‘‘मिसेज नंदा आप कब आई?’’ अपने किचन की खिड़की से ही मिसेज कुलकर्णी ने आवाज लगाई। मिसेज नंदा अपने लाॅन में बैठी हुई अपने पौधों को निहार रही थी। ‘कल रात ही आई हूं’ अपने एकांत में खलल की दखल देती मिसेज कुलकर्णी के सवाल का मिताली ने जवाब दिया। ‘शाम को मिलते हैं मिसेज नंदा। अभी तो दिन शुरू हुआ है। आराम से काम निपटाकर शाम को आपके लाॅन में ही गप्पे मारेंगे।’ मिसेज कुलकर्णी चहकीं। ‘ओके मिसेज कुलकर्णी शाम को मिलते हैं।’ मिताली ने जवाब दिया। बाज की पकड़ से छूटे पंछी की तरह मिताली ने राहत की सांस ली और अपने पौधों को पानी देने लगी। उसके लाॅन में लगे पौधों की पत्तियां चार दिन में ही मुरझा गई थीं। रात की रानी के फूल खिलते-खिलते रह गए थे। गुडहल के पौधे पर लगा एकमात्र गुडहल सूखकर नीचे झड़ चुका था। चम्पा के पौधे का नया पत्ता जो आने को आतुर था वह अपनी खोल में ही सूख चुका था। इन चार दिनों में क्या नहीं बीता उसके पौधों के साथ। इस भीषण गर्मी में बेचारे कब तक संघर्ष करते लेकिन शायद दो-चार दिनों की अच्छी देखभाल के बाद फिर हरे-भरे हो जाएं। मिसेज नंदा यानी मिताली सोचकर आश्वस्त हुई। पौधे हैं, बेचारे फिर खिलेंगे। उसके जीवन की कलियां भी तो ऐसे ही सूख गई थीं खिलते-खिलते। उसकी कलियों रूपी इच्छाओं की कौन देखभाल करता है। वही अकेली है जो सजाने-संवारने में लगी रहती है अपने जीवन की बगिया। वरना कई ऐसे भी हैं जो उसके जीवन की कलियों को रौंदकर आगे बढ़ जाते हैं। उनके जाने के बाद वीरान-सी रह जाती है उसके जीवन की बगिया जो फिर हरी-भरी होने में थोड़ा समय तो लेती है।
आज की खबरें कितनी आहत करने वाली हैं। इराक में बसे भारतीयों को वहां के सबसे सशक्त आतंकवादी संगठन द्वारा बंधक बना लिया गया है। बेचारे परिजनों के चेहरे अपनों की वापसी के लिए कितने विकल हैं। भारत की तरफ से क्या कदम उठाए जा रहे हैं इसी पर सबकी निगाहें टिकी हुई हैं। किसी की बेटी, किसी के पिता, मां, बहन कितने ही रिश्ते आज दूर देश में आतंक की गिरफत में हैं। हालांकि भारत सरकार की तरफ से आश्वासन आया है कि सभी भारतीय सुरक्षित हैं। आज अवश्य ही उनके परिजन उनके इस फेैसले पर पछता रहे होंगे जब उन्होंने अपनों को अच्छे जीवन के लिए उस देश में भेजा होगा। क्या हुआ अगर रूखी-सूखी खाते पर रहते तो अपनी नजरों के सामने। इस करुणा मिश्रित घटना पर नंदा अकुला उठी। अपने हृदय के गहन तहखानों में जिस पीड़ा को वह हमेशा के लिए दफन करने का मन बना चुकी थी वह पीड़ा अनायास ही आंखों की कोरों से छलकने को आतुर थी। पीड़ा तो पीड़ा होती है चाहे अपनी हो या परायी। उन भारतीय बंधकों में कहीं उसका अपना बेटा वरूण भी हो सकता था।
वरूण आई.आई.टी. रूड़की से इंजीनियरिंग के पहले साल में है अभी। उसको भी मिताली कहां रोक पाई थी अपने पास। वह भी तो अपनी पढ़ाई के बाद विदेश जाने का मन बनाए बैठा है। सब चले जाएंगे। पीछे रह जाएगी मिताली। अजय को भी कहां रोक पाई वह़़…अजय से भी जब नीरव से अलग होने के बाद मिली थी तो लगा था कि अब कभी अकेली नहीं रहेगी । नीरव से अलग होने के बाद कई महीनों तक खुद को नहीं संभाल पाई थी वह। अजय नंदा के उसके जीवन में आने के बाद उसकी सूखी डाली से कोंपलें फिर बाहर आने लगी थीं। वरूण के बचपन को भी अजय ने संभाल लिया था।
मिसेज कुलकर्णी शाम को आई तब तक मिताली पांच दिनों से बिखरे घर को समेट चुकी थी। घर में जान आ गई थी। बैठक इतनी सुसज्जित लग रही थी जैसे अभी-अभी यहां से चहकते हुए लोग उठे हैं। पांच दिनों की भाग-दौड़, थकान उसके चेहरे से गायब हो चुकी थी। मिसेज कुलकर्णी मिस्टर कुलकर्णी की प्यारी सुंदर गोल-मटोल सी पत्नी थी। उनको देखते ही किसी के भी चेहरे पर मुस्कान आ जाना स्वाभाविक था। मिताली की अपने पड़ोस में मिसेज कुलकर्णी से अच्छी बनती थी। पर मिताली अपनी तन्हाइयों में कभी-कभी मिसेज कुलकर्णी का भी दखल नहीं चाहती थी। हां, कुछ-कुछ भनक मिताली के पहले विवाह के टूटने की मिसेज कुलकर्णी को थी। दो साल पहले ही इस सोसाइटी में शिफ्ट हुआ यह परिवार पति-पत्नी और एक बेटे के साथ एक समृद्ध,पढ़े-लिखे परिवार के रूप में जाना जाता था। यहां आते ही अजय को कंपनी ने चार साल के लिए बंगलौर भेज दिया था और वरूण रूड़की चला गया था। पीछे रह गई थी मिताली अपने सुसज्जित एच.आई.जी. फ्लैट में।
‘मि0 नंदा कैसे हैं मिसेज नंदा? पिछले चार महीने से नहीं दिखे। आप ही चली जाती हैं उनसे मिलने।’ मिसेज कुलकर्णी बोली।
‘हाँ। मिसेज कुलकर्णी कंपनी बार-बार छुट्टी नहीं देती। सो मैं ही चली जाती हूं उनके पास। और वैसे भी मुझे कौन सा काम है यहां। वरूण भी नहीं है यहां।’
नंदा और मिसेज कुलकर्णी शाम ढले तक बतियाते रहे। मिसेज कुलकर्णी अपनी बातों का टोकरा खाली कर चली गईं पीछे रह गई नंदा अपने सुसज्जित फलैट में अकेली। सामने पार्क में बच्चे खेल रहे हैं। धीरे-धीरे अंधेरा घिर रहा है। पार्क की लाइट्स जल चुकी हैं पर कुछ बच्चे अभी भी पार्क में डटे हुए हैं उनकी माएं उन्हें पुकार रही हैं पर बच्चे हैं कि ‘बस पांच मिनट और’ कहकर अपनी-अपनी मांओं की बैचेनी बढ़ा रहे हैं। कितना सुखद लगता है यह दृश्य। नंदा इस दृश्य मैं जैसे खुद भी इन्वाल्व हो गई है। आज से आठ-दस साल पीछे जाएं तो इन्हीं मांओं में कभी वह भी थी और वरूण भी ‘बस मम्मी पांच मिनट और’ कहकर उसे इंतजार करने को कहता था। जैसे कल ही की बात हो। कुछ साल पहले इन्हीं बच्चों में उसका वरूण भी था और आज वही वरूण अपने सपनों को पूरा करने उससे दूर चला गया है। कभी-कभी मिताली को आश्चर्य होता है कि हमेशा उससे चिपका रहने वाला वरूण इस तरह उससे दूर भी जा सकता है। नीरव से तलाक के बाद तो वरूण उसे एक पल के लिए भी नहीं छोड़ता था। इस दुनिया में मां-बेटा ही एक दूसरे के अपने थे उन दिनों। नीरव अपने बेटे से भी मिलने नहीं आता था। बेचारा बरूण समझ नहीं पाता था कि उसके पापा अब बाकी सब बच्चों के पापा की तरह शाम को घर क्यूं नहीं आते। हर शाम वह अपने पापा का इंतजार करता पर नीरव को आना ही नहीं था तो वह क्यूं आता।
नीरव चला गया था वरूण और नंदा के जीवन से। अपने पीछे बहुत सारे सवाल छोड़कर। उन सवालों के जवाब रिश्तेदारों और पड़ोसियों को देते-देते नंदा थक चुकी थी और एक दिन उसने सबकी नजरों और सबके प्रश्नों से बचने के लिए वह काॅलोनी ही छोड़ दी थी। पड़ोसी हैरान थे कि इस सुखी दम्पत्ति के एक छोटे-से परिवार में ऐसा क्या हुआ कि दोनों अलग राह चल पड़े। तलाक लेने से पहले बच्चे के बारे में भी नहीं सोचा।
शाम को रौंदते हुए अचानक से रात उतर आई थी। सुबह घर से काम को निकले लोग अब लौटने लगे थे। यह समय नंदा के लिए सबसे कष्टकर होता था। वरूण जब से इंजीनियरिंग काॅलेज गया है तब से हर शाम उसे अखरने लगी है। उससे फोन पर बात करके ही अपनी ममता को मना लेती है वह।
सुबह-सुबह स्नेहा का फोन आया था। शाम को एक साहित्यिक गोष्ठी में जाने का निमंत्रण था। मना नहीं कर सकी थी मिताली। संगम परिसर में गोष्ठी का आयोजन था। प्रतिष्ठित वक्ता आने वाले थे। मिताली के अंतस में कई झरने एक साथ बहने लगे थे। साहित्य में उसकी गहरी रूचि थी। पाँच साल पहले साहित्य के अध्यापन से उसने वी.आर.एस. ले लिया था पर किताबों का मोह अभी भी नहीं छूटा था। नीरव से तलाक के बाद उसका जीवन ही बिखर गया था। इस बिखराहट में अपनी नौकरी के साथ न्याय नहीं कर पाई थी वह। लंबे समय तक डिप्रेशन में रहने के बाद अंततः उसने स्वेच्छा से रिटायरमेंट ले लिया था। और अपने आपको पूरी तरह से वरूण की देखभाल में समर्पित कर दिया था। पर एक दिन अचानक ही अजय उन दोनों के बीच आ गया था। नंदा के सूखते सोते फिर से बहने लगे थे लेकिन उनमें बरसाती सोतों जैसा उद्दाम प्रवाह नहीं था। वहां थी शांत, गंभीर, मंद गति से बहती नदी जिसकी चंचलता उसके तट भी बिसरा चुके थे।
गोष्ठी बहुत सफल रही थी। विषय भी अच्छा था—‘वर्तमान साहित्य दशा और दिशा।’ सभी वक्ता इस विषय पर धारा प्रवाह बोले। नंदा की शाम सार्थक हो गई थी। अपने निजी जीवन के चिंतन से निकलकर साहित्य चिंतन कितना सुकून देता है। लगता है मन रूपी पंछी जिज्ञासा के पर लगाए ज्ञान की ऊंचाइयों को छूने को आतुर है। घर जाकर वही खालीपन काटने को आएगा। यहां अलग माहौल है। पति, बच्चे, घर की कोई बात ही नहीं है। सभी एक दूसरे से परिचयात्मक सूत्र में बंधे, एक दूसरे को आगाामी कार्यक्रमों की सूचना देते मुस्कुराते चहरों के साथ विदा लेते हैं। भले ही उनके अपने घरों में उनकी अपनी-अपनी दुखती रगे हों पर यहां एक पल को सभी सब कुछ बिसरा कर एकराग हो उठते हैं।
समय रेत के कणों की तरह बंद मुट्ठी से रिसता हुआ चला जाता है। मुट्ठी खुलने पर हथेली पर कुछ ही कण चांदी की तरह चमकते नजर आते हैं। ऐसी ही चांदनी मिताली के बालों में भी कानों के उपर झलकने लगी थी पर उसने कभी इस चांदनी को छुपाने की कोशिश नहीं की। यह चांदनी उसके सलोने चेहरे पर चार चांद ही लगाती थी शायद उसके इसी सलोने चेहरे और सादगी की तरफ अजय आकर्षित हुआ था। सरिता की बहन की सगाई में महिलाओं के लिपे-पुते चेहरों के बीच जब अजय नंदा ने उसे देखा था। वैसे चालीस पार के आकर्षक अजय नंदा को मिताली भी अनदेखा नहीं कर पाई थी। उसी शाम को हुई एक छोटी-सी मुलाकात दोनों को तीन महीने बाद ही दाम्पत्य सूत्र में बांध गई थी। अजय अकेला था तीन साल पहले उसकी पत्नी उसे तलाक देकर जा चुकी थी। इससे ज्यादा मिताली ने जानने की कोशिश भी नहीं की। अजय को भी मिताली के पिछले जीवन से ज्यादा सरोकार नहीं था। भरपूर युवा उम्र में लम्बे समय का एकाकीपन अजय और मिताली में एक गंभीरता लेकर आया था। एक बहुत ही प्रौढ़ दम्पति की तरह दोनों ने अपने नए जीवन की राह पकड़ी थी वरूण के साथ। पर कुछ महीनों बाद ही अजय को बंग्लौर जाना पड़ा। पीछे रह गए मिताली और वरूण। और एक दिन वरूण भी चला गया अपनी इंजीनियरिंग की पढ़़ाई के लिए।
‘तुम भी चली जाओ अजय के पास। यहां खाली दिन भर क्या करोगी’ एक दिन मिसेज कुलकर्णी ने ही कहा था। और साथ में यह भी उन्होंने अपनी बात में जोड़ दिया था ‘एक समझदार पत्नी की तरह यही कहूंगी। पति को कभी भी अकेला मत छोड़ो।’ पर उसने जवाब में यही कहा था ‘वहाँ बहुत काम रहता है अजय को। देर रात घर आते हैं। सुबह जल्दी निकल जाते हैं। तो क्यों न यहीं रहूं। आने-जाने का क्रेज भी बना रहता है और पीछे घर की संभाल भी हो जाती है।’
कई महीनों के बाद आज मिताली उमंग से भरी हुई थी। वरूण छुट्टियों में घर आने वाला था और शायद अजय भी आ जाए। अजय ने मिताली को कहा तो था। मिताली दोनों का ही बेसब्री से इंतजार कर रही थी। और पिता-पुत्र दोनों साथ आए थे मिताली के खालीपन को भरने के लिए। अजय पहली बार बंगलौर से एक हफ्ते की छुट्टी लेकर आया है वरना हमेशा मिताली ही चली जाती है अजय के पास। इस बार बात ही कुछ और है। कितना कुछ है करने के लिए। वरूण की पसंद के व्यंजन बनाने होंगे जब तक वह यहां रहेगा। अजय के साथ दोनों मां-बेटा घूमने चलेंगे। मिताली सोच कर ही खुश है। उसका छोटा-सा परिवार फिर एक होगा।
अजय और वरूण दोनों आए थे। परिवार एक हो गया था। युवा होते वरूण और प्रौढ़ होते अजय के ठहाके घर में गूंजने लगे। मिताली के चेहरे पर दिन भर मुस्कराहट रहती। उन दोनों के जाने के बाद अपने आने वाले खालीपन को वह उन ठहाकों से भरना चाहती थी। दोनों के मित्र आते रहे। घर में रौनक छा गई। घर की साफ-सफाई और सजावट में लिप्त रहने वाली मिताली अजय और वरूण की फैलाव की आदत को जानबूझ कर बिसरा उनकी फैलाई चीजों को खुद ही समेटने लगी। कितना अंतर आ गया है उसके स्वभाव में। कहां उसने वरूण को घर में साफ-सफाई और चीजों को करीने से रखने की हिदायतों के बीच पाला-पोसा। घर का बिखराव कभी भी उसे पसंद नहीं आया। नीरव को भी सफाई बहुत पसंद थी पर अजय थोड़ा लापरवाह था। मिताली को अजय की यही लापरवाही बेहद पसंद थी।
दो साल बाद अजय बंगलौर से वापस आ गया। कंपनी ने उसका तबादला दिल्ली कर दिया था। इस बीच मिताली अजय के पास बंगलौर आती-जाती रही। अब अजय हमेशा के लिए उसके पास आ गया था। कई कोशिशों के बाद भी उसे अजय के व्यवहार में वह आदतें नहीं दिखती थी जिन कारणों से वह अजय से नाराज रहती थी। हाँ, एक दिन अजय मिताली की इस बात पर नाराज जरूर हुआ था जब उसने दोबारा नौकरी करने की बात कही थी। अजय के खीज भरे शब्द आज भी उसके कानों में गूंजते हैं ‘‘क्या जरूरत है तुम्हें नौकरी करने की। सब कुछ है तुम्हारे पास। रिजाइन के बाद अब क्यों चाहती हो नौकरी। घर संभालो, वरूण है, मुझे संभालो’’
‘पर मैं दिन भर…’ शब्द अटक गए थे मिताली के गले में।
पहली बार अजय बिना मिले ऑफिस चला गया था। दिन भर उसका फोन भी नहीं आया।
समझ गई थी मिताली जिस बात पर दूरिया बननी शुरू हो जाएं वो कोशिश अब नहीं करनी। उसका अतीत उसका शिक्षक बनकर हमेशा जो उसके साथ था। फिर मिताली ने कभी जिक्र ही नहीं किया। उसे याद आया कि किस तरह नीरव उसके वर्किंग होने को उसकी सबसे बड़ी कामयाबी मानता था। एक आत्मनिर्भर, स्वाभिमानिनी पत्नी का पति होना उसके लिए गर्व की बात थी। ऐसी पत्नी का पति होने के लिए उसने खुद को भाग्यशाली माना था…
मिसेज कुलकर्णी की बातों में अब उसे ज्यादा रस नहीं आता था। उन बातों में पड़ोसनों के नखरे, बदलते हेयर स्टाइल और साड़ियों की रंगीनियों के अलावा ज्यादा कुछ नहीं होता था। अपने मन का धरातल वह मिसेज कुलकर्णी के साथ नहीं बांट पाती थी। अब कभी-कभी उनके साथ माॅल जाने के आग्रह को भी वह ठुकरा देती थी। अजय के ऑफिस जाने के बाद का अकेलापन वह अपने फूलों के साथ ही बांटना ज्यादा पसंद करती थी।
वरूण इन छुट्टियों में घर नहीं आया था। उसने हाॅस्टल में ही पढ़ना ज्यादा मुनासिब समझा। घर आने-जाने में समय ही बर्बाद होगा। मिताली जहां वरूण के इस निर्णय से खुश थी वहीं थोड़ा परेशान भी थी। बेटा अपनी पढ़ाई में मगन है, समय बर्बाद नहीं करना चाहता पर मां की ममता को वह समझा नहीं सकी। सब बातों से ध्यान हटा अब वो अपने आप को समय देना चाहती है। अभी तैंतालीस ही तो पूरा हुआ है उसे। यौवन ढल चुका है, आंखों के कोरों पर पतली लकीरें बनने लगीं हैं, उम्र हाथों से छूुटती चली जा रही है। अजय कभी-कभी उसे इस भागती उम्र पर लगाम कसने को कहता है। जिम, वर्कआउट, फिटनैस पर कभी कभी लैक्चर भी देता है। उसे बुरी भी नहीं लगती अजय की बातें। इसमें बुराई क्या है। थोड़ा ध्यान दे तो अपनी दिनचर्या में थोड़ा से बदलाव लाकर उम्र के इस भागते घोड़े को लगाम देकर कस सकती है। अजय यही चाहता था। उसके दबे-दबे स्वर उसकी इच्छा को मिताली के सामने प्रकट कर ही देते थे। अपने फैमिली फंक्शन और ऑफिशियल फंक्शन्स में वह मिताली को गर्व से ले जाना चाहता था। अपने अतीत हुए रिश्ते की कडुवाहट को वह पूरी तरह से अपने जीवन से निकाल देना चाहता था। मिताली से जुड़ा उसका नया रिश्ता अभी-भी लोगों की कसौटी पर था। मिताली को वह हर जगह शामिल करना चाहता था।
पर मिताली बहुत जल्दी उब गई अपनी बदली हुई दिनचर्या से। वह उकता गई थी। जीवन का यह रूप उसे बहुत कृत्रिम सा लगा, असहजता से भरा हुआ। अजय ने भी उसके हाल पर छोड़ दिया। सुबह आराम से उठना, उठकर न्यूजपेपर पढ़ना फिर आराम से अपने दैनिक कामों में लगना। शांता सारे काम संभाल ही लेती है। दिन भर न्यूज चैनल या अपनी पसंद के धारावाहिक देखना और अजय के फोन का इंतजार करना और अजय जल्दी आ जाए तो दोनों शाम को कहीं घूमने चलते और डिनर बाहर ही करके आते।
अजय को इन पांच सालों में मिताली बखूबी जान चुकी है। उसकी आदतें, उसका व्यवहार, सब उसकी नजरों ने भली भांति परख लिया हैै। कब किस बात पर अजय चुप्पी साध लेगा, किस बात पर उसकी बोल पडे़गा, वह क्या सोच रहा है, क्या कहने वाला है, इस सब को उसने एक गंभीर पर्यवेक्षक की तरह परखकर आत्मसात कर लिया है। नीरव से अलग होने के बाद के सूनेपन को वह दोबारा अपने जीवन में नहीं आने देना चाहती। उसे हर हाल में अजय के साथ अपना बाकी जीवन हंसी-खुशी तय करना है। वरूण भी आगे चलकर अपने परिवार में व्यस्त हो जाएगा, उसका अपना जीवन होगा, पर वह भी अपने जीवन में व्यस्त रहेगी अजय के साथ। अपने अतीत को बिसरा अब वह अजय के साथ खुश रहेगी। इस बार उसे नीरव की तरह जाने नहीं देगी।
शाम घिरने लगी थी। मिताली वरूण से फोन पर बात कर अभी बैठी ही थी। शाम का अकेलापन उसके भीतर घबराहट पैदा करता है। बच्चों का शोर पार्क में गूंज रहा है। धीरे-धीरे ये आवाजें कम हो रही हैं। बच्चे अपने-अपने घरों को लौट रहे हैं। ये आवाजें अब उनके घरों में गूंजेगी। मम्मी पापा की डांट का, उनकी मनुहार का, जिद का, अंतहीन बहसों का दौर शुरू होगा। उनकी माएं उन्हें होम वर्क को कहेंगी, टीवी हाई वाॅल्यूम पर चलेगा। हर धर में एक शोर गूंजेगा पर उसके घर में अभी सन्नाटा पसरा हुआ है। मिताली के कान उस शोर की दिशा में लगे हैं। तभी गाड़ी का हाॅर्न सुनाई दिया। मिताली ने देखा अजय की गाड़ी है। उसने मुस्कराहट दबाकर सोचा आज देरी से आने के लिए अजय को झूठ-मूठ ही सही गुस्सा तो करूंगी।