बादलों को देखकर हमेशा ही अच्छा लगता है
कभी रूई से लगते हैं
कभी बूढ़े बाबा की दाढ़ी जैसे
कभी गोल मटोल बच्चे की तरह
तो कभी कल्पित जानवर से
मैं रोज़ उन्हें देख कर कोई प्रतीक
बना लेना चाहती हूँ
उनकी तुलना किसी से करने की
कोशिश में निरंतर जुटी रहती हूँ
क्यों नहीं देख पाती
मैं बादल को ही बादल में
क्यों तलाशती रहती हूँ
किसी और को किसी और चीज़ में!
कब आएगा अपनाना मुझे
हर चीज़ को उसके अपने रूप में
स्वीकारना सब को वैसा का वैसा
बिना तुलना के सहजता से!