एकदम साफ नीले रंग का आकाश था
हवा भी मीठी मीठी सी थी
मैं प्रकृति का आनंद उठाने के लिए
निकल पड़ी घर से दूर सैर को
देख रही थी मैं पेड़ों को लहराते हुए
इक्का-दुक्का पंछी
और सुन रही थी हर कोने से
बच्चों के खेलने की आवाज़ें
उन आवाज़ों ने जागृत किए
मानस पटल पर कई चित्र मेरे बचपन के
वो चित्र जिनकी याद है मुझे
नहीं था याद मुझे
कब सोचा था सहेलियों के साथ खेलते हुए
कि याद करूँगी उन खेलों को वर्षों बाद
विदेश में टहलते हुए!
उन बच्चों की आवाज़ों के साथ
धीरे धीरे जुड़ने लगीं
अलग अलग भाषाओं में
बच्चों को घर बुलातीं परिपक्व आवाज़ें
उनकी भाषा को न जानते हुए भी
समझ आ रही थी
माता-पिता की चिर परिचित आवाज़
जो शाम ढलने पर दी जाती थी मुझे हर रोज़
उस आवाज़ के आते ही होता था अवसाद
अवसाद खेल छोड़ने का,
सखी से बिछुड़ने का
होती थी जब देर
लगता था डर, डाँट पड़ने का
उन आवाज़ों के साथ
उभरने लगे मानस में नए चित्र
नानी के घर के, गर्मियों की छुट्टी के
पहाड़ की यात्रा के, पार्क में हर शाम के
और सुनाई देने लगी वही पुकार
पुकार जो कभी प्यार से, कभी चिंता से,
कभी गुस्से से कहती थी घर आने को
आसमान में लालिमा आने लगी
धीमी होती गईं सभी आवाज़ें
हट गए सब चित्र
आकाश के गहरे रंग की तरह
गहराती गई याद अपने माँ-पापा की
और मैं भटकती रही घर से दूर
इंतज़ार में उस पुकार के
जो बुलाएगी मुझे भी घर
कहेगी अधूरे काम करने को पूरे
खाना खाने को, समय से सोने को
लेकिन किसी ने पुकारा ही नहीं
चाँद का सहारा लिए मैं
घर जाने का इंतज़ार करती रही
न जाने कब तक!