बरेली (उ.प्र.) में जन्मे, बरेली में पढ़े-लिखे और बदायूँ में शिक्षक रहे मधुरेश (जन्म-10.01.1939) का मूल नाम रामप्रकाश शंखधर है. मधुरेश की पहचान मुख्यतः कथा-समीक्षक के रूप में है. ‘हिन्दी कहानी : अस्मिता की तलाश’, ‘नई कहानी : पुनर्विचार’, ‘आज की हिन्दी कहानी : विचार और प्रतिक्रिया’, ‘सिलसिला : समकालीन कहानी की पहचान’, ‘देवकीनन्दन खत्री’, ‘सम्प्रति : समकालीन हिन्दी उपन्यास में संवेदना और सरोकार’, ‘रांगेय राघव’, ‘राहुल का कथा-कर्म’, ‘हिन्दी कहानी का विकास’, ‘हिन्दी उपन्यास का विकास’, ‘नई कहानी : पुनर्विचार’, ‘अमृतलाल नागर : व्यक्तित्व और रचना संसार’, ‘भैरव प्रसाद गुप्त’, ‘मार्क्सवादी आलोचना और शिवदान सिंह चौहान’, ‘दिव्या का महत्त्व’, ‘हिन्दी उपन्यास : सार्थक की पहचान’, ‘कहानीकार जैनेन्द्र कुमार : पुनर्विचार’, ‘हिन्दी आलोचना का विकास’, ‘यशपाल के उपन्यास’, ‘यशपाल : रचनात्मक पुनर्वास की एक कोशिश’, ‘आलोचना : प्रतिवाद की संस्कृति’, ‘समय, समाज और उपन्यास’, ‘स्त्री की दुनिया’, ‘ऐतिहासिक उपन्यास : इतिहास और इतिहास-दृष्टि’, ‘राधेश्याम कथावाचक’, ‘मार्क्सवादी जीवन-दृष्टि और रांगेय राघव’, ‘आलोचक का आकाश’, ‘मैं और वे’, ‘होना भीष्म साहनी का’, ‘काले दौर में एक चेतावनी की तरह’, ‘संवाद और सहकार’, ‘आलोचना का संकट’, ‘अमरकान्त, (मोनोग्राफ)’, ‘ये इश्क नहीं आसाँ’ (साक्षात्कार), ‘उपन्यास सीढ़ियों पर’, ‘ मेरे अपने रामविलास’ आदि मधुरेश की आलोचनात्मक पुस्तकें हैं.
इनके अलावा ‘यशपाल के पत्र’, ‘क्रान्तिकारी यशपाल : एक समर्पित व्यक्तित्व’, ‘मैला आँचल का महत्त्व’ ,’यशपाल रचना संचयन’, ‘बाणभट्ट की आत्मकथा : पाठ और पुर्नपाठ’, ‘मार्क्सवादी आलोचना और फणीश्वर नाथ रेणु’ , ‘रजिया सुल्तान बेगम उर्फ रंगमहल में हलाहल : किशोरीलाल गोस्वामी’, ‘जुझार तेजा : लज्जाराम मेहता’, ‘अश्क के पत्र’, ‘मल्लिका देवी वा बंग सरोजिनी’, ‘माधव- माधवी वा मदन -मोहिनी’, ‘चित्रलेखा का महत्व’, ‘रागदरबारी का महत्व’ आदि का उन्होंने संपादन किया है. जाहिर है, कथा-समीक्षा पर इतना प्रचुर लेखन कम लोगों ने किया है.
यद्यपि मधुरेश ने कहानी एवं उपन्यास दोनों की आलोचना में पर्याप्त श्रम किया है, फिर भी कहानी-समीक्षक के रूप में उनकी पहचान अधिक है. साधना अग्रवाल के एक प्रश्न के जवाब में उन्होंने जो कहा है उससे उनकी कथा-समीक्षा की तकनीक और वैचारिक दृष्टि का पता चलता है. वे कहते हैं, “हवाई और सैद्धांतिक आलोचना के दौर में भी मेरी भरसक यही कोशिश रही कि आलोचना लेखकों और कृतियों पर केन्द्रित हो. मैंने देवकीनंदन खत्री, राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, रांगेय राघव, अमृतलाल नागर, भैरव प्रसाद गुप्त आदि पर पुस्तकें और मोनोग्राफ लिखे हैं. ‘नयी कहानी : पुनर्विचार’ में भी नई कहानी आन्दोलन के दौर के सोलह लेखकों पर समग्रता में विचार करने की कोशिश की गई है. मुझे इस बात का संतोष है कि अपने विचारों से बाहर के अनेक लेखकों पर मैंने विस्तार से लिखा है. इसका नया उदाहरण जैनेन्द्र की कहानियों पर मेरी किताब है. आपकी यह बात शायद ठीक है कि मैंने आलोचना के व्यावहारिक पक्ष पर ही अधिक लिखा है. हिन्दी में जनवादी आलोचना के दौर में घोर सैद्धांतिक लेखन हुआ और बाद में पूर्वग्रह घराने के लेखकों ने विचार को लगभग आलोचना से निष्कासित करके साहित्य में स्वायत्तता के नाम पर निर्जन, वीरान टापू बसाने की कोशिश की. मेरा मानना है कि सिद्धांत रचना में ही अर्जित और विकसित होने चाहिए. पूर्वग्रह घराने के लोग आलोचना को जब विचारों का उपनिवेश बनाने की प्रवृति का विरोध करते हैं तो वे वस्तुत: समय के वैचारिक दबावों से रचना को अलग और ऊपर रखने की ही वकालत करते हैं. रचना के मूल्यांकन का यह अवैज्ञानिक और अतार्किक रूप है. अपने समय के प्रति सच्ची रचना ही आगे आने वाले समय में भी पुनर्पाठ की संभावनाएं जगाती हैं. किसी सैद्धांतिक समझ के अभाव में सार्थक व्यावहारिक आलोचना नहीं लिखी जा सकती. मेरी कोशिश रही है कि सिद्धांतों के किसी बाहरी जाप के बजाय व्यावहारिक आलोचना में से ही वे सिद्धांत उभर के आएँ. ऐसी आलोचना अपनी प्रकृति में अधिक ग्राह्य, विश्वसनीय और पठनीय होगी.” ( ‘मैं कहानी का होलटाइमर समीक्षक हूँ’, शीर्षक से साधना अग्रवाल की मधुरेश से बातचीत, ‘वांग्मय हिन्दी पत्रिका’, 11 मई 2008 को प्रकाशित )
उपन्यास की समीक्षा पर केन्द्रित उनकी तीन पुस्तकें ‘समय समाज और उपन्यास’, ‘ऐतिहासिक उपन्यास : इतिहास और इतिहास-दृष्टि’ तथा ‘शिनाख्त’ बहुत महत्वपूर्ण हैं. ‘ऐतिहासिक उपन्यास : इतिहास और इतिहास-दृष्टि’ में कुछ स्वतंत्र आलेखों के अलावा ‘एक म्यान में दो तलवारें’, ’आग का दरिया’, ‘पट्ट महादेवी शांतला’, ‘पर्व’, ’दुर्दम्य’, ‘दासी की दास्तान’, ‘ययाति’, ‘कई चाँद थे सरे आसमाँ’, ‘सुल्ताना रजिया बेगम’, ‘जुझार तेजा’, ‘गदर’, ‘दिव्या’, ‘मुर्दों का टीला’, ‘कालिदास’, ‘विश्वबाहु परशुराम’, तथा ‘पानीपत’ की विस्तृत समीक्षा की गई है. इसी तरह ‘शिनाख्त’ में भी लगभग पचीस प्रतिनिधि उपन्यासों की समीक्षाएं हैं. उन्होंने हिन्दी के आरंभिक उपन्यासों से लेकर ‘काशी का अस्सी’ तक की समीक्षाएं की हैं. अपनी पुस्तक ‘शिनाख्त’ के बारे में उनकी टिप्पणी है, “शिनाख्त को हिन्दी उपन्यास की शिनाख्त के साथ ही मेरी आलोचना की शिनाख्त के तौर पर भी लिया जा सकता है.”(शिनाख्त, भूमिका, पृष्ठ-8)
महान आलोचक रामविलास शर्मा ने भी मुक्तिबोध, रांगेय राघव और यशपाल पर कई बार ऐसी टिप्पणियाँ की हैं जिन पर सवाल उठते रहे हैं. मधुरेश ने उनका बड़े साहस के साथ बिना किसी संकोच के जवाब दिया है. ‘रामविलास शर्मा और यशपाल’ शीर्षक अपने लेख मे वे यहाँ तक कहते हैं कि, “यशपाल और दूसरे विरोधी लेखकों की आलोचना करते समय वह (रामविलास शर्मा) गैर-जिम्मेदार भी हैं और बदनीयत भी. गैर-जिम्मेदार इसलिए कि आधुनिक कथा- साहित्य की किसी प्रामाणिक समझ के अभाव में लेखक की रचना-प्रक्रिया और सरोकारों की एकदम उपेक्षा करते हुए स्थूल नैतिकतावादी प्रतिमानों से चीजों को नापते -तोलते हैं और मनमाने निष्कर्ष निकालते हैं. बदनीयत वे इसलिए हैं कि संदर्भों से अलग करके उद्धरण जुटाते हैं, और इस कला में वे सचमुच माहिर हैं, जिसमें लेखक के पक्ष की उपेक्षा ही नहीं करते बहुत हल्के- फुल्के ढंग से व्यंग्य की फूँक से उसे उड़ाने की भी कोशिश की जाती हैं. समान विचार बिन्दुओं वाले लेखकों की आलोचना की तो बात ही अलग है, एकदम विरोधी विचारधारा के महत्वपूर्ण लेखकों को भी इतने हल्के ढंग से नहीं नकारा जा सकता.” (www.debateonline.in ,पृष्ठ-3)
‘आलोचना सदैव एक संभावना है’ में संकलित रविभूषण का विस्तृत आलेख मधुरेश के लेखन की सामर्थ्य एवं सीमा दोनों का सुचिंतित एवं संतुलित विश्लेषण है. उक्त आलेख के अंत में रविभूषण जी का निष्कर्ष द्रष्टव्य है- “किसी भी कथालोचक की तुलना में उन्होंने कहानियों का व्यापक अध्ययन किया है. उनके लेखन से उनका श्रम झाँकता है. उनमें डगमगाहट कम है. उनकी कथालोचना को पुस्तक-समीक्षाओं ने प्रभावित किया है. वे निरन्तर सक्रिय हैं. उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती. जहाँ तक उनकी आलोचना-दृष्टि का सवाल है, वह खुली, उदार और सन्तुलित है.” (आलोचना सदैव एक संभावना है, पृष्ठ-173)
फिलहाल, मधुरेश प्रगतिशील विचारों के हैं. विवादों से प्रायः दूर रहते हुए लगभग एक साधक की तरह उन्होंने कहानियों और उपन्यासों की समीक्षा की है तथा गैर प्रगतिशील लेखकों की कृतियों का भी यथोचित सम्मान दिया है.