न जाने कितनी आत्मजनित
भावनाओं का कौमार्य भंग हुआ
जब स्वतंत्रता दी मैंने
शब्दों को उन्हें छूने की
केवल तुम्हारे लिए!
अच्छा होता कि
अंतस् से लिपटी
मौन पड़ी रहती चिरकाल तक
जैसे अविवाहित कन्या
माँ के आँचल से लिपटी
पिता के घर की चौखट के भीतर!
किंतु शब्दों की भीड़
चेष्टा करती रहेगी,
अनुचित स्पर्श करने की
अब उन भावनाओं को
और उन्हें पीहर से बाज़ार तक
ले आने के दोषी होगे तुम
मैं कैसे दिखाऊँ
अपनी पीड़ा का रसातल
कौमार्य भंग हुआ
किंतु भावनाओं को
नहीं मिला स्नेहसिक्त आत्मालिंगन
और ना मिली इस दासी को
स्नेह वारने की अनुमति ही!
किंतु मेरी विवशता देखो
मैं तुम्हें कोस भी नहीं सकती
और इस तरह मैं जान सकी
कि प्रेम में
अन्याय सहना
कितना पवित्र हो सकता है।
2.
दो साल की थी
जब पहली बार
माँ पिताजी
गाँव ले गए
ऑंगन में दाखिल हुए
तो तुलसी चौरे पर
जल रही अगरबत्ती की सुगंध ने स्वागत किया
बड़ी माँ कुल देवी देव की पूजा में मग्न
हर्ष से खिला मुखमंडल ऐसा
की ऑंखे आईना
और दॉंत तो कोई भी गिन ले
ये हर्ष हमारे आगमन का था
इस प्रकार का हर्ष अब समाज से
विलुप्त हो चुका है
कहीं गाहे बगाहे दिखे
तो इसे दुर्लभ मान
संवेदनाओं के संग्रहालय में
रख देना चाहिए
कि आने वाली पीढ़ियॉं
दर्शन कर
कदाचित अपने मन मंदिर में
पुन: इसकी प्राण प्रतिष्ठा करने पर
विचार कर सकें
बड़ी माँ द्वारा पूजा में लगे भोग के
प्रसाद में परिवर्तित हो जाने पर
मेरे हाथ में रखा था एक लड्डू
प्रसाद का…
तब से लेकर आजतक
न जाने
कितने हलवाइयों से कर चुकी हूँ प्रार्थनाऍं
बाज़ार बाज़ार भटकी
छान मारी अनगिनत मिठाइयों की दुकानें
नहीं मिला मुझे वो लड्डू दुबारा
कदाचित बड़ी माँ बताना भूल गईं
वो प्रसाद का लड्डू था इसलिए
या बड़ी माँ का वात्सल्य घुला था इसलिए
या फिर वो इस पृथ्वी एकलौता लड्डू था जिसके सारे संबंधी किसी की जीभ और आत्मा तृप्त करने को
आपने प्राणों की आहुुति दे चुके थे
इसलिए नहीं मिला दुबारा
उस हर्ष से खिले मुखमंडल की तरह।
3.
न जाने कितने बुत
बुत बने
बनते रहे वो
जो निर्धारित किया गया
मानवीय मायाजाल में
सुनिश्चित करने को
कि कुछ
अहंकार पोषित होते रहें
ढका रहे चेहरा क्रूरता का
सभ्यताओं के नाम पर बनी
आरामपरस्त नियमावलियों से
कि उम्मीदों, आशाओं के नाम
भेंट चढ़ते रहें
मौलिक अधिकार
संबंधों की जंजीरों में
फड़फड़ाती रहे
उड़ सकने की क्षमताऍं
और झूलता रहा अस्तित्व
मुस्कराते बुतों के सलीबों से
प्रयाण की प्रतीक्षा में
पीड़ित प्रतिपल।