(1)
सुनो
सुनो…
चुप न रहो
मेरी बात के हाथ पर
अपनी हथेली रख दो
और छू लेने के सुख से भर दो
उन प्रश्नचिन्हों को
जिनके उत्तर
मौखिक नहीं दिये जाते।
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(2)
संकोच
किसी से अब
यह पूछते हुए भी
संकोच होता है
कि कैसे/कैसी हो?
क्योंकि
अगर उसने यह कह दिया
कि ठीक नहीं हूँ
तो क्या करूँगा?
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(3)
मैं चुप हूँ
मैं चुप हूँ
यह देखकर
कि खोखले कथनों की लाठियों से
पीटी जा रही हैं
बीते वक्त की लकीरें।
मैं चुप हूँ
यह देखकर
कि आग को उजाला बताकर
भरमाया जा रहा हैं
रोशनी के लिए निवेदित लोगों को।
मैं चुप हूँ
यह देखकर
कि खबरें अब अचंभित नहीं करती हैं
जबकि अचंभे दिखाए जा रहे हैं
खबरों में।
मैं चुप इसलिए भी हूँ
क्योंकि मैं बस यही नहीं देखता
मैं देखता हूँ
चिंतातुर परिजन
प्रतीक्षा करती पत्नी
सपने देखते बच्चे
और नींद के लिए बेचैन
अपनी आँखें।
पर देखना
चुप्पियाँ जिस दिन आवाज बनेंगी
सारे शोर थम जाएँगे।
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(4)
सीधी चाल
सेठ ने जब
इशारा करते हुए बताया
कि देखो यह लड़का कितना सीधा चलता है।
तो मैंने उसे देखने की बजाय
उसके पैरों को देखा
जिनमें अभी भी
वही चप्पलों की जोड़ी चल रही थी
जो वो घर से पहनकर आया था।
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(5)
वो बातें
वो बातें
जो कही तो थी
लेकिन सुनी ना गई
ठहर गई हवा में कहीं
वो संकेत
जिन्हें समझकर भी
ना समझा गया
सितारे हो गए
वो तसवीरें
जो न आ सकीं फ्रेम में
रख ली गईं
पर्स की आखिरी परत में
वो स्मृतियाँ
जो जीवित रहीं हमेशा
वो उभरती रहीं रह रहकर
आँखों के आगे
और वो प्रेमी
जो कह न सके
अपनी बात
बदल गए
बंद लिफाफों में
उन पर लिख दिया गया
किसी दूर देश का पता।
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(6)
प्रश्न
यह आज भी
एक अनुत्तरित प्रश्न है
मेरे लिए
कि प्रश्नों के उत्तर न मिलने पर
हम क्यों देखते हैं आकाश को
एक प्रश्न की तरह?