगे तो इस दुःख को झेल सकेंगे। पर वे आईसीयू से बाहर ही नहीं आ सके। मरने से पहले वे इस दु:ख को जान भी न सके कि मेरा छोटा भाई तो उनके पहले ही कोविड की मार सहते हुए एक अन्य हॉस्पिटल में गुजर गया।
वहां सन्नाटा छा गया। उसके कंपकंपाते हाथों से चिठ्ठी नीचे गिर गयी। उसमें लिखे हुए एक-एक शब्द को पूरे गाँव वालों ने पढ़ा… उनका सन्देश उनके दोनों बेटों को लेकर था। चिट्ठी में लिखा था… मेरे जाने के बाद दोनों भाई आपस में मिलजुल कर रहना।
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(3) अवसर
“जल्दी कीजिए सर! मेरी ट्रेन छूट जाएगी”
“ट्रेन छूट जाएगी? कौन सी ट्रेन है तुम्हारी?”
“जी स्पेशल ट्रेन है।”
“स्पेशल ट्रेन है? यह क्या होता है?”
“जी इसमें 5 गुना किराया अधिक लगता है।”
“5 गुना किराया अधिक लगता है? भाई इस लॉकडाउन में किसने चलवाया इसे?”
“जी रेल मंत्री जी ने चलवाया है सर!”
“अच्छा-अच्छा! तब तो कुछ सोच समझकर ही उन्होंने ऐसा किया होगा।”
“जल्दी कीजिए सर! मेरी ट्रेन छूट जाएगी।”
“ये टमाटर का रेट कितना है?”
“जी 15 रुपए केजी ”
“15 रुपए केजी! अरे ये तो कहीं कहीं 5 रुपए केजी में बिक रहे थे, मैंने फेसबुक पर कहीं पढ़ा है। कहीं-कहीं तो किसान फेंक भी रहे थे इसे। तुम इतने महँगे क्यों बेच रहे हो।”
“जी 10 रुपए की खरीदी है सर! इतने दूर से आया हूँ, स्पेशल गाड़ी का किराया देकर, इतनी तकलीफ़ उठाकर। क्या पोसाएगा सर! ”
“10 की खरीदी है? अरे मैंने बोला ना कि यह 5 रुपए में कहीं बिक रहा था।”
“हो सकता है सर। पर 15 रुपए से कम में मुझे नहीं पोसाएगा। जल्दी कीजिए सर मेरी ट्रेन छूट जाएगी प्लीज़।”
“ये लाली भाजी कैसे किलो दे रहे हो?”
“जी 30 रुपए सर! ”
“30 रुपए? अरे पिछले हफ्ते तो 20 रुपए बिक रहे थे।”
नहीं सर, ये तो 20 रुपए की खरीदी है। जल्दी कीजिए सर मेरी ट्रेन छूट जाएगी प्लीज़।
कितने पैसे हुए?
“जी 25 रुपए हुए सर!”
“अरे कुछ तो कम करो यार! ”
“जी पहले ही कम कर दिया हूँ सर! अब 25 रुपए की खरीदी पर और क्या कम कर पाऊँगा?”
कुछ तो कम करो, चलो 20 रुपए ले लो।
छोड़िए जाने दीजिए, देर हो रही है… बीस रुपए ही दे दीजिए, नहीं तो मेरी ट्रेन सचमुच छूट जाएगी।
“ये लो… 500 रुपए का नोट है, बीस काटकर बाकी वापिस करो।”
“छुट्टे नहीं हैं क्या सर? आज मेरे पास भी नहीं हैं। चलिए जाने दीजिए, फिर कभी आते-जाते दे दीजिएगा, नहीं तो मेरी ट्रेन छूट ही जाएगी।”
और वह बेचारा गरीब सब्जी वाला ट्रेन छूट जाने के डर से मिश्रा जी से बिना पैसे लिए ही चला गया।
मिश्रा जी खींसे निपोरने लगे। मन ही मन यह सोचकर बहुत खुश हुए कि भाई कल किसने देखा है।
एक तो लॉकडाउन में वे बहुत दिन से ऑफिस नहीं गए थे, इसलिए किसी मुर्गे पर हाथ भी नहीं डाला था, बस तनख्वाह के भरोसे ही अभी उनका घर चल रहा था।
घर पहुँचे तो पत्नी को खुश होकर बताने लगे, “आज 25 रुपए की ऊपरी कमाई हो गई।”
कैसे? पत्नी भी खुश होकर पूछ बैठी जानते तो हो मुझे। समय देखकर कौन सी चालाकी करनी चाहिए यह मैंने अपने बाप से ही सीखा है। मेरे पास छुट्टे थे, पर मैंने छुट्टे देने के बजाय सब्जी वाले को पाँच सौ का नोट थमा दिया। मैं भांप लिया था कि उसके पास छुट्टे हैं नहीं, उस पर बेचारे की ट्रेन छूट रही थी इसलिए वह बिना पैसे लिए ही चला गया।
“तुम भी न… आखिर रहोगे तो कमीने के कमीने ही! “… बोलते-बोलते पत्नी भी ठठा कर हँस पड़ी ।