डॉ. शांति सुमन गीत चेतना की महत्त्वपूर्ण कवयित्री के रूप में कई दशकों से चर्चित हैं। वे ‘ओ प्रतीक्षित’, ‘परछाई टूटती’, ‘सुलगते पसीने’, ‘पसीने के रिश्ते’, ‘मौसम हुआ कबीर’, ‘तप रहे कचनार’, ‘भीतर-भीतर आग’ और ‘पंख-पंख आसमान’ जैसी गीत-कृतियों की समर्थ रचनाकार हैं। उनके गीतों में गांव, संबंध, लोक आस्था तथा पीढ़ियों के साथ जुड़ाव के साथ ही साथ सामाजिक विषमता के शिकार हुए आमजन के दु:ख और संकट के प्रखर स्वर हैं। डॉ. शांति सुमन की गीत यात्रा के कई प्रस्थान बिन्दुओं को रेखांकित किया जा सकता है। हिन्दी और मैथिली में गीत लिखने वाली कवयित्री अपने समय को, समाज को तथा समय के दवाब को बड़े ही गंभीरता से देखती हैं, महसूस करती हैं, उसके रचनात्मक आकार देने में आज भी पूरी तत्परता के साथ लगी हैं। डॉ. शांति सुमन अपने गीतों में भाषा, शिल्प और कहन के अंदाज में आज भी प्रयोगरत हैं। संवेदना से लबरेज हृदय की अनवरत अभिव्यक्ति उनके माध्यम से हो रही है।
मैथिली गीत-संग्रह ‘मेघ इन्द्रनील’ मिथिलांचल की प्रकृति, संस्कृति तथा उसकी आत्मीयता को गीतात्मक विस्तार देनेवाला एक समर्थ संग्रह है। आज के समाज की विसंगतियों की विद्रूपताओं को, उसकी पीड़ा और कसमसाहट को शांति सुमन राग भरे स्वरों में मगर आग भरकर प्रस्तुत करती हैं। 91 गीतों का यह संग्रह बहुविध भावों का एक खूबसूरत चित्र-अल्बम है जिसमें आज के मिथिलांचल के गांव समाज और समय को साफ-साफ देखा जा सकता है-
‘बाम-दहिन परती पसरल छै’
पहिल फसलिकेर आस
फूटत आंकुर खुरपी चमकत
रोटी देत उजास।’
संग्रह के अनेक गीत टूटते, त्रस्त और क्षुब्ध जीवन की जिजीविषा से भर देने की क्षमता से भरे हुए हैं। भूख से पीड़ित जीवन जीन के संघर्ष के बीच भी जीवन के प्रति आस्था और जीवन जीने की जिद पैदा करती अनेक पंक्तियां प्रेरक और उद्बोधक की भूमिका में समग्रता के साथ खड़ी हैं :
”टूटल मड़ैयाक झोल भरल भनसा
मारय ये भूख जेना बरछी आ फरसा
आध टूक रोटी पर नून लगय चन्द्रमा।”
संग्रह में सामाजिक और वैचारिक द्वन्द्व से भरे अनेक गीत हैं। राग-विराग, आशा-निराशा, विवशता-विश्वास, सुख-दु:ख, हंसी-क्रन्दन के साथ ही साथ मानसिक स्तर पर अनेक वैचारिक द्वन्द्व बनते-बिगड़ते गीतों में अंकित होते हैं। सबके बावजूद संग्रह के गीत-संबंध, संस्कृति, स्नेह और संवेदना से लबालब भरे हुए राजनैतिक और कुचक्रों का पर्दाफाश करती कवयित्री की आवाज मूलत: और अंतत: आमजन के पक्ष में है जिसके भीतर क्रांति और समरसता की लहर भरी हुई है। दु:स्वप्नों बीच सुन्दर स्वप्नों का निर्माण करती है। बदलते हुए समाज के स्वरूप को और सुगठित, सुनियोजित सुखद भविष्य के साथ देखती हुई यह कवयित्री टूटते संबंधों के कारण अनेक स्थलों पर चिन्ता और दु:खा से घिर जाती हैं। दलित और नारी-विमर्श के प्रखर और प्रभावकारी स्वर संग्रह में भरे हुए हैं। संग्रह का पहला गीत बेटी के लिए है जिनकी प्रारंभिक पंक्तियों में ही प्राकृतिक बिम्बों के साथ विश्वास का स्वर है :
”बेटी तोर सपना मे एक इन्द्रधनुष
पैरे-पैर उतरय, गोरेगोर उतरय
तोहर नीन मे चिरैयक पांखि उड़य
एक गीत के किरिन भोरे भोर उतरय…”
भाषा और बोली हर तीन कोस पर बदलती है तथा एक-दूसरे से प्रभावित होती है इसका प्रमाण इस मैथिली गीत संग्रह में भी उपलब्ध है। डॉ. शांति सुमन बज्जिकांचल में प्रवास करती थीं और अब जबकि झारखण्ड में हैं इसकी स्पष्ट छाप उनकी संस्कृति, उनके चिन्तन और उनकी अभिव्यक्ति में भी परिलक्षित है। मानसिक और चिन्तन की प्रक्रिया में हिंदी की जमीन पर उकेरे गए संग्रह के गीत खांटी मैथिली से है साथ ही कुछ शब्द बज्जिका एवं भोजपुरी से भी मेल खाते हैं। संग्रह के गीतों में मैथिली शृंगार-रस की परंपरा को तोड़कर कवयित्री ने अपने गीतों को खेत-खलिहान एवं गांव की पृष्ठभूमि में बड़ी खूबसूरती से उतारा है।
बहरहाल, डॉ. शांति सुमन सहज, स्वाभाविक एवं लयात्मक बोध की गंभीर गीतधर्मी रचनाकार हैं इसलिए उनके सामने अभिव्यक्ति में भाषा का द्वन्द्व खड़ा नहीं होता है। ‘मेघ इन्द्रनील’ प्राकृतिक बिम्बों से भरा महत्त्वपूर्ण गीत-संग्रह है।