आज ही अखिल और देवांशी का ब्याह हुआ था, सारे घर में कहीं ढोलक टनक रही थी, रस्मों की तैयारियां चल रहीं थीं…चाची यहां से वहां सब कुछ व्यवस्थित करने में व्यस्त थीं, सारे घर में बस उन्हीं की आवाज गूंज रही थी, ‘अभी कितना काम पड़ा है? लेकिन ये बायना ही नहीं समिट पा रहा, अरे जीजी! जल्दी समेटो! और हां! आप ये खिचड़ी बहुरानी को दे आओ और अच्छे से समझा देना कि क्या करना है, नहीं तो चार लोग बातें करें, ये मुझे बिलकुल नहीं सुहाता, वैसे भी ब्याह में खूब नाटक हो गया, आधा गांव आके उलाहने दे गया है, कि पहला काज किया और बुलऊए भी ना पहुंचे, अब बताओ कहां—कहां देखूं, जहां से थोड़ी भी नजर फिरी और बस सब पसर गया।’
‘तू बड़ी चिंता करती है, सब हो तो रहा है बस फालतू का खून उबाल रही है’ बड़ी जीजी ने कहा
चाची डलिया समेटती हुई बोली– ‘तुम तो बड़ी हो, सो तुम्हें कौन क्या कहे, मैं हूं छोटी, सो सब आ—आकर मुझसे बखान करती हैं’
बड़ी जीजी ठठाकर हॅंस दी और बोली– ‘तू बड़ी दुनियादारी में फंसती है रे, जाती हूं सब अच्छे से बता दूंगी बहू को धीरज धर’
बड़ी जीजी डलिया लेकर अखिल के कमरे की तरफ चली गईं, कमरे में पहुंची तो मुहल्ले भर की लड़कियां देवांशी को घेरे बैठी थीं,
अरे! तुम सब भाभी को घेरे ही बैठी रहोगी कि उसको थोड़ा आराम भी करने दोगी, थक गयी होगी, चलो भागो यहाँ से!
सब लड़कियां भाभी को फिर आने का वादा करके निकल गईं। देवांशी झट से उठकर खड़ी हुई तो ताई जी ने कहा- बैठी रहो बहू! और देवांशी के माथे पर हाथ फेरकर उसे निहारने लगीं। कत्थई रंग के गुलाबी हरे नीले मोतियों से टंके लहंगे में देवांशी ऐसी दिख रही थी जैसे बादलों पर कोई तारा कत्थई चुनरिया ओढ़े बैठा हो, नाक में बड़ी सी नथ ने तो उसके अलसाए चेहरे पर जैसे खूबसूरती को गिरफ्तार कर लिया था, माथे पर बर्फ में फैले पलाश के फूलों सा सेंदुर बिखर गया था, ताई जी ड्रेसिंग टेबल से काजल की डिब्बी लाईं और एक बड़ा सा टीका देवांशी के कान के पीछे लगाते हुए बोलीं- बिलकुल हरसिंगार के फूल सी दिख रही है हमरी बहू, किसी की नजर छू भी ना जाये, इसीलिए इत्ता बड़ा नजरबट्टू लगा दिए हैं। देवांशी के थके चेहरे पर धीमी से हंसी खिल गई।
ताई जी ने देवांशी के सामने बैठते हुए कहा- बिटिया! थक गई होगी दिन भर से रस्में करते–करते, का करें गांव देहात है, यहाँ ये सब बहुत मायने रखता है?
देवांशी ने धीरे से कहा– नहीं ताई जी, ऐसा कुछ नहीं!
ताई जी हंसी और बोली– देखो तो नींद आंखन में उतर आई है, तुम आराम कर लो अब, हम तो बस ये बताने आये थे, कि जब नीचे आना तैयार होके तब ये खिचड़ी बताशे ओली में लेके उतरना, ये सबको तुम्हारे हाथों से बंटवाई जाएगी, ध्यान से बिटिया! नहीं तो तुम्हारी चाची गुस्सा हो जाएंगी।
इतना कहकर ताई जी कमरे से निकल गईं ताई जी के जाते ही देवांशी ने झट से कमरा बन्द किया और बेड पर पड़ गई। दिन भर से कभी कोई पूजा, कभी कोई पैर छूना…कभी मछली…कभी दूधाभाती…एक के बाद एक इतनी सारी रस्में करते-करते थोड़ा भी आराम नहीं मिला पाया था देवांशी को, अब तो आँखें भी खुलने के लिए मनौती ले रहीं थीं, तमाम कोशिशों के बाद भी देवांशी की आंख लग गई।
शाम हो चली थी, अखिल दरवाजे पर जोर-जोर से नॉक कर रहा था, देवांशी! दरवाजा खोलो, देवांशी! दस मिनट खटखटाने के बाद देवांशी हड़बड़ा कर उठी और दरवाजा खोला।
अखिल ने कहा– क्या हुआ? नीचे सब इन्तजार कर रहे हैं, और तुम अब तक तैयार नहीं? तब तक चाची की जोरदार आवाज गूंजी- अरे बहूरानी! अब आ भी जाओ।
देवांशी सहम गयी– उफ़! मर गई, जाने कैसे आँख लग गयी…पता ही नहीं चला!
अखिल मुस्कुराया और बोला कोई बात नहीं जल्दी तैयार होकर आ जाओ, मैं नीचे सम्हाल लूंगा, और हां, पीली साड़ी पहनना, अच्छी लगती है तुम पर! देवांशी का सहमा चेहरा शर्म से खिल उठा।
पीली साड़ी पहने सीढ़ियों से आती देवांशी, ऐसे लग रही थी जैसे भोर की पहली किरण खिल रही हो, देवांशी ने पलकों की ओट में आंखों के कत्थई मोतियों को अखिल की तरफ धीरे से मोड़ा और मुस्कराई, मेहमानों से भरे आंगन के कोने में बैठे अखिल ने, सबसे चुराकर अपनी आंखों से ही उसके सुर्ख हुए गालों को चूम लिया था।
देवांशी को देखकर ढोलक के टंकार चुप हो गई, सबकी आंखे सीढ़ियों से उतरती नई बहुरिया की तरफ मुड़ गईं, बच्चे दौड़कर दुल्हन के साथ हो लिए, और न्यौते में आईं लड़कियां तो भीतर से जली जाती थीं लेकिन बाहर से मुस्कराती हुए देवांशी को निहार रहीं थीं, पड़ोस की ललिया भौजी बोली- अरे अखिल की अम्मा! बहू तो अप्सरा सी लाई हो।
ताई जी मुस्कुराई और अखिल के बालों में हाथ घुमाते हुए बोली- हां, वो तो है, पर हमारा लल्ला भी किसी से कम है क्या!
देवांशी मंडप तले पाटे पर बैठ गयी, चाची ने पहले बड़ी जीजी की तरफ देखा फिर धीरे से कहा- बहूरानी! खिचड़ी लेकर आना था ना नीचे?
तभी किसी ने कहा– ‘अरे अखिल की अम्मा! बहुरानी खाली छोर लिए नीचे उतर आई, ध्यान तो दिया करो तनिक अब सास हो रही हो’
देवांशी ने चाची का चेहरा देखा तो सारी ख़ुशी काफूर हो गई। जल्दी-जल्दी में खिचड़ी तो ऊपर ही छूट गई। ताई जी ने देवांशी के आंचल में बतासे चावल रखते हुए कहा- लो अम्मा अभी भर देते हैं बहू का आंचल और खिचड़ी भी आई जाती है, अभी नई है, का जाने रीत रिवाज, अब आपको ही सब सिखाना है। ताई जी को अपने साथ खड़ा देख देवांशी की जान में जान आई खिचड़ी बंटने की रस्म हो गई, इसके बाद चाची ने कहा– चलो अब आखिरी काज और निपटा लें, बहू का नाम रख लें।
देवांशी के मन में कितने ही सवाल तैर गए, मेरा नाम? ये कौन सी रस्म है? देवांशी समझ ही रही थी कि सबकी तरफ से ढेर सारे नाम आने लगे, किसी ने कहा- सीता रख दो, किसी ने कहा– घर की लक्ष्मी है, इसलिए लक्ष्मी रख दो। चाची ने कहा मैंने सोच रखा है, मैं बहू का नाम….मैथिली रखूंगी !
देवांशी ने हिम्मत करके धीरे से चाची से ही पूछ लिया– चाची! नाम?
चाची ने कहा– हाँ बेटा! हमारे यहां नई बहू का नया नाम रखा जाता है, अबसे वही नाम चलन में होगा तुम्हारा!
देवांशी सर से पांव तक सिहर गई, आंसू छलछला उठे, बाहरी शोर से इतर उसके भीतर ना जाने कितनी तेज लहरें दौड़ने लगीं, कभी हथेलियों को मसलती, कभी अपने पंजों को आपस में रगड़कर जवाब मांगती, लेकिन नये नामों के शोर में उसको सुनने वाला कोई नजर नहीं आ रहा था ।
अपने लिए नामों के गीतों ने देवांशी को सुना ही नहीं, अपनी पहचान के लिए खुद से कैसे लड़ेगी, अभी कैसे सबसे कह दे कि नहीं छोड़ सकती अपना नाम, क्या करे, क्या ना करे, की जद्दोजहद ज्यादा देर नहीं टिक सकी, देवांशी मंडप से उठी और कमरे में चली गई। सारी खिलखिलाहटें सहम गईं। इस तरह रस्म के बीच से बहू का उठकर चले जाना, कोई छोटी बात नहीं थी, अभी-अभी तो बहू अप्सरा सी थी, अब यहीं एक क्षण में मेहमानों की फुसफुसाहटो ने कितनी कहानियां रच डाली थीं, चाची ने अखिल की तरफ देखा, अखिल पीछे से कमरे में चला गया। चाची और ताई जी चुपचाप सीढ़ियों की तरफ देख रहीं थीं।
अखिल कमरे में आया, देवांशी के माथे को छूकर बोला- तबियत ठीक नहीं क्या? अचानक क्या हुआ तुम्हें…?
देवांशी ने अपनी झुकी आँखें उठाई तो सफ़ेद धरातल पर बेरंग पानी तैर रहा था।
अखिल ने देवांशी का चेहरा हाथों में भरकर कहा- क्या हुआ, मुझे बताओ?
देवांशी सुबक रही थी, अखिल ने उसकी हथेलियां अपने हाथों में लीं फिर पूछा– क्या दर्द है, मुझसे भी ना कहोगी?
देवांशी ने कांपती आवाज में कहा- मैं बहुत बुरी हूं, अभी इस आंगन में आए कुछ घंटे ही हुए और मैंने सबको दु:खी कर दिया, हल्दी भरे हाथ और महावर भरे पैर अभी इस आंगन की मिटटी में समाए भी नहीं और मैंने ये हरकत की, मुझे माफ़ कर देना, जानती हूं ये सारी रस्में हमारी आने वाली जिंदगी की खुशहाली के लिए हैं, और मैं सब कुछ करने को तैयार हूं, बस मेरा नाम! इतना कहते-कहते देवांशी का गला भर आया।
कुछ देर की चुप्पी के बाद अखिल ने उसके हल्दी भरे हाथ थामे और कहा- देखो अपने हाथों को, मेरे नाम की ये मेहंदी तुमने अपने घर में लगाई थी लेकिन देखो! अब ये और भी खूबसूरत हो गई है, कितना सुन्दर रंग आया है ना,जानती हो क्यों? वो इसलिए क्योंकि इसमें मेरे घर की हल्दी का रंग भी मिल गया है और ये रंग इसलिए है क्योंकि इसमें हम दोनों के घर मिलकर एक हो गये हैं,बस इसी तरह तुम्हारा नाम भी और ख़ूबसूरत हो जाएगा।
इन चंद पलों में देवांशी की आंखों ने अखिल से ढेर सारे सवाल कर डाले थे, इन सवालों की भाषा अखिल समझ भी रहा था लेकिन जवाब कहां से लाए, बस यही नहीं सूझ रहा था।
अखिल ने देवांशी को सीने से लगाए हुए कितने ही जवाब तलाशे लेकिन ऐसा कोई नहीं था जो उसके सवालों के गुबार को शांत कर सके । देवांशी सुबक रही थी ।
अखिल ने कहा– देवांशी ! जानती हो, मेरे पापा, ताऊ जी बचपन में ही चले गये थे, तबसे सारा घर इन दो औरतों ने सम्हाला, आदमी, औरत, मां…ना जाने कितने किरदार निभाकर, खेती से लेकर घर गृहस्थी तक सब कुछ इन्हीं के कंधों पर था। चाची मेरी मम्मी हैं, ये मुझे तब पता चला जब १० साल का हो गया था, ताई जी को अपनी मम्मी समझता था, क्योंकि चाची कभी ताई जी की तरह प्यार से बात ही नहीं करती थी, कुछ दिनों तक तो लगता रहा कि हम भाई बहनों को प्यार ही नहीं करती लेकिन जब कोई बीमार होता तो ताई जी के साथ रात भर जागती देखभाल करती थी, सारा घर उनके कारण ही चलता था, हम भाई बहनों को गांव से दूर पढ़ने भेजा, कब क्या मुसीबत आई, हम आज तक नहीं जानते क्योंकि उन्होंने कभी हम तक उन तकलीफों को पहुंचने ही नहीं दिया, और ये इनका ही परिश्रम है जो आज हम दोनों भाई बहन डॉक्टर हैं। चाची को कभी किसी ने हंसते नहीं देखा लेकिन उनके चेहरे पर हमने पहली बार मुस्कराहट देखी है, वो भी आज जब तुमने इस घर में कदम रखा, अब तुम ही कहो उनकी जिंदगी भर की तपस्या के लिए क्या हम ये नहीं कर सकते ?
देवांशी ने खुद को सम्हालते हुए कहा- तुम सही कहते हो, जिंदगी भर की तपस्या के लिए हम इतना तो कर सकते हैं लेकिन जानते हो, अखिल! मम्मा बताती हैं कि जब मैं पैदा हुई तब मेरी दादी खुश नहीं थीं, उन्हें खानदान का नाम आगे बढ़ाने के लिए पोता चाहिए था, उस वक्त बुआ ने कहा था, ये बेटी तो हमेशा भैया की ही रहेगी भले बहू, भाभी, पत्नी किसी की भी बन जाए। मेरे नामकरण के दिन सबसे पहले दादी ही आयी थीं और मेरे कान में नाम देकर बोली थीं, ये मेरे देव और अंशिका का अंश है इसलिए इसका नाम देवांशी होगा । और जब मैं स्कूल जाने लगी तो पहले पन्द्रह दिन तो पापा, मम्मा या बुआ में से एक को मेरे साथ पूरा दिन स्कूल में रहना पड़ता था, तब एक दिन पापा ने मुझसे पूछा– बताओ बेटा आपके पापा-मम्मा का क्या नाम है? मैंने कहा देव और अंशिका !
फिर पापा ने पूछा– आपका नाम क्या है ?
मैंने कहा– देवांशी !
पापा ने मुझे गोद में उठाया और कहा– तो बताओ मम्मा और पापा दोनों हुए ना तुम्हारे साथ?
पापा हमेशा कहते थे– बेटा! तुम जहां जाओगी, तुम्हारे मम्मा—पापा तुम्हारे नाम में हमेशा तुम्हारे साथ रहेंगे। मैं उस दिन से अकेले स्कूल जाने लगी थी। आज जब यहां आई तो सब कुछ पीछे छूट गया, मेरा सारा अस्तित्व मैं ख़ुशी—ख़ुशी छोड़ आई, बस एक मेरा नाम लेकर आई हूं, उसे मेरे साथ रहने दो, इस बिछुड़न का दर्द नहीं सम्हाला जाएगा मुझसे। इतना कहते-कहते अखिल की बांह थामकर देवांशी जोर-जोर से रो पड़ी ।
अखिल ने देवांशी को उठाकर आईने के सामने बैठा दिया, और कहा– देखो !
आंसुओं से तर बतर पलकों को उठाकर देवांशी ने आईने को देखा, सब कुछ धुंधला था, अपना चेहरा भी साफ़ नहीं दिखाई पड़ रहा था । अखिल ने अपने रुमाल से देवांशी के आंसू पोंछे और कहा– अब देखो सब कुछ साफ़ दिखेगा ।
काजल भी रो-रोकर झीना हो गया था, आंखों में होठों का सुर्ख रंग बिखरा पड़ा था, नाक और गाल सिंदूरी हो चुके थे ।
अखिल ने पूछा- कुछ दिखा?
देवांशी ने पीछे खड़े अखिल को पलटकर देखा– क्या?
अखिल देवांशी के बगल में आकर घुटनों पर बैठ गया और बोला– ये तो बताओ ये आंखें किसकी हैं ?
देवांशी ने कहा– ये कैसा सवाल है? मेरी ही हैं !
अखिल ने कहा– फिर गौर से देखो और सोचो?
देवांशी कुछ अचकचाई– क्या कहना चाहते हो?
अखिल ने कहा– तुम्हें अपनी ये बड़ी—बड़ी आंखें तुम्हारे पापा की नहीं लगतीं, और तुम्हारी मम्मा का रंग और चेहरे की गोलाई तुम्हारे इस मुखड़े को आकार और रंग नहीं देती क्या? तुम्हें नहीं लगता अपनी इस तीखी नाक और नुकीले सफ़ेद-सफ़ेद दांतों में अपनी दादी और बुआ को साथ ले आई हो ?
देवांशी खुद को गौर से देख रही थी, सच ही तो था, उसका चेहरा सब कुछ चुरा लाया था, देवांशी धीमे से मुस्करा रही थी, गालों पर नमकीन बूंदें ढुलक रही थीं।
अखिल ने हाथ थामा और कहा– किसने कहा, तुम सब कुछ छोड़ आई हो, देखो सब तो तुम्हारे साथ आए हुए हैं, इनको दुनिया की कोई शक्ति तुमसे अलग नहीं कर सकती। रही नाम की बात तो चलो तुम्हारे साथ हम भी अपना नाम बदल डालेंगे, क्यों क्या कहती हो? तुम आज से मिसेज अखिल और हम मिस्टर देवांशी! दोनों हंस पड़े!
देवांशी हंसते-हंसते फिर सीरियस हो गई और कहा– तुमने जो कहा वो सब बिल्कुल सही है लेकिन इस तरह अचानक आपको किसी और नाम से कोई बुलाए कैसा महसूस होगा जरा सोचो? और जब-जब मुझे नये नाम से बुलाया जायेगा क्या मेरे अस्तित्व को चोट नहीं पहुंचेगी? क्या मैं चाची को, इस पूरे परिवार को दिल से अपना पाऊंगी? क्या मेरे भीतर ये नाम की फांस मुझे नये रिश्तों में सहजता से ढलने देगी?
अखिल ने कहा– मैंने कब कहा कि तुम गलत हो, मैं तुम्हारी हर एक बात को मानता हूं लेकिन तुम ही कहो मैं क्या करूं? मैं चाची को भी दु:खी नहीं कर सकता और तुम्हें भी नहीं।
कमरे में ख़ामोशी बहने लगी, दीवारें, परदे, सब बातें कर रहे थे बस अखिल और देवांशी चुप थे, इतनी सारी बातों के बाद भी ख़ामोशी के बोलने की गुंजाइश बची थी। तभी दरवाजा खड़का, सामने चाची थीं!
दरवाजे पर चाची को देखकर, अखिल और देवांशी खड़े हो गए। देवांशी धरती में आंखें गड़ाए चाची से ना जाने क्या-क्या कह देना चाहती थी लेकिन हिम्मत ही ना हो सकी।
चाची ने कहा– बेटा! बिटिया के तीन जनम होते हैं, एक जब वो पैदा होती है, दूसरा जब ब्याह के आती है और तीसरा जब मां बनती है, और हर जनम में उसे एक नाम मिलता है, दुनिया में आने पर मां-बाप का दिया नाम, ससुराल में सास का दिया नाम, और मां बनने पर बच्चों का दिया नाम, सो नाम तो रखा ही जाएगा, अब ये रस्म कल शाम को होगी, तैयार रहना!
इतना कहकर चाची निकल गईं। देवांशी बेड पर धम्म से बैठ गई, अखिल की उससे कुछ कहने अब हिम्मत नहीं थी, कुछ देर उसे देखता रहा और फिर कमरे से निकल गया।
देवांशी के लिए कुछ भी समझ पाना मुश्किल हुआ जा रहा था। शायद जब गुस्सा हावी होता है तब सब कुछ अपने खिलाफ ही लगता है, इंसान खुद पर दया करके सामने वाले को क्रूर समझने लगता है। लेकिन ये कह पाना भी मुश्किल था कि ये देवांशी का गुस्सा था या फिर उसके अस्तित्व की चोट का दर्द!
सबेरे से रस्म की तैयारियां जोरों पर थी, चाची ने आज पहले से ज्यादा तैयारियां की थीं और धूमधाम से रस्म निभाने का निर्णय लिया था। देवांशी दिन भर से कमरे से बाहर नहीं आई थी, इस रस्म की उधेड़बुन उसे सहज नहीं होने दे रही थी, शाम हो गई, ताई जी कमरे में देवांशी को तैयार करने आ गईं, देवांशी अब तक रोज की शिफोन की साड़ी में बैठी थी, आंखें इंगुरी हो चली थीं, माथे का सिंदूर मुरझाए पलाश सा बिखरा पड़ा था। ताई जी ने देवांशी को तैयार कर दिया, देवांशी बेजान गुड़िया सी बैठी रही।
ताई जी उसे लेकर नीचे आ गईं, देवांशी ने आंखों के किवाड़ उड़का रखे थे, इस शोर के बीच भी उसके दिल में सन्नाटा पसरा था कि अचानक किसी पहचानी सी आवाज ने उसके कानों में दस्तक दी, तो देवांशी ने आंखों के दरवाजे खोले, उसका मुरझाया चेहरा आम की ताज़ी बौर सा खिल उठा, मुरझाए चेहरे पर जैसे किसी ने गुलाब जल के छींटे दे दिए हों, सामने देवांशी के पापा…दादी…मम्मा….बुआ…फूफा जी सब खड़े थे। देवांशी दौड़कर दादी के गले में लिपट गई, जोर–जोर से रोने लगी, कभी पापा के सीने से लगती, कभी मम्मा के, कभी बुआ के। उसकी हिलकियों में से बस एक ही आवाज आ रही थी मम्मा!
इतना तो देवांशी विदाई पर भी नहीं रोई थी…पापा ने देवांशी के सर पर हाथ फेरा…और कहा- क्या हुआ बेटा? इतना मत रो!
देवांशी रोते-रोते ठहर गई और चाची को देखने लगी। चाची सामने के सोफे से उठकर देवांशी के पास आईं, माथे पर हाथ फिराते हुए बोलीं– बेटा! हमने जिंदगी ऐसे ही देखी थी, हमारा नाम क्या है हमें तो याद ही नहीं।
ताई जी के हाथों में हाथ लेकर बोलीं- क्यों जीजी! याद है क्या? मैं चाची बनकर रह गई और जीजी ताई जी, हम औरतों की किस्मत भी यही होती है हम बस रिश्ता बनकर रह जाते हैं, पहचान तो इसमें ना जाने कहां खो जाती है! हम किसी अस्तित्व से जुड़े नहीं रह जाते, बस इन चारदीवारों और उनको संवारने में खत्म हो जाते हैं, हां ये सही है कि एक ही जनम में औरत तीन बार जनम लेती है पर ये शायद हम नहीं समझ पाए कि हर नए रास्ते पर चलने से पहले पुराने घरों को नहीं मिटाया जा सकता, वे तो अमिट हैं, आज तुम्हारा नामकरण तो होगा, पर आज नाम ये तुम्हारी नई माएं चुनेंगी, वो नाम होगा देवांशी!
देवांशी चाची के गले से लिपट गई थी बिलकुल गाय के बिछुड़े बछड़े की तरह, नया जन्म अब मिलन की ख़ुशी बन रहा था, रिश्तों की गांठों में नया बंधन जुड़ गया था।