1. ख़तरा
उन्हें ख़तरा नहीं है भीड़ से
वे जानते हैं भीड़ को हाँकना
मनचाही दिशा में,
वे जानते हैं भीड़ को कुचलना
कीड़े-मकोड़ों की तरह।
उनके गलों में
निवाले नहीं अटकते
लाशों के ढेर देखकर।
वे पारंगत हैं
भीड़ को भावनाओं के
सैलाब में बहाकर
अपने नाम के जयकारे लगवाने में।
लेकिन डरते हैं वे
जब भीड़ इख़्तियार करने लगती है कोई चेहरा,
वे भीड़ के आदिवासी-दलित में तब्दील होने से डरते हैं
वे भीड़ के औरत में तब्दील होने से डरते हैं
वे भीड़ के मज़दूर और किसान में तब्दील होने से डरते हैं।
तभी तो वे तब्दील कर देते हैं इन चेहरों को
माओवादी में
पाकिस्तानी में
खालिस्तानी में
देशद्रोही में।
अब पहले से भी अधिक ज़रूरी है
कि हम पहचानते रहें चेहरे औरतों के, बच्चों के,
आदिवासियों और दलितों के चेहरे
किसानों और मज़दूरों के चेहरे
सच के चेहरे
इंसानियत के चेहरे
ताकि चेहरों को तब्दील न किया जा सके भीड़ में।
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2. कहा-अनकहा
कुछ आँसू
अपने सर्वाधिक प्रिय
व्यक्ति से भी छुपा लिये गये,
निविड़ अंधकार के
प्रगाढ़ क्षणों में
अधरों पर फैली
हल्की स्मित रेख के पीछे
वे कसमसाते रहे…छटपटाते रहे
अपनी नमी को पहचाने जाने की आस में।
दुःख जितने थे
कभी कहे नहीं गये
वे खाते रहे हिचकोले
मौन और शोर के बीच,
संवाद और चुप्पी के बीच
और इससे भी अधिक
उन्हें समझे जाने
और न समझे जाने की
कवायदों के बीच।
ढेरों शिकायती पत्र
तुड़े-मुड़े
फड़फड़ाते रहे
अधखुले होठों पर
करते रहे इंतज़ार अपने पढ़े जाने का
पढ़कर सुलझाये जाने का,
वे जब-जब हुए वाचाल
चुम्बनों के आवेग ने दबा दी
उनकी सरसराहट।
सिर्फ एक हँसी ही थी
जिसे उसने कभी नहीं छुपाया
बिंदुमात्र सुख पर भी
उसकी हँसी झर गई हरसिंगार की तरह
अंधकार को भेदते हुए,
इस हँसी को ही तुमने मान लिया
अपनी तमाम मुलाकातों का
कुल जमा-हासिल।
आँसुओं, शिकायतों और दुःखों को
अनावृत्त होने से बचाकर
औरत इसी तरह
अक्सर बचा लेती है
अपने होने को
अनावृत्त होने से।
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3. बस उतना ही
वह हर जगह
बस उतना ही रही
जितना उसे होना था।
बच्चों के छुटपन में
वह रही उनके साथ
चाशनी डूबे रसगुल्ले की तरह,
उनके कैशोर्य में
उसने थामा उनका हाथ
अँधेरे और उजाले के मध्य की
दहलीज़ पर खड़े रहकर,
उनकी जवानी में वह रही
चुटकी भर नमक जितनी
कि रच-बस सकें
जीवन में अन्य स्वाद।
उसकी मिठास और नमक को
प्रेमी ने जब-जहाँ किया नज़रअंदाज़
वह पानी की तरह तरल बन
बह निकली
रिश्ते में बनी तिराड़ों से
उन्हें गिराये या ढहाये बिना।
पति, माँ-बाप, बंधु-बांधवों के
जीवन में वह रही
नमकीन से कुछ अधिक
और मीठे से कुछ कम मीठा बनकर
कि न किसी को हो डायबिटीज़
और न किसी को हो रक्तचाप
हर जगह
ज़रूरत जितना ही होने के
इस अभ्यास में
वह बची रही
दुःख में घुलने
खुशी में बहकने
और अनमनेपन में क्षीण होने से।
अपनी-अपनी फुरसत में सबने सोचा
कि ऐसा संतुलन साधकर
जीवन कैसे जिया जाता है?
पर बिना सम्मान और ज़रूरत के
कहीं भी
होने से अधिक
हुआ भी तो नहीं जाता न!!
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4. होने और न होने के बीच
प्रेम में वह पहुँची
शिखर के उस कगार पर
जहाँ बस एक हलचल …और
निश्चित था गिरना
अवसाद की खाई में,
होश खोने से पहले
उसने हवा में उठा क़दम
मजबूती से ज़मीन पर टिका दिया
अब धीरे-धीरे ही सही
प्रयाण निश्चित था
जीवन की तरफ।
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होने और न होने के बीच
झूलते रिश्ते पर
कैसे संभव था बजाना
विश्वास का राग
असमंजस, बेचैनी, अकुलाहट
निराशा, पीड़ा और अवसाद ही
भर सकते थे पींगें वहाँ
अचेत होने से ठीक पहले
उसने मुक्त किया
“होने” वाले सिरे को
कि इस मुक्ति में ही संभव था
जीवन राग…
वह क्रूर ठहरायी गयी
अपने पक्ष में निर्णय लेते समय।
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मेरा होना
उसके लिए
बस उतना ही था
जितना होता है आटे में
चुटकी भर नमक का होना,
मैंने अपनी चुटकी भर उपस्थिति भी
ख़ारिज कर दी
ताकि वह ले सके स्वाद
बिना नमक के जीवन का।
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5. शब्द भर दूरी
भाषा में कठिन और चमत्कृत
कर देने वाले शब्दों को
बरतने का शऊर मुझे नहीं आया।
अगाध मजबूरी में
जब कभी लिखना पड़ा
कविता के नीचे किसी शब्द का अर्थ
तो छाया रहा मनभर बोझ
आत्मा पर,
कविता और उसके भाव के मध्य
शब्द भर दूरी की जिम्मेदारी
मुझे कचोटती रही।
ऐसा भी नहीं था
कि अलभ्य और मोहित कर देने वाले
दुर्लभ शब्दों तक
नहीं थी मेरी पहुँच
तीन-चार भाषाऍं तो
अच्छे-से जानती ही हूँ,
लेकिन मेरी कविता को कोई
खोंच-खोंच कर पढ़े
इस बात के ख्याल भर से
बोझिल होता था मन
और काँपती थी
कविता की देह भी।
भाषा ही क्यों?
स्वेटर या क्रोशिया बुनते वक्त
भले ही बनाई हो
कितनी ही महीन और अद्भुत डिजाइन
देखने वाला सहजता से हो जाता आर-पार
धागे और फंदे गिनकर।
मनुज भी वही रहे आसपास
जिनकी भाषा में
सच -झूठ और प्रेम के लिए
बस यही तीन शब्द रहे,
झूठ को सच
सच को झूठ
और स्वार्थ को प्रेम समझाने के
जादुई तरीकों से
जिनका कोई राब्ता न रहा।
तो मैंने भी कविता में कहा
आँसू को आँसू
हँसी को हँसी
प्रेम को प्रेम
सही को सही
और गलत को गलत।
एक नन्ही तुतलाती बच्ची
अभी-अभी गले लगकर गई है
मेरी कविता से
और मैंने निसार दिए हैं उसपर
अपने चोर मन से निकालकर
कुछ अप्राप्य और जटिल शब्द
जिन्हें मैं देखा-देखी बरतना चाहती थी
अपनी भाषा में।
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6. अब प्रेमी आश्वस्त हैं
प्रेमिकाओं ने
रेत पर लिखे
अपने प्रेमियों के नाम,
प्रेमी निश्चिंत थे
कि लहरे बहा ले जायेंगी उन नामों को,
और वे किसी की नज़र में आए बिना भी
दर्ज रहेंगे
एक अनामी खुशबू की तरह
प्रेमिकाओं के गेसुओं में।
अच्छा ही हुआ
कि ख़त लिखने की कला
लुप्त होती गई बदलते वक्त के साथ
कि लिखे हुए ख़त
रुसवाई का जीता-जागता दस्तावेज थे,
अब प्रेमी घण्टों बतियाते थे
प्रेमिकाओं से मोबाइल संदेशों में
वे आश्वस्त थे कि
एंड टू एंड एन्क्रिप्शन की टैक्नोलॉजी वाले
इस समय में वे
डिलीट का एक बटन दबाते ही
सुरक्षित और अदृश्य थे।
प्रेमियों ने दूर जाते वक्त
प्रेमिकाओं को समझाया
जमाने भर को बताया
प्रेम का दुश्मन,
प्रेमिकाओं ने नहीं तलाशा
कोई अतिरिक्त कंधा
जहाँ सिर रखकर रोया जा सके
कुछ राज साझा किए जा सकें
वे पक्की सहेलियों तक से कतराती रहीं
प्रेमी निश्चिंत थे
कि सुरक्षा की बाजी उनके ही हाथों में हैं।
प्रेमिकाएँ नहीं मिलीं
अपने प्रेमियों से
बगीचों में
सिनेमाघरों में
भीड़भाड़ भरे इलाकों में
जहाँ टकराते हों परिचित चेहरे
वे सदैव मिलीं उनसे
दूर-अजनबी जगहों पर
अपरिचित चेहरों में।
प्रेमी आश्वस्त हैं
कि उनका नाम कहीं दर्ज नहीं है
दस्तावेज बनकर
न रेत पर, न पानी पर
न फूल पर न कागज पर,
न मौन में, न फोन में।
प्रेमी इस तरह
खुद को बचाते हुए
प्रेम की कसमें खाते हुए
अपनी सुविधा से
आते-जाते रहते हैं
प्रेमिकाओं की ज़िंदगी में।
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7. बीते दिनों की बात
वादे किये जाते रहे
और तोड़े जाते रहे
दो पूरक क्रियाओं की तरह।
कुछ वादे
जो निभाये गये
उन वादों की देह छलनी रही
निभाये जाने की
विवशताओं के नुकीले तूणीर से
वादे प्रतीक्षारत रहे जीवन भर
करने, तोड़ने, जोड़ने, और निभाने की
कशमकश के बीच
सिर्फ और सिर्फ जिये जाने के लिए।
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8. पानी की बात
जल सूख रहा है
मिट्टी के सकोरों में,
चोंच भर पानी के लिए
चिड़िया भरती है लंबी उड़ान।
सुंदर और आलीशान घरों के बाहर
नहीं दिखते
पानी भरे आधे टूटे मटके और नाँद,
कुत्ता-बिल्ली, गाय-बकरी
भटकते हैं दूर तक
मुँह भर पानी की तलाश में।
गाँव के सीवान पर
धूप से तपती, चिलचिलाती राह पर
ओक भर पानी की प्यास लिए
पथिक ढूँढता रहता है
शीतल जल से भरे मटके और गुड़ की डली।
ताल-तलैया, कुएँ-बावड़ी
रूठे-रूठे
सिमटे-सिमटे
उतर गए हैं गहरे और गहरे
स्त्रियाँ चलती हैं मीलों
मटका भर पानी की तलाश में।
मंदिर और मस्जिद में भी
अब पानी पिलाने से पहले
पूछी जाती है जात।
अब जब चल ही रही है पानी की बात
तो सोचती हूँ कि
पानी हो रहा है कम हर जगह,
“आँखों का पानी” तो जैसे
किसी बीती सदी की बात हुई
और अब कोई नहीं तलाशता
“चुल्लू भर पानी” भी
डूब मरने के लिए।
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9. जीवन की कलाइयों पर तितली के रंग
कुछ खास काम नहीं था बगीचे में
बस कुछ सूखे पत्ते और
आधे मुरझाये फूल तोड़ कर फेंके
कहीं से घास उखाड़ी
कुछ गमलों में गुड़ाई की
और चली आयी घर में।
कलाई के आस-पास
एक हल्के से स्पर्श से चिहुँक उठी
एक तितली चली आयी थी संग-संग
कर रही थी चहलकदमी बेहद इत्मिनान से
कभी कलाई, कभी हथेली तो कभी उँगलियों पर
गरहोती कोई चिड़िया या बिल्ली
होता कोई कबूतर, खरगोश या कुत्ता
तो मैं साहस कर प्यार से छूती, सहलाती
उसे पानी पिलाती
मनपसंद भोजन भी खिलाती
पर तितली को तो सिर्फ चकित हो
देखा जा सकता था
गर छूलेती उसे
तो छूट जाते उसके रंग मेरी कलाई पर।
यूँ तो उसका उड़े बिना इस तरह
हाथ पर चहलकदमी करना भी
किसी जटिल कविता को समझने जैसा था
वो पता नहीं किस भ्रम में आयी होगी
पर मुझे तो उसके उड़ जाने में कोई भ्रम नहीं था।
बहरहाल मैं अपने हाथ को फिर ले गयी बगीचे में
रखा उसे नाजुक हरी पत्तियों
और फूलों के बीच
और आँख बंद कर किया इन्तजार
उसके वापिस किसी फूल पर चले जाने का।
उसके इस तरह आने और जानेके बीच
झमके थे रंग
प्रेम ने उघाड़े थे पट
सूखे मन पर हुई थी एक नम दस्तक
कहीं छलोछल भरे नीर में
पट से उछल कर गिरा था जैसे कोई कंकड़
और छलक गया था नीर आँखों के किनारों तक।
कुछ तितलियाँ ऐसे ही छोड़ जाती हैंरंग
बिन छुए ही
जीवन की कलाइयों पर ।
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10. टोकरियाँ
वक़्त के सफ़हों को
बस थोड़ा-सा पलटते ही
दिखायी देते हैं
अनुभव की लकीरों को समेटे हुए
कुछ नर्म और ऊष्मा भरे, परिपक्व हाथ
मूँज और सवाई घास में उलझे हुए
दादियों और नानियों के हाथ।
चार घड़ी, सखियों संग हँसते-बतियाते वक़्त
इन्ही हाथों ने बुनी थीं
हुनर, प्रेम और ज़रूरत के
रंगों में रची-पगी
छोटी-बड़ी टोकरियाँ और डलियाँ।
अपनी किसी पुरानी सूती साड़ी के
एक टुकड़े को इसमें बिछाकर
चूल्हे से उतरती नर्म-फूली रोटियाँ
जब दादी धप्प से डालती टोकरी में
तो रोटी से निकलती भाप
समो जाती घास में
जैसे समो जाता है दुःख मन में
और फाँस तन में।
ये घास की टोकरियाँ ही थीं
जो घण्टो बीतने के बाद भी
अन्न को सहेजे रहीं
उसके सबसे स्वादिष्ट और नर्म रूप में,
यहाँ तक कि
भाप या गर्मी से
कभी नहीं पसीजी
सबसे नीचे रखी गयी
कुत्ते और गाय की रोटी भी,
बेटियों की बिदाई में
बहुओं की मुँह-दिखाई में
ये गर्व से सँभाले रहीं लड्डू-खस्ता का मान,
ये दादी-नानी का प्यार बनकर
करती रहीं यात्रा देश-विदेश की।
वक़्त के साथ-साथ
इन टोकरियों की चमक
फीकी पड़ती गयी
अब स्टील के कटोरदान
या आकर्षक कैसेरोल की तरह
इन्हें धोना-सुखाना तो संभव था नहीं,
इन्हें दरकार थी
ठीक से सहेजे जाने की
वक़्त-बेवक़्त धूप लगाकर
परंपरा के इन तागों को
नमी और सीलन से बचाने की।
बहरहाल पहले ये रसोईघर से की गयीं बेदख़ल
फिर घर के दूसरे कमरों से होते-होते
बाग़-बग़ीचों की शोभा बढ़ाने लगीं
और अंतत: बारिश के किसी नम दिन
ये मिट्टी से सनी, सीलन भरी
फेंक दी गयीं कचरे के ढेर में।
इन टोकरियों ने सिर्फ़ रोटियाँ नहीं सहेजी थीं
इन्होंने सहेजी थी घर भर की भूख
ये गवाह थीं
न जाने कितनी ही खुशियों और ग़म की,
चूल्हे की आँच के साथ-साथ
ये कुछ और पकी थीं
रिश्तों की तपिश में,
छलके बिना भी भरे रहने का हुनर था इनमें,
मोतीचूर से भी अधिक मीठी
कुछ पोपली मुस्कानें बंद थीं इनमें
कचरे के ढेर पर भी वे कहाँ थीं अकेली?
वे सहेज कर ले गयीं अपने साथ
एक भरी-पूरी विरासत।
टोकरियों का बेदख़ल होना
सिर्फ मूँज और सवाई घास का निष्कासन नहीं था
ये निष्कासन था जीवन-संबंधो का,
बेदख़ल हुआ दादी-नानी का हुनर
बेदख़ल हुए ऊष्मा भरे प्रेमिलहाथ
बेदख़ल हुआजीवन का प्रकृति से नाता
और घर की दहलीज़ पर
दम तोड़ा संस्कारों ने।
सिर्फ प्रेम के मोल मिलती
इन अनमोल टोकरियों को
अब बाज़ार ने
कुछ चमकाकर
नया रंग-रूप चढ़ाकर
काँच के शो-केस में सजाया है
उनके नीचे बाकायदा
हस्तनिर्मित “विरासत” का टैग लगाया है
और हम नयी पीढ़ी के नये लोग
अब खरीदते हैं मँहगे दामों में
अपनी अनमोल विरासत ऑनलाइन।
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