(एक)
ईश्वर की डायरी
मन बड़ा अलसाया रहता है सुबह-सुबह
बजाने लगते हो मेरे घर की घंटियां जोर-जोर से
चैन से कभी सोने भी नहीं देते
सिर के ऊपर लटका देते हो छिद्रदार घड़ा
दिन-रात टपकता रहता है बूंद-बूंद जल
कितना असहज रहता हूं हर पल
घर के मुंडेर पर बांध रखे हो लाउडस्पीकर
कर्णभेदी आवाज से बधिर हो चुका हूं
पड़ोसी बनाने लगे हैं घर खाली करने का दबाव
मेरा नहीं तो कम से कम मेरे पड़ोसियों का
और उन रुग्ण मनुष्यों का रखते खयाल
हो चुका है मेरा, उनका, सबका बुरा हाल
कभी परवाह भी की तूने मेरे भूख-प्यास की
रोज रख देते हो चम्मच भर मिसरी की कटिंग्स
बिगड़ चुका है मेरे मुंह का स्वाद
बहुत खुश होता हूं जब कभी बुलाते हो घर
कहते हो- यहां बैठो, यहां ठहरो
उतरने भी नहीं पाती यात्रा की थकान
कि तुम मुझे सुना देते हो जाने का फरमान
ऐसा स्वागत नहीं देखा मैंने श्रीमान
भारी मन से लौटता हूं फिर अपने घर
फिर वही दिनचर्या हर पल, हर प्रहर
कब बदलेंगे मेरे हालात मान्यवर?
करता हूं अब पुष्पांजलि की बात
सह नहीं पाता शरीर फुलों का आघात
लाद देते हो इतने-इतने फूल
कि होने लगती है घुटन
ठीक से नहीं ले पाता सांस
शायद तुम्हें मेरी बातों पर न हो विश्वास
(विश्वास कभी करोगे भी नहीं)
आकर ध्यान से देखो मुझे एक बार
कभी हुआ करता था मैं प्राणवान साकार
अब पूरी तरह हो गया हूं पाषाण
मुझसे निकल गया है मेरा भगवान।
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(दो)
मन
चाहता है नाप लें पूरे गगन को
फिर थोड़ी देर में थक जाता है
कभी करने लगता किसी से बेशुमार प्रेम
कभी घृणा से भर उठता है
जिस द्वार से दुत्कार कर भगाया जाता है
उसकी देहरी पर नाक रगड़ता है बार-बार
कैसे कहा जाए कि यह मजबूत है
सच है कितना मजबूर है!
नाचता रहता है परिस्थितियों की लय-ताल पर
मन सचमुच नटवर है, मन पक्षी है
उछल-कूद करता है डाल-डाल पर
जरूरी है कि रखा जाए इसे संभाल कर
कहते हैं विज्ञजन-
मन के हारे हार है मन के जीते जीत
पर मन करता है हमें बार-बार भयभीत
क्यों मन का नहीं होने पर
होती है तकलीफ
मन इतना नटखट है कि
सुनता भी नहीं कभी सीख
मन जीवन के चलचित्र का निर्देशक है
जो किसी को हीरो, किसी को विलेन बनाता है।
कोई ज्ञानी भी इसकी पटकथा समझ नहीं पाता है।
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(तीन)
बोल
कितने अनमोल हैं वे बोल
जो बोले गये सदियों पूर्व
पर जीवित हैं आज भी
कल भी जीवित रहेंगे
जब तक धरा रहेगी
गुंजते रहेंगे एक कान से
दूसरे कान तक
घोलते रहेंगे अमृत
दिखलाते रहेंगे रास्ता
बंधाते रहेंगे ढाढ़स
टुटने नहीं देंगे धैर्य
वे कैसे उदार लोग थे
जिन्हें छू नहीं पाई यश-लिप्सा
अपना लघु नाम तक नहीं जोड़ा
अपने अनमोल पदों में कहीं भी
सदियों पूर्व कुछ कहकर चले गए
हम सुनते-सुनाते रहेंगे सदियों तक
सच पूछो तो ऐसी रचनाएं ही
कालजयी होती हैं जो
युगों-युगों तक जलती रहती हैं मशाल की तरह
रचना जब अतिक्रमण कर जाती है रचयिता का
और करने लगती है लोक-जिह्वा की सवारी
तब वह सुरसरि बन जाती है
कवि और कविता में कोई भेद नहीं रह जाता।
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(चार)
जीवंत जीवन
जन्म और मृत्यु के दो छोरों तक
नहीं सिमटा होता है जीवन
पिता के नाम से जाना जाता है पुत्र
और पुत्र के नाम से भी कभी-कभी
पहचाने जाते हैं पिता-पितामह
कभी-कभी जीवन लांघ जाता है
सदियों का अछोर विस्तार
जीवन का अर्थ शतायु होना नहीं है
यह तो बंध जाना है सीमाओं में
जीवन तब सफल होता है
जब कर देता है मृत्यु का अतिक्रमण
असंख्य लोग आते हैं दुनिया में
अपना जीवन जी कर चले जाते हैं
सच है ऐसे लोग मर जाते हैं
जब भी कोई किसी के जाने के बाद
करे पूरी शिद्दत से याद
और यह याद ला सके
किसी की आंखों में आंसू
आप फिर से जी उठते हैं
यकीन मानिए इस नश्वर काया के
नष्ट हो जाने के बाद मनुष्य
जीवित रहता है अपने विचारों में
ऐसे लोग झुठला देते हैं
मनुष्य के मरणशील होने का मुहावरा।
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(पांच)
अपना ख्याल रखिएगा
बहुत अजीब लगता है
तब और भी जब अपने कहते हैं-
अपना ख्याल रखिएगा।
अक्सर मोबाइल पर आधुनिक बच्चे
यह सलाह देना नहीं भूलते
जो वर्षों से प्रवास पर होते हैं
जिनकी प्रतीक्षा में पथरा जाती हैं
मां-पिता की व्याकुल आंखें
प्रेमिकाओं की मजबूरी
फिर भी समझ में आती है
पर क्या कहूं पत्नियों के बारे में
जो अपना फर्ज निभाने में नहीं चूकतीं-
अपना ख्याल रखिएगा
बहुत आसान है कहना- ख्याल रखिएगा
पर कितना कठिन है अपना ख्याल रखना
अपनों के दूर रहने पर
केवल अपने ही ख्याल आते हैं
आदमी अपना ख्याल नहीं रख पाता
जिंदगी इतनी औपचारिक हो जाएगी-
इसका हरगिज अनुमान नहीं था
इतने भावशून्य होते हैं रिश्ते!
इतने गणितीय होते हैं संबंध!
मानो दो पक्षों के बीच हो कोई अनुबंध
अगर सेवा-शर्तों में हुई थोड़ी सी चूक
टूट जायेंगे सारे बंधन अटूट
नेह-नाता में भी नहीं रही मिठास
कैसा समय का यह क्रूर अट्टहास
रिश्तों ने इस तरह छला है कि-
विश्वास पक्का हो चला है
अपना ख्याल रखने में ही भला है।
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(छह)
चश्मा ललाट पर मत चढ़ाइएगा
वह बच्चा ही है जो
सफेद को सफेद और स्याह को स्याह कहता है
बचकानी हरकत
किसी मूर्ख का गढ़ा हुआ मुहावरा है
उम्र और अनुभव के बढ़ने के साथ-साथ
नज़रें कमजोर हो जाती हैं
कमजोर नजरें बहुत गुनहगार होती हैं
बदल देती हैं नजरिया
जरूरी है कि समय-समय पर
नज़रों की जांच कराई जाएं
हो सकता है नजदीकी ठीक हो
मगर दूरी दुरुस्त नहीं हो
कहीं सीढ़ियों से मंजिल पहुंचने के बजाय
पहुंच न जाएं अस्पताल
यह भी तो हो सकता है कि
आप हों वर्णांधता के शिकार
हालांकि मैं नजर का डॉक्टर नहीं हूं
और न ही मांग रहा हूं कोई नजराना
एक नेक सलाह पर गौर फरमाइएगा
चश्मे को ललाट पर मत लटकाएगा।
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