“आपका चले जाना इस दुनिया के लिए होगा, लेखन संसार और मेरे लिए कतई भी नहीं!”
18 नवंबर, 2020 को मैं इंटरनेट और टीवी की दुनिया से बाहर था। उसी शाम बिहार से डॉ. संजय पंकज जी का फोन आता है – “अखिलेश जी, मृदुला जी के बारे में पता चला ? ……….. मृदुला जी नहीं रहीं।” अवाक रह गया। ऐसा लगा जैसे कुछ सुना ही नहीं। विश्वास ही नहीं हुआ। दुबारा पूछा। फिर वहीं उत्तर। असल में संजय पंकज जी से पिछले ही दिनों मृदुला सिन्हा जी के एक-एक उपन्यासों पर आलोचनात्मक पुस्तक सम्पादन के सिलसिले में बात हुई थी। सम्पादन प्रक्रिया में चल रही ‘सीता पुनि बोली’ और ‘ज्यों मेहंदी को रंग’ पर आलोचनात्मक पुस्तक के लिए संजय पंकज जी से आलेख भेजने का आग्रह भी किया ही था। मृदुला जी के उपन्यासों पर आलोचनात्मक पुस्तक योजना को लेकर प्रथम संवाद उनसे ही हुआ था। इसलिए वे भी सन्न थे और इधर मैं भी।
मन नहीं माना। दिल्ली फोन किया। मृदुला जी के निजी सहायक प्रमोद मौर्य जी और पाँचवाँ स्तंभ के सह-संपादक श्री संजय मिश्र जी से बात हुई। खबर जो आनी थी, वही आई। अजमेर डॉ. बद्रीप्रसाद पंचोली जी से बात हुई। जयपुर प्रो. नन्द किशोर पाण्डेय जी से। कई मित्र-परिचितों के फोन आए। अपने फोन का इंटरनेट डाटा ऑन किया। व्हाट्सप खोला। फेसबुक चेक किया। इसी खबर से मैसेज भरे हुए। जो जानते थे, उनके व्यक्तिगत मैसेज भी। रिप्लाई नहीं दे पा रहा था। पढ़कर छोड़ दिये सभी मैसेज। मन नहीं लग रहा था। दीपावली पर घर ही था। घर पर मैम को सभी जानते हैं। घर पर सभी को बताया। सभी चुप्प। मेरी पत्नी को उनकी सीख याद आने लगीं। इसी वर्ष मार्च के महीने में लॉकडाउन से पहले मृदुला सिन्हा जी अजमेर आईं थीं, तब ही तो भेंट हुई थीं।
दीपावली को ही फोन किया था तो उनके निजी सहायक प्रमोद मौर्य जी से बात हुई। उन्होने बताया कि मैम को अटैक आया है और हॉस्पिटल में एडमिट हैं। लग रहा था कि मैम जल्दी ही स्वस्थ होकर घर आएंगी। यह सोचा ही नहीं था। सोचा तो अभी तक भी नहीं जा रहा है – “आप इस दुनिया के लिए भले ही चली गईं, पर लेखन संसार और मेरे लिए कतई भी नहीं!”
मृदुला सिन्हा जी ने जो रचनात्मक साहित्य लिखा, वह पर्याप्त है। बस, उसका मूल्यांकन होना शेष है। समय वह भी करवाएगा। आज मृदुला सिन्हा जी का जन्मदिन है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के कई कई-कई कोनों से परिचित होना अब समय की माँग भी है। जो शनै-शनै पूरी होगी।
मृदुला सिन्हा जी का जीवन अपने-आप में एक प्रेरणापुंज है, समाज, साहित्य और राजनीति के लिए। उनका जीवन अपने गाँव की पगडंडी से शुरू होकर गोवा के राजभवन तक पहुँचा था। मृदुला जी गोवा के राज्यपाल का संवैधानिक पद का कार्यकाल पूर्णकर नई दिल्ली में अपने आवास पर स्वतंत्र लेखन कर रही थीं। मृदुला सिन्हा का उर्जावान सकारात्मक जीवन और संवेदनशील व्यक्तित्व अपने जन्म एवं बाल्यकाल में मिले पारिवारिक संस्कारों और वातावरण-परिवेश की देन है। जो धीरे-धीरे इतना विशाल और व्यापक रूप धर लेता है कि उसमें उनका समूचा चिंतन-धरातल प्रतिबिंबित हो उठता है। मृदुला जी जन्म से ही संवेदनशील व्यक्तित्व की धनी रहीं। अपने गाँव, घर, पास-पड़ोस में घटी छोटी-मोटी घटनाओं का उनके दिल-दिमाग पर इतना गहरा असर हुआ कि उनकी लेखनी के बोल चल पड़े। इसी अनवरत लेखनी के चलते रहने से उनका कृतित्व इतना विशाल-व्यापक और चिंतनशील हो गया कि आज समकालीन हिन्दी कथा लेखन में प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में उनका नाम जाना-पहचाना जाता है। मृदुला जी अपने व्यक्तित्व के विकास को सामाजिक और राजनीतिक कार्यों के साथ-साथ साहित्यिक सरोकारों के साथ जोड़ती हैं। इसीलिए आज उनकी पहचान साहित्य, समाज और राजनीति – तीनों स्तर पर शिखर रूप में है।
मृदुला जी का कृतित्व इनके व्यक्तित्व से निर्मित होता रहा है, जबकि कृतित्व से इनके व्यक्तित्व की पहचान हुई है। इन पंक्तियों का लेखक भी इनके कृतित्व से ही इनके व्यक्तित्व का श्रद्धाभाजन बना है। इनके कृतित्व से समाज और साहित्य में इनका अवदान रेखांकित हुआ है, भारतीय नारी का चरित्र साहित्यिक स्तर पर पुन: स्थापित-व्याख्यायित हुआ है। मृदुला जी अपने सामाजिक और राजनीतिक कार्यों के कारण समाज सेविका और राजनेत्री के रूप में तो प्रतिष्ठित हुईं, साथ ही भारतीय लोक संस्कृति और राष्ट्रवादी साहित्य रचना के माध्यम से एक भारतीय मनीषी साहित्यकार के रूप में भी प्रतिष्ठित। एक और मृदुला जी भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को मानवता, सहृदयता और उदात्तता की भावभूमि पर प्रतिष्ठित करने के लिए तत्पर दिखाई देती हैं, वहीं भारतवर्ष की विभिन्न लोक-संस्कृतियों को बचाने-स्थापित करने के लिए साहित्य, समाज और राजनीति-तीनों स्तरों पर सक्रिय रूप से प्रयासरत और सर्जनरत भी। लोक जीवन के प्रति गहरी अभिरुचि-संस्कार और सरोकार जताते हुए भारतवर्ष को अपनी परंपरा, विचार और मान्यताओं के अनुरूप संचालित करने वाले आदर्शों और प्रेरणास्पद मार्गों के निर्माण हेतु मृदुला जी एक लेखिका के रूप में सतत सर्जनरत रहीं।
भारतवर्ष की आत्मा गाँवों में बसती है। इस आधार पर मृदुला जी का मन, वचन एवं कर्म ग्राम्य जीवन के प्रति न्योछावर रहा। मृदुला जी का समकालीन समय में भारत के गाँवों, विशेषकर बिहार के गाँवों से जुड़कर साहित्य रचना करना इनकी एक अलग और न्यारी विशेषता है। वे कहती भी हैं – “मैं लोकगीतों, लोकोक्तियों, लोक कहावतों में ही सोचती हूँ। मानव मन, उसकी विशेषताओं, हास-परिहास, संस्कार और व्यथा को समझने के लिए लोकसाहित्य के ही पन्ने पलटती हूँ।” ऐसी लोक रागात्मकता भारत की राष्ट्रीय एकता में बाधक न होकर साधक है, ‘अनेकता में एकता’ वाली हमारी राष्ट्रीय विशेषता को पुष्ट करने वाली भावना है जिस पर प्रत्येक भारतीय को गौरवान्वित होना चाहिए।
संवेदनशील हृदय की लेखिका मृदुला सिन्हा का जन्म बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के छपरा गाँव में 27 नवंबर 1942 ई. को हुआ। इनके पिता स्वर्गीय छबीला सिंह एक योग्य व कर्मठ शिक्षक थे। वे बड़े सहज-सरल मन के व्यक्ति थे। माता स्वर्गीया अनूपा देवी धार्मिक प्रकृति की नारी थीं। पिता स्व. छबीला सिंह जी के सहज सरल व्यक्तित्व की छाप मृदुला जी के व्यक्तित्व पर स्पष्ट अंकित हुई, तो माता स्व. अनूपा देवी की धार्मिक प्रवृति की झलक इनके व्यक्तित्व का एक अटूट हिस्सा बनीं। अपनी माता से इन्होंने प्रभाती के बोल सुने। गाँव की बोली में बचपन में ही रामायण की पंक्तियाँ सुनी-गुनी। गाँव के लोक गीत अपनी माँ, पास-पडौस की काकी-चाचियों से सुने। जो आगे चलकर इनकी जुबान पर रच गये। कंठस्थ हो गए। घर-परिवार और गाँव के बड़े-बूढ़ों के मुहँ से सुनी-सीखी कहावतें-लोकोक्तियाँ इनके चिंतन का आधार बनीं।
गाँव की पगडंडी से इन्होंने अपना जीवन प्रारंभ किया। गाँव के गली मौहल्लों, खेत-खलियानों की छाँव में बचपन गुजरा। एक ओर घर-परिवार के स्नेह-संस्कारों ने इनके मन को भावुक और संवेदनशील बनाया तो पिता की शिक्षा के प्रति जागरूकता ने पठनशील। अपने घर और गाँव के संस्कारों ने इनके लिए जहाँ संस्कारवान उर्वरक भूमि तैयार की वहीं बचपन में मिली शिक्षा ने इन्हें एक शिक्षिका और लेखिका के रूप में गढ़ा।
शुरुआत में इन्होंने अपने पिता की साइकिल पर बैठकर स्कूल जाना सीखा। अपनी प्रारंभिक शिक्षा बालिका विद्यापीठ, लखीसराय(बिहार) से छात्रावासीय जीवन के रूप में आरंभ की। इसके उपरांत इन्होंने एम.ए.(मनोविज्ञान) की परीक्षा बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर से प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। और यहीं से बी.एड. की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण कर शिक्षिका बनने का रास्ता खोला। उस समय उनकी उक्त पढ़ाई का यह स्तर अपने आप में एक मिशाल के रूप में है। जिससे उन्होंने अपना एक प्राध्यापक से लेकर संस्थापक प्राचार्या तक का रास्ता अख्तियार किया। मृदुला जी की नियमित पढाई का अंतिम शैक्षिणिक संस्थान बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर रहा।
तत्कालीन परिवेश और रीति-रिवाजानुसार मृदुला जी की शादी मात्र सत्रह वर्ष की उम्र में सन 1959 ई. में अंग्रेजी भाषा के विद्वान एवं विश्वविद्यालय व्याख्याता डॉ. रामकृपाल सिन्हा से हो गई। शादी के बाद इन्होंने अपना गृहिणी धर्म निभाते हुए अपने परिवार को संभाला-सँवारा। एक भारतीय स्त्री-पत्नी का फर्ज निभाते हुए मातृत्व धारण किया। धार्मिक प्रवृत्ति और अपने घर से मिले संस्कारों से अपनी संतति को संस्कारवान बनाया। जिस तरह मृदुला जी ने अपने पिताजी द्वारा स्कूल का मुहँ देखा था, शिक्षा का पहला पाठ सीखा था। ठीक उसी तरह अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए मृदुला जी ने अपनी संतानों को न केवल शिक्षित किया; वरन संस्कारवान बनाया। वर्तमान में सिन्हा दंपति के दो पुत्र – श्री नवीन सिन्हा, श्री प्रवीण सिन्हा, एक पुत्री – श्रीमती मीनाक्षी सिन्हा, दो पोत्रियाँ और दो पौत्र हैं। इनके एक पुत्र – श्री प्रवीण सिन्हा और पुत्री – श्रीमती मीनाक्षी सिन्हा अपने-अपने परिवार के साथ अमेरिका में रहते हैं और एक पुत्र – श्री नवीन सिन्हा नई दिल्ली में भाजपा कार्यालय में सक्रिय प्रभार संभाल रहे हैं। श्री नवीन सिन्हा की धर्मपत्नी और मृदुला जी की पुत्रवधु श्रीमती संगीता सिन्हा नई दिल्ली से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘पाँचवाँ स्तंभ’ की संपादक हैं।
अपने पति की सेवानिवृत्ति से पहले तक मृदुला जी बिहार में रहीं। और जब डॉ. रामकृपाल सिन्हा ने अपनी सेवानिवृत्ति के बाद राजनीति में सक्रिय रहते हुए राज्य सरकार में केबिनेट मंत्री और केन्द्र सरकार में राज्य मंत्री के पदभार को संभाला-सुशोभित किया, भारतीय जनता पार्टी के केन्द्रीय कार्यालय के प्रभारी रहे, तब डॉ. सिन्हा के साथ दिल्ली आकर रहना प्रारंभ किया। दिल्ली रहते हुए इन्होंने ‘साथी’ सोशल एक्सन थ्रू इंट्रीग्रेटेड नेटवर्क चलाया किया। इसी के तहत मासिक पत्रिका ‘पाँचवाँ स्तंभ’ का प्रकाशन प्रारंभ किया। पारिवारिक दायित्वों का बखूबी निर्वहन करते हुए अपनी साहित्यिक यात्रा को अनवरत जारी रखा।
बिहार विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद सन 1964 में बिहार के मोतिहारी जिले के डॉ. एस. के. सिन्हा महिला कॉलेज में मनोविज्ञान विषय की प्राध्यापक बनीं। 1968 तक इसी महाविद्यालय में अपनी प्राध्यापकीय सेवा प्रदान कीं। मनोविज्ञान विषय के गहन अध्ययन-अध्यापन से ये ‘मन’ की ज्ञाता बन गईं। इसी कड़ी में बालमन को संस्कारित एवं आस्थावान बनाने के लिए मुजफ्फरपुर में ‘भारतीय शिशु मंदिर’ नामक एक आदर्श विद्यालय की स्थापना की और इस विद्यालय के सफल संचालन के लिए एक संस्थापक-प्राचार्य के रूप में लगातार नौ वर्षों (सन् 1968 ई. से 1977 ई.) तक कार्यरत रहकर अपनी सेवाएँ प्रदान कीं।
जन्म से ही संवेदनशील हृदय की स्वामिनी मृदुला सिन्हा सामाजिक-क्रियाकलापों में सक्रिय रही हैं। समाज के बीच रहकर समाज के मन-दिल को जाना पहचाना। गहरी सहानुभूति के साथ समाज के हाशिये पर स्थित उपेक्षित एवं वंचित वर्ग को मुख्यधारा से जोड़ने का जोश-साहस इनके कार्यों से झलकता है। देश के विभिन्न मंचों से इन्होंने इस वर्ग के पक्ष में अपनी आवाज उठाई है। इसके अलावा परिवार, समाज और राष्ट्र से जुड़े मुद्दों को वे अपनी वाणी-लेखनी से उठाती रही हैं। स्त्री के विशेष अधिकार और समानता की पक्षधर मृदुला सिन्हा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्त्री-पुरूष की व्यावहारिक समानता और स्त्री को विशेष मानने को लेकर एक साफ, स्वच्छ एवं स्पष्ट दृष्टि रखती हैं। मृदुला सिन्हा स्त्री-पुरूष को परस्पर एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी के बजाय आपस में पूरक के रूप में प्रस्थापना की पक्षधर हैं। वे नारी की समस्याओं को एक समाज की समस्याएँ समझती हैं और इन समस्याओं का समाधान-निदान वे अपनी ही भारतीय विचार-परंपरा मे ढूँढ़ती-देखती हैं। प्रत्येक समस्या से निजात पाने के लिए संगठन की आवश्यकता समझती हैं और पूरे समाज को एक दृष्टि से देखकर एक संगठित पहल का आह्वान भी करती हैं।
अपने घर-परिवार में रहते हुए भारत के गाँवों की संरचना से रु-ब-रु हुईं। समाज की समस्याओं को नजदीकी से देखा-महसूस किया। इसके बाद उच्च शिक्षा प्राप्त की, कॉलेज में पढाना शुरू किया। इस अंतराल में उन्होंने चाहे बेरोजगारी नहीं भोगी हो; लेकिन बेरोजगारी की समस्या को अपने आस-पास मंडराते हुए देखा होगा या भविष्य में इसके गहराते-मंडराते बादल जरुर महसूस कर लिए होंगे और वर्तमान में तो इस समस्या को बहुत गहराई से देखा भी है। तभी तो युवा वर्ग की इस विकट समस्या को अपनी रचनाओं में उठाया भी, इसके निदान और निवारण हेतु वे अपना मत-विचार भी प्रस्तुत करती रहीं और व्यावहारिक स्तर पर सतत प्रयास भी। ‘अतिशय’ उपन्यास में इस मत की ध्वनि स्पष्ट रूप से सुनी जा सकती है। व्यक्तिगत स्तर पर एक रचनाकार की संवेदनशीलता की परिचायक तो उनकी कलम है ही, साथ ही साथ कथनी और करनी की समानता को प्रस्तुत करता उनका सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवहार भी दृष्ट्नीय और उल्लेखनीय है।
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कोई न कोई प्रेरणास्त्रोत तो होता ही है। साहित्यकार की साहित्य रचना के पीछे भी कोई न कोई प्रेरणा तो अवश्य काम करती है। चाहे वह अंत:प्रेरणा हो या बाह्य। लेकिन होती जरुर है। मृदुला जी के लेखन के प्रति भाव तो मन में गहरे समाये हुए थे ही, पर वे जागरूक हुए अपनी पढाई के प्रति जागरूकता और अपने पति की सकारात्मकता भाव दृष्टिकोण से। अपनी शादी के बाद उन्होंने पहली कहानी लिखी – ‘भ्रम की व्यथा’। इसी कहानी के जरिये उनका पदार्पण होता है हिंदी के साहित्यिक जगत में। अगस्त, 2015 में डीडी न्यूज पर उनके ‘तेजस्वनी’ इन्टरव्यू में उनसे पूछा गया कि उनकी इस साहित्य सर्जना की यात्रा के पीछे प्रेरणास्त्रोत कौन है तो उन्होंने कहा कि ‘मेरे पिताजी ने मुझे स्कूल का मुहँ दिखाया और अपने पति के सहयोग-समर्थन और प्रेरणा से ही मैं यहाँ तक पहुँची हूँ।” इस आधार पर देखें तो यह कहा जा सकता है कि भले ही बचपन में अपने माता-पिता द्वारा वे पढ़ाई के प्रति उन्मुख हुई हो; लेकिन लिखने का सिलसिला प्रारंभ हुआ शादी के बाद। अपने पति के सहयोग से। चाहे उनके लेखन में अपने घर-परिवार और बचपन की घटनाएँ कहानियाँ बनकर उभरी हो; पर रूप निर्माण और लेखन के पीछे जिनका प्रेरणा-सहयोग भरा हाथ रहा, वे हैं उनके पति डॉ. रामकृपाल सिन्हा।
मृदुला सिन्हा के लेखन के पीछे भारतीय समाज ही प्रमुख रूप से रहा। इन्होंने भारतीय समाज की बदलती हुई परिस्थितियों को अपने रचनात्मक लेखन के जरिए उभारा। जिसमें आम आदमी, विशेष रूप से महिलाओं की सामाजिक, राजनीतिक एवं मनोवैज्ञानिक समस्याओं को अपनी लेखनी का विषय बनाया और इन समस्याओं का समाधान भी अपनी ही शैली में भारतीय विचार परंपरा में खोजा प्रस्तुत किया। समाज के बीच रहकर आस्थावादी और जीवनमूल्यों पर आधारित जीवन जीने की पक्षधर मृदुला सिन्हा व्यक्ति-व्यक्ति के कर्त्तव्यपालन, अनुशासन एवं संयम पर विषेष बल देती हैं। समाज के बीच सक्रिय सहभागिता निभाकर सामाजिक जीवन का उत्कर्ष-आनंद प्राप्त करने के लिए मानव जीवन को लेखन के द्वारा निरंतर प्रेरित करती रही हैं।
व्यक्ति का स्वभाव या तो घर-परिवार, वातावरण के संस्कारों से प्रभावित होता है या स्वत: स्फूर्त ढंग से गढ़ता-निर्मित होता चला जाता है। मृदुला जी का स्वभाव दोनों दृष्टिकोणों से बनता-सँवरता है। अपने नाम के अनुरूप उनके स्वभाव में ‘मृदुलता’ विद्यमान है। एक ओर उनके स्वभाव में घर-परिवार से मिली स्निधता और प्राकृतिक मृदुलता विद्यमान है तो दूसरी ओर वातावरण-परिवेश के अपने वास्तविक अनुभवों से लोगों को निहारने-देखने, पहचानने-महसूसने की तीक्ष्ण मानवीय समझ। किसी के दुःख दर्द को समझना हो या किसी की ख़ास जरूरत को, मृदुला जी तुरंत भाँप लेती हैं। दूसरे अर्थों में कहें तो उनकी मानवीय परख विशेष है। बनावटी व्यवहार उनसे कोसों दूर है। अपने से संबंधित हो या किसी दूसरे से संबधित, मानवता की भलाई के किसी भी काम के लिए उनके मुहँ से नकारात्मकता का स्वर नहीं निकलता है। आशा और सकारात्मक भाव की डोर मृदुला जी के यहाँ बहुत लंबी है।
वे जितना महत्त्व एक बड़े व्यक्तित्व को देती हैं उतना ही महत्त्व अपने से जुड़े हुए एक आम आदमी और विद्यार्थी को भी। झूठे वादें-वचन उनके स्वभाव की विशेषता नहीं, वरन उम्मीदों पर खरे उतरना उनकी अपनी एक ख़ास स्वाभाविक विशेषता और पहचान है जो उन्हें स्वनामधन्य साहित्यकारों और वोट के नाम पर राजनीति करने वालों राजनेताओं से अलग करती है। सहजता, सरलता, सौम्यता में उनकी छवि बसी है तो विद्वता, संवेदनशीलता, प्रशासनिक कुशलता एवं रचनाधर्मिता में उनकी पहचान छुपी हुई है। सकारात्मकता, निरंतर सक्रियता, नवाचारधर्मिता उनके विशेष गुणधर्म हैं तो आम व्यक्ति की मददगार, हितैषी और शुभचिंतक उनके व्यक्तित्व के निराले गुण।
मृदुला जी का नारी विषयक चिंतन भारतीय विचार चिंतन पर आधारित है। नारी समानता के लिए वे अर्द्धनारीश्वर में निहित स्त्री-पुरूष की परस्पर पूरकता की धारणा को समाज में समानता के प्रतीक रूप में अपनाने पर बल देती हैं। वहीं स्त्री पक्ष की विशेष हिमायती और सशक्त पैरोकार के रूप में स्त्री को पुरूष की तुलना में विशेष शक्तिप्रदा, विशेष सम्मान की हकदार और विकास के अधिक अवसर दिलाने की भी पक्षधर हैं। बेटी को बेटे के बजाय परिवार-समाज में विशेष रूप से स्थापित करने की कोशिश में वाणी-लेखनी को धाराप्रवाह रूप से बुलंद करती रही हैं। समाज के बीच रहकर आस्थावादी और जीवनमूल्यों पर आधारित जीवन जीने की पक्षधर मृदुला सिन्हा व्यक्ति-व्यक्ति के कर्त्तव्यपालन, अनुशासन एवं संयम पर विशेष बल देती हैं।
एक पौराणिक और जागरूक आधुनिक भारतीय नारी की दृष्टि से इन्होंने आज की महिलाओं के पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन के समसामयिक जटिल प्रश्नों पर गंभीरतापूर्वक मंथन किया है। दूसरे शब्दों में कहें तो इनके नारी चिंतन में पौराणिक और आधुनिक नारी चिंतन का गठजोड़ विद्यमान है। तभी तो इन्होंने ‘हम भारत की नारी हैं, फूल नहीं चिनगारी हैं’ जैसे उत्तेजक एवं संघर्षशील नारों को संशोधित कर ‘हम भारत की नारी हैं, फूल और चिनगारी हैं’ के रूप में आम लोगों के सामने प्रस्तुत किया है। अर्थात् “नारी फूल सदृश्य कोमल तो होती है; परंतु दुर्बल नहीं, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर लक्ष्मीबाई का रूप भी धारण कर सकती है”।
मृदुला जी नारी को पुरुष के समान बनाने की बजाय मातृत्व से मंडित करती हैं – “आज स्त्रियों को पुरुष के समान बनने की जगह नारीत्व से पूर्ण बनने की जरूरत है। नारी, नारी होती है और पुरुष, पुरुष। नारी कभी पुरुष के समान हो ही नहीं सकती। वह तो पुरुष से भी श्रेष्ठ है, क्योंकि वह दातृ होती है”। नारी अधिकारों की माँग की आड़ में इन्होंने कर्त्तव्यों के बोध को नहीं भुलाया है, बल्कि कर्त्तव्यों के माध्यम से अधिकारों को प्राप्त करने का रास्ता दिखाया है। एक और ये नारी को दहलीज से लेकर कार्यालय तक ले जाने की वकालत करती हैं, तो दूसरी ओर घरेलू दायित्वों को निभाने का जिम्मा भी सौपती हैं। आज के टूटते-बिखरते परिवार इनकी चिन्ता के केन्द्र में हैं। इनको बचाने की आशा ये नारियों से ही रखती हैं। स्त्री अपनी त्यागवृत्ति से परिवार को संयुक्त रखती हैं। स्त्री होने पर नाज जताते हुए वे कहती हैं कि स्त्री हर क्षेत्र में आगे है। सर्जन के लिए ममत्व आवश्यक है। पुरुष ममत्व से वंचित है; परन्तु जब उसमें भी यह गुण आ जाता है तो वह आकाश बन जाता है।
परिवार जीवन की सबसे बड़ी पाठशाला है, इस विचार को प्रस्तुत करते हुए वे कहती हैं कि भारतीय संस्कृति सभी को साथ लेकर परिवार के रूप आगे बढ़ने वाली संस्कृति है। परिवार की एकता को समृद्ध करने वाली उनकी प्रस्तुत स्वरचित पंक्तियों समय-समय पर पढ़ी-सुनी जा सकती हैं – “जब साथ चलती हैं तीन पीढ़ियाँ, तब परिवार चढ़ता है विकास की सीढियाँ”। बेटियों को संबोधित करते हुए कहती हैं कि भले ही तुम आज जल, थल, नभ पर अपने कदम बढाओ, पर यह मत भूलना की तुम्हें माँ बनना है। आज समानता के नाम पर जो स्त्री को पुरुष बनाने पर तुले हैं वे उपहास के पात्र हैं। सभ्यता रूपी रोटी बेलते बेलते मुड़ जाती है; परन्तु अभी रोटी बहुत अधिक नहीं टूटी है। इस सभ्यता को लीक पर लाने का काम भारतीय संस्कृति का है। विकास को अपने आँचल में सहेजनी वाली युवा पीढ़ी की लड़कियों से कहती हैं कि बेटियों तुम्हें भोजन बनाने का मौका नहीं मिलेगा; पर परोसना मत छोड़ना। इनका स्पष्ट मत है कि जो अपनी, अपने परिवार की सेवा नहीं कर सकता, वह दूसरे की सेवा क्या करेगा। सेवा स्वयं से प्रारंभ होकर दूसरों तक पहुँचती है।
मृदुला जी का स्त्री-पुरुष संबंधित चिंतन भारतीय संस्कृति के अनुकूल है। इन्होंने नारी समस्या को संपूर्ण समाज की समस्या के रूप में देखा है। इसीलिए नारी को समाज में उचित सम्मान दिए बिना, समाज का विकास इन्हें असंभव लगता है। ये “नारी और पुरुष के बीच सहयोगवृत्ति की पक्षधरों में अन्योन्याश्रित संबंधों की मजबूती के लिए स्त्री और पुरुष दोनों से अपेक्षा रखती हैं। एक के बिना दूसरे का जीवन अधूरा है। इनके अनुसार नारी वस्तु नहीं हैं”। अविकसित पुरुष भी नहीं है और मात्र देह भी नहीं है दुहिता। न नारी कठपुतली है और न ही उड़नपरी। नारी को पुरुष सापेक्ष होकर भी स्वयं व्यक्तित्व से संपन्न होना चाहिए। प्रेम के संबंध में इन्होंने प्रचलित अर्थ वाले प्रेम को न अपनाकर प्रेम की उदात्तता को स्वीकार कर प्रस्तुत किया है।
मृदुला जी ने भारतीय संस्कृति के अनुरूप मातृत्व को नारी जीवन की सार्थकता माना है। मृदुला जी ने आज की नारी को सलाह दी है कि स्त्री को मर्द बनने की लालसा नहीं पालनी चाहिए। इस प्रकार मृदुला जी आज की महिलाओं की दशा को सुधारने के लिए तथा उपभोक्तावाद और बाजारीकरण के कारण आए संकटों से उबारने के लिए सतत प्रयास कर रही हैं। इनकी रचनाओं में महादेवी जैसी पीड़ा, दुःख और करुणा की अनुभूति देखने को मिलती है, तो वहीं मीराबाई जैसी आस्था के स्वर भी दृष्टिगत होते हैं। नारी को आत्मसंबल का पाठ पढ़ाती इनकी रचनाएँ भारतीय नारी चिंतन को अभिव्यक्त करती हैं। सीता, सावित्री और मंदोदरी आदि भारतीय नारी के चरितों में आधुनिक नारी का जीवन संबल तलाशती इनकी लेखनी धन्य धन्य हो जाती है।
जीवन मूल्यों के प्रति आस्था और विश्वास इनकी और इनकी रचनाधर्मिता की विशिष्ट पहचान है। इनकी प्रत्येक रचना किसी-न-किसी जीवन मूल्य को सहेजने वाली, उकेरने वाली होती है। वैचारिक तौर पर भी मृदुला जी मानवतावादी साहित्यकार हैं। जिससे इनका पूरा का पूरा साहित्य करुणा, प्रेम, कर्त्तव्य, अहिंसा, सेवा आदि की उदात्तता की भावभूमि पर आधारित है और इन भावों को वैचारिक जामा पहनाकर ही इन्होंने अपनी रचनाओं में गुँफित किया है। महादेवी की भाँति ये भी करुणा की महत्ता को स्वीकार करती हैं और सेवा के अंतर्गत अपनी तथा अपने परिवार की सेवा के साथ समाज और राष्ट्र सहित संपूर्ण मानवता की सेवा के उच्च लक्ष्य को प्रतिपादित करती हैं। मानवता के हित और सेवा के प्रति ये अपनी सोच को अमलीजामा पहनाकर जब किसी रचना को गढ़ती हैं तो अनायास ही इनकी रचना के केंद्र में कोई-न-कोई जीवन मूल्य अपना स्थान बना लेता है।
व्यक्तित्व विकास के लिए इन्होंने भारतीय जीवन मूल्यों और लोक विश्वासों को अपनी रचनाओं में पिरोकर पाठक के सामने प्रस्तुत किया है। इन्होंने समग्र विकास के लिए मानव समाज को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर अग्रसर करने का प्रयास किया है। शारीरिक और इहलौकिक उन्नति के लिए भौतिक समृद्धि और आत्मिक विकास के लिए आध्यात्मिकता को जरूरी माना है। लेकिन इनके यहाँ भौतिकता सिर्फ विपुलता तक सीमित नहीं है, बल्कि इस विपुलता का उपयोग मानव कल्याण के लिए समुचित ढंग से होने तक विस्तृत है। गांधीवाद के अनुकूल इनकी रचनाएँ भी सत्ता के स्थान पर संयम, शस्त्र के स्थान पर शांति और शास्त्र के स्थान पर सदाचार को संप्रेषित करती हैं। जहाँ एक ओर उनकी रचनाओं में मूल्य स्थापना की प्रतिध्वनि स्पष्ट रूप से सुनी जा सकती है, वहीं दूसरी और कठिन परिस्थितियों में भी जिजीविषा की दृढ़ता के प्रति आस्था और विश्वास का स्वर भी।
मृदुला जी के व्यक्तित्व का मूल्योंन्मुख होना भारतीय परम्परा में दृढ विश्वास को जताता है। वे अपनी सशक्त और समृद्ध पुरानी नींव को नये निर्माण से जोड़कर राष्ट्र निर्माण की बात कहती हैं। संस्कारों की ‘पुरानी नींव, नया निर्माण’ को स्त्री औऱ पुरूष दोनों से जोड़कर प्रस्तुत करती हैं।
सन् 2014 में केंद्र में भाजपा ने भारी बहुमत से जीत हासिल की तो इनकी प्रशासनिक कार्यकुशलता और सूझबूझ को देखते हुए इन्हें अगस्त, 2014 में गोवा के राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद की जिम्मेदारी सौपी गई। यह इनके राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा सम्मान था। अपने पद और सम्मान का मर्यादा से पालन करना इन्हें बखूबी आता है। राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद की गरिमा का बखूबी से निर्वहन करते हुए इन्होंने एक ओर भारत सरकार के स्वच्छता अभियान की प्रमुख दूत का कार्यभार भी संभाला तो दूसरी ओर अपनी साहित्यिक यात्रा को भी लगातार आगे बढ़ाती रहीं। इसका प्रमाण है नियमित रूप से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले इनके लेख-स्तंभ आदि।
राजनीतिक गतिविधियों और सामाजिक कार्यों के अलावा साहित्यिक-सर्जनाओं के कारण इन्हें विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं से भी जुड़ने का अवसर प्राप्त हुआ। अखिल भारतीय साहित्य परिषद् की उपाध्यक्षा, दिल्ली की हिन्दी अकादमी की कार्यकारिणी सदस्या तथा ओजस्विनी पत्रिका की सलाहकार समिति की सदस्या भी रही हैं। तीर्थस्थानों की देखभाल और तीर्थ-यात्रियों के लिए विषेष सुविधा उपलब्ध कराने वाली धार्मिक-सामाजिक संस्था ‘धर्मयात्रा महासंघ’ की न्यायी सदस्या तथा दिल्ली महिला आयोग की वरिष्ठ सदस्या के नाते मानव-कल्याण व नारी-उत्थान के कार्यों को इन्होंने तत्परता से निभाया है।
बालमन को प्रेरित और संस्कारित करने के लिए हमारी पौराणिक और लोक जीवन की कथाएँ बहुउपयोगी हैं। ऐसे में मृदुला सिन्हा ने बच्चों की सर्जनात्मक प्रतिभा को निखारने के लिए लोकजीवन पर कलम चलाई और ‘पुराण के बच्चे’ एवं ‘बिहार की लोककथाएँ’ लिखीं। ‘बाल भारती’ में दो वर्षों तक इन्होंने ‘दादी माँ की पोती’ (धारावाहिक) को बच्चों के लिए लिखा।
मीडिया विचारेां के प्रचार-प्रसार का एक आवश्यक उपागम है। मृदुला सिन्हा रेडियो, दूरदर्शन तथा निजी क्षेत्र के टेलीविजन चैनलों द्वारा राजनीतिक मुद्दों और महिलाओं और बच्चों पर आयोजित विचार-विमर्श में नियमित रूप से भाग लेती रही हैं। इन्होंने टेलीविजन कार्यक्रमों के लिए बहुआयामी लेख भी लिखें हैं और समय-समय पर इनके लेख-निबंध तथा विचारपूर्ण साक्षात्कार विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। अगस्त, 2015 में डीडी न्यूज पर इनका ‘तेजस्वनी’ नाम से इंटरव्यू भी प्रसारित हुआ। जिसमें इन्होंने बड़ी बेबाकी से अपनी बात रखी – साहित्य, समाज और राजनीति के संदर्भ में।
मृदुला सिन्हा की वृद्धों की समस्याओं पर आधारित एक कहानी पर ’राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम’ ने एक फीचर फिल्म ‘दत्तक’ का निर्माण किया है। मृदुला सिन्हा ने केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड के दो भव्य रूपकों – ‘चेतना’ तथा ‘पहचान’ के लिए गीत तथा आलेख लिखे हैं। इन्होंने तीन पीढ़ियों के छत के नीचे रहने का संदेश देने वाली बोर्ड की टेली फिल्म ’खेल-खेल में’ की गीतमय पटकथा भी लिखी है।
इनके उपन्यास ‘ज्यों मेहंदी को रंग’ पर इसी नाम से बना धारावाहिक अनेक बार दर्शाया गया है। कुछ वर्ष पहले इसी उपन्यास को मुंबई के एक निर्देशक ने अपनी फ़िल्म की पटकथा के लिए चुना। वर्तमान में इनकी कहानियों पर आधारित कई फिल्में अभी निर्माणाधीन हैं। इसी क्रम में सितम्बर, 2015 में भोपाल में आयोजित 10 वें विश्व हिंदी सम्मलेन के दौरान इनके एक गीत ‘हिंदी भारत के माथे की बिंदी’ को राजभाषा आयोग द्वारा स्वीकृत किया गया है।
समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्ष रहते हुए मृदुला सिन्हा ने युवक-युवतियों को विवाह पूर्व परामर्श की आवश्यकता पर बल दिया और साथ ही साथ सामाजिक संस्थाओं द्वारा ऐसे परामर्श केन्द्र खोले जाने की सिफारिश भी की। भारतीय समाज में खुल रहे वृद्धों के लिए वृद्धाश्रम की जगह पालनाघर खोलने का सुझाव अग्रेषित किया। इसके पीछे इनकी समाज में कम-से-कम वृद्धाश्रम बनाने-खोलने की सोच रही है और पालनाघर को उसका एक हिस्सा बनाने की एक नवीन सोच भी। गाँव और शहर के बीच बढ़ रही बालिका-शिक्षा की दूरी को पाटने के लिए मृदुला सिन्हा ने दोनों वर्गों से बालिकाओं के सह-शिक्षण शिविर आयोजित करने के ऊपर विशेष बल दिया। जिसके परिणाम स्वरूप 2001 में ऐसे 109 शिविरों का आयोजन सम्पन्न हुआ। भारतीय परिवार में दांपत्य जीवन में मधुरता, सरसता को सतत् बनाए रखने के लिए पचास वर्षीय दांपत्य जीवन में आनंद-उत्सव की वर्षगांठ मनाने पर जोर दिया। जिस तरह बेटे के जन्म पर थाल बनाया जाता है, गीत-गान गाए जाते हैं, ठीक उसी तरह बेटी को भी विशेष सम्मान प्रदान करने के लिए बेटी जन्म पर ‘बधावा’ गाया जाए और गाँवों में बेटियों का सामूहिक जन्मोत्सव मनाया जाए। महिलाओं के लिए मानवी सम्मान भोज का आयोजन हो। जिसमें ग्रामीणजन, महिलाओं को सम्मान प्रदान करने के लिए सामूहिक भोज का आयोजन करें। उन्हें पौष्टिक आहार का प्रशिक्षण भी दिया जाए। वृद्धों की उचित देखरेख, सार-संभाल के लिए बच्चों द्वारा वृद्धों को गोद लेने की परंपरा का शुभारंभ हो। एक नई सोच इनकी यह भी रही कि अपने घर में ही अपने माता-पिता को साथ-साथ रखा जाए। डीडीए फ्लैट में दो के स्थान पर तीन कमरे बनाने की अनुमति सरकार दे।
मृदुला सिन्हा अपने विचार-कार्यों को प्रसारित करने के लिए विदेशों तक गई हैं। कई अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में सक्रिय भागीदारी निभाते हुए महिलाओं के सबलीकरण पर बल दिया। मृदृला सिन्हा अपने नियमित लेखन के अलावा कई पत्र पत्रिकाओं में संपादक, संरक्षक एवं परामर्शदात्री की भूमिका का निर्वहन करती रही हैं। साथ ही कई सामाजिक संस्थाओं और मंत्रालयों में अपनी सक्रिय भागीदारी भी निभाई है। मृदुला सिन्हा को हिंदी में उत्कृष्ट साहित्य सर्जन के लिए समय-समय पर विभिन्न सम्मान-पुरस्कारों से नवाजा गया है; जिनमें प्रमुख हैं : – ‘ ‘साहित्य भूषण सम्मान’ 1998, ‘दीनदयाल उपाध्यक्ष सम्मान’ – 2001, कल्पतरु पुरस्कार, इंदिरा गांधी प्रियदर्शिनी सम्मान – 2013, लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार – 2013, बिहार गौरव सम्मान, 2015
आधुनिक हिंदी साहित्य में महिला लेखन की धारा में मृदुला सिन्हा ने अपना एक अलग स्थान बनाया है। जिसके अंतर्गत कथा साहित्य में अपने चिरपरिचित भारतीय स्वरुप से भारतीय स्त्री के आत्मिक और चारित्रिक शौर्य को प्रकाश में लाने का कार्य किया है – मृदुला सिन्हा ने। एक तरफ अपनी लेखनी से विकलांगों की समस्या का संवेदनशील-क्रियात्मक निवारण ‘ज्यों मेहँदी को रंग’ में प्रस्तुत किया, तो दूसरी तरफ भारत के उद्योग-व्यवसाय को विश्व पटल पर लाने की दृढवती इच्छा को व्यक्त कर भारत के चरित्र को तत्कालीन संदर्भों में प्रस्तुत किया – ‘अतिशय’ उपन्यास में। तीसरी तरफ बिहार या फिर कहें भारत के गाँवों के जीवन स्तर और वहाँ के घात-प्रतिघातों, मजदूरों की गुजर-बसर, स्थिति-परिस्थितियों को यथार्थ ढंग से प्रस्तुत किया ‘घरवास’ उपन्यास में और अमलीजामा भी पहनाया ‘घरवास’ का। और लेखनी के इन सब रचनात्मक प्रयोगों से इतर महिला लेखन पर एक नई दृष्टि-सोच और लेखन परंपरा का श्री गणेश किया – भारतीय स्त्री के पौराणिक चरित्रों के आत्मकथात्मक उपन्यास लिखकर, आधुनिक भारतीय नारी के लिए। सीता, सती सावित्री, मंदोदरी एवं अहल्या के आत्म स्वाभिमान, आत्मसम्बल और चारित्रिक शौर्य को पुन: प्रगट और पुनर्स्थापित किया है – उन्हीं की आत्मकथ्यात्मक शैली में। सीता, सती सावित्री, मंदोदरी एवं अहल्या के आत्मकथात्मक उपन्यास लिखकर। वैसे लिखने को तो हिंदी में आत्मकथात्मक उपन्यास संख्या की दृष्टि से बहुत लिखे गये हैं; परंतु महिला लेखन में भारतीय स्त्री के आदर्श पात्रों (सीता, सती सावित्री, मंदोदरी एवं अहल्या) के मुहँ से ही उनकी आत्मकथा कहलवाना एक न्यारी और विलग बात है जिसे मूर्त रूप दिया है – मृदुला सिन्हा ने।
मृदुला सिन्हा ने अपने सर्जनात्मक संसार को लोककथा, कहानी, उपन्यास, लधुकहानी, निबंध, ललित-निबंध, एवं लेखों तक विस्तृत किया और संपादन के क्षेत्र में राजमाता विजयाराजे सिंधिया की आत्मकथा का कुशल संपादन भी किया।
कहानी संग्रह
1 साक्षात्कार (कहानी संग्रह), प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 1978
2 एक दिये की दिवाली (कहानी संग्रह), प्रतिभा प्रतिष्ठान, नई दिल्ली, 1996
3 स्पर्श की तासीर (कहानी संग्रह), किताबघर, नई दिल्ली, 1997
4 जैसे उड़ि जहाज को पंछी (कहानी संग्रह), विद्या विहार, नई दिल्ली, 2004
5 ढाई बीघा जमीन (कहानी संग्रह), ज्ञान गंगा, नई दिल्ली, 2010
6 देखन में छोटे लगै (लघु कथा संग्रह), प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010
7 अंतिम इच्छा (कहानी संग्रह), यश प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014
8 अपना जीवन (कहानी संग्रह), यश प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014
उपन्यास
1 ज्यों मेंहँदी को रंग (उपन्यास), प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 1981
2 घरवास (उपन्यास), प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 1992
3 अतिशय (उपन्यास), प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 2003
4 सीता पुनि बोली (उपन्यास), विद्या विहार, नई दिल्ली, 2007
5 विजयिनी (उपन्यास), भारतीय पुस्तक परिषद्, नई दिल्ली, 2013
6 परितप्त लंकेश्वरी (उपन्यास), प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015
7 अहल्या उवाच, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017
पुराण और लोक जीवन की कथाएँ
• बिहार की लोककथाएँ (दो भागों में), प्रभात प्रकाशन, भारत सरकार, नई दिल्ली, 1982
• पुराण के बच्चे, प्रभात प्रकाशन, भारत सरकार, नई दिल्ली
संपादित कृति
• राजपथ से लोकपथ पर (आत्मकथा), प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली
लेख-निबंध यात्रा
• आईने के सामने (ललित निबंध संग्रह), सत् साहित्य प्रकाशन (प्रभात प्रकाशन), नई दिल्ली, 1995
• मानवी के नाते (लेख संग्रह), प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली
• क, ख, ग, (ललित निबंध संग्रह), किताब घर, नई दिल्ली, 1999
• इसी बहाने (संपादकीय लेख संग्रह), प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004
• मात्र देह नहीं है औरत (स्तंभ लेख संग्रह), सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009
• यायावरी आँखों से (स्तंभ लेख संग्रह – ‘दुनिया मेरे आगे’ स्तंभ, जनसत्ता, नई दिल्ली), प्रभात प्रकाशन, 2010
• बिटिया है विशेष (लेख संग्रह), सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2011
• विकास का विश्वास (संपादकीय लेख संग्रह – ‘मंथन’- संपादकीय, पाँचवाँ स्तंभ, मासिक पत्रिका, नई दिल्ली), प्रतिभा प्रतिष्ठान, नई दिल्ली, 2012
• नारी न कठपुतली, न उड़नपरी (लेख संग्रह ), यश प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014
• औरत अविकसित पुरुष नहीं (लेख संग्रह), यश प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015
• महिला विकास : अवलोकन और आकलन (लेख संग्रह), प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, 2015
कविता संग्रह –
• मुझे कुछ कहना है, यश प्रकाशन, नई दिल्ली, 2015
मृदुला जी का लेखन क्रम सतत रहा। चाहे वह स्तंभ लेखन के रूप में हो या विशेष लेखन के रूप में। कई पत्र-पत्रिकाओं में इनके स्तंभ और लेखों को नियमित रूप से पढ़ा जा सकता है। कथा कहानी या लेख जैसे ही इनके मन में बुनने-घुमड़ने लगता है, तो वह या तो किसी पत्र-पत्रिका के पृष्ठों पर उकरकर अपना रूप धर लेता। या फिर एक नई किताब के रूप में पाठक समाज के सामने आ जाता है। दिल्ली से प्रकाशित दैनिक समाचार-पत्र ‘जनसत्ता’ के ‘दुनिया मेरे आगे’ कॉलम में, ‘दैनिक हिंदुस्तान’ के ‘अनहद’ स्तंभ में, ‘पाँचवाँ स्तंभ’ के ‘मंथन’ संपादकीय में और राजस्थान पत्रिका के ‘विषयांतर’ कॉलम में इनकी लेखनी के मुरीद पाठक जानते हैं कि मृदुला जी अपने लेखों में भी संस्मरण पिरो देती हैं, जो इनके लेखन की न्यारी और अनोखी विशेषता है।
कुछ हटकर वेद मंत्रों से लोगों को अवगत कराती हुई रचनाएँ भी पाठकों की मानसिक चेतना में उर्जा का संचार करती हैं। मृदुला जी संस्मरण विधा में सिद्धहस्त हैं। जहाँ भी जाती हैं, वहाँ चाहे किसी व्यक्ति विशेष से मिले या साधारण व्यक्तियों के निश्छल व्यवहार से रु-ब-रु हों या फिर प्राकृतिक सुन्दरता में रमे मन को भिगोती रहें, जैसे भी हो वहाँ की स्मृतियों को सहेज लाती हैं अपने आँचल में। और जन्म ले लेता है एक मर्मस्पर्शी संस्मरण।
निरंतर कर्मशीलता और सक्रियता से मृदुला सिन्हा ने अपने जीवन को हमेशा एक नये आयाम के रूप में गढ़ा है। साहित्य, समाज और राजनीति की निरंतर साधना-सेवा करते हुए तीनों स्तरों के शिखर पर अपना परचम लहराया है। जहाँ एक ओर साहित्य साधना में निरंतर रत रहकर हिंदी साहित्य के भंडार में अभिवृद्धि करते हुए अपनी विशिष्ट और उल्लेखनीय रचनाओं से हिंदी का एक नया कथा संसार रचा है, वहीं दूसरी ओर अपनी प्रशासनिक कुशलता से राजनीतिक दायित्वों का बखूबी निर्वहन करते हुए मुजफ्फरपुर (बिहार) की चुनाव संयोजिका से लेकर गोवा की राज्यपाल का सफ़र तय किया है। अगस्त, 2014 से लेकर अक्तूबर, 2019 तक गोवा के राज्यपाल पद की मिली संवैधानिक जिम्मेदारी-दायित्व को जितनी कुशलता और सूझ-बूझ से निभाया, उससे उनकी राजनीतिक शुचिता को परखा जा सकता है।
मृदुला जी की प्रयोगवादी और सर्जनात्मक सोच को मद्देनजर रखते हुए उन्हें प्रधानमंत्री स्वच्छता अभियान की प्रमुख दूत भी बनाया गया। राजनीति, समाज एवं साहित्य की अनेक इकाइयों में अपना संगठनात्मक मार्गदर्शन भी प्रदान कर रहीं हैं। वोट और भ्रष्टाचार की राजनीति को टक्कर देने के लिए इनका राजनीतिक जीवन एक मिसाल के रूप में है। जिस तरह साहित्य के क्षेत्र में मृदुला जी निर्विवाद लोकप्रिय रूप से प्रतिष्ठित हैं, ठीक उसी तरह राजनीति में भी इनका नाम साफ़, उज्जवल और बेदाग रूप से लिया जाता है। अपने नाम की ‘मृदुलता’ को सार्थक करती इनकी जीवन कार्य-शैली एकाएक किसी को भी अपनी और आकर्षित कर लेती है। देश के एक विशिष्ट पर्यटक राज्य के संवैधानिक पद के दायित्व को सँभालते हुए वे निरंतर अपने साहित्य सर्जन पथ पर अग्रसर रहना, दूसरे शब्दों में कहें तो अपनी पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनीतिक व्यस्ततम जिंदगी के बीच भी उनकी लेखनी थमी नहीं है। लिखना उनकी साँस है तो साहित्य उनका एक जीवन भी। और यह उनके लिए बड़े सौभाग्य और गर्व का विषय भी है कि जिस विश्वविद्यालय से उन्होंने अपनी नियमित शिक्षा संपूर्ण की, उसी विश्वविद्यालय ने उन्हें हाल ही में डी.लिट् की उपाधि प्रदान कर मृदुला जी की रचनाधर्मिता का मान बढ़ाया और स्वयं विश्वविद्यालय का गौरव भी।
अक्तूबर, 2019 में मृदुला सिन्हा गोवा के राज्यपाल के कार्यभार से मुक्त हो गईं। उसके बाद नई दिल्ली में अपने आवास पर स्वतंत्र लेखनरत थीं। 2020 के कोरोना काल के लॉकडाउन में निरंतर सृजनरत रहीं। घरवास के इस समय का उन्होने भरपूर सृजनात्मक उपयोग किया। इसी समय में उन्होने भारतीय पौराणिक स्त्री पात्र ‘तारा’ पर और कोरोना पर एक उपन्यास लिखकर पूर्ण किया। अभी उनके मन में लिखने की कई योजनाएँ थीं। पर, शायद विधाता को कुछ और ही मंजूर था। आज हम उन्हें इस रूप में याद कर रहे हैं।