इस कशमकश में
कि क्या लिखूं,
क्या छोड़ूं?
क्या बुनूं क्या तोड़ूं?
मष्तिष्क एक कैद पंछी-सा
तड़फड़ाता रहा
अंधेरी उदासियों और
बेजान उबासियों के बीच
छटपटाता रहा
अंतत:
लिखने के नाम पर
याद आया विस्मृत-सा एक दर्द
ठीक वैसा
जैसा पत्थर तोड़ते मजदूर के
रीसते घाव में होता है
जैसा कटते पेड़ की
छांव में होता है
वही दर्द जो
उमस से तप्त
करसे की देह और
बिलखते बचपन के
अभाव में होता है
और जिसका मौन केवल
अनुभव की आंच पर ताए
शब्द ही
तोड़ पाते हैं
किताबी हर्फ
पिछड़-पिछड़ जाते हैं.