(एक)
आंसू ढलक गया
तेरे चले जाने से दिल का कोई हिस्सा दरक गया
और मेरी आँखों में छुपा हुआ आंसू ढलक गया
तू तो साँसों में बसा था कुछ रहा दिल के भीतर
जी भर के जो देख लिया तन मन महक गया
कुछ तो हुआ है मौसम की पहली रिमझिम जैसा
तेरी यादों का कोई हिस्सा यहाँ आ के बरस गया
हम जिन्हें खोजते रहे यादों के दरीचों में जा के
उनका एहसास बर-अक्स मुझे आ के लिपट गया
जितनी शिद्दत से याद किया है मैंने तुझे चारों पहर
उतनी ही कोशिशों से औरों का परलोक सुधर गया
(दो)
अपना आईना
मैं अपना आईना तोड़ के आज़ाद हो गया हूँ
पूरी खला में जैसे फिर से आबाद हो गया हूँ
बहुत अरसे चला था अबोला बीच में अपने
कोरे काग़ज़ पे अब मैं अलफ़ाज़ हो गया हूँ
प्यार इतना पाया है हमेशा दोस्तों से हर क्षण
इस वजह अब ज़िंदगी से मैं फ़राग हो गया हूँ
पहले ज़रा सी बात पे परेशान हो जाता था
इतना सहा है अब दर्द का अहबाब हो गया हूँ
जब भी उसकी उँगलियाँ थिरकती हैं बदन पे मेरे
मुझको लगता है उस क्षण मैं रबाब हो गया हूँ
*फ़राग: संतोष
*अलफ़ाज़: शब्द
*अहबाब: मित्र
(तीन)
गिरगिट
गिरगिटें भी शर्म खाती हैं तमाशे देख कर
आस्थाओं को बदल डाला है आपने जिस पेस पर
वो हमें मामू बना के रास्ते में ही कट लिए
शर्म ज़रा दीखे नहीं है फिर भी उनके फ़ेस पर
कितनी तारीख़ें पड़ी हैं याद है हम को नहीं
फ़ीस मोटी ले रहे हैं लॉयर अब तक केस पर
बहुत सारे दिन बिताए उसने अपने जेल में
यह पता अब तक नहीं है वो गया किस बेस पर
कितनी सरदी लग रही लन्दन में आ के दोस्तों
इक रज़ाई चार कम्बल ओढ़ रखे हैं पुराने खेस पर
(चार)
सँवरती है वो
वो जब भी इधर से गुजर के जाती है
फ़िज़ा उसके एहसास से महक जाती है
नाम जो आ जाए कभी उसका ज़ुबां पे मेरे
एक हसरत सी दिल में मचल जाती है
जब भी ज़िंदगी में अंधेरा सा नज़र आता है
वो कहीं पर दिए की लौ सी दमक जाती है
जब भी उस से निगाह मिल जाती है
पंखुरी की तरह वो खुद में सिमट जाती है
वो तो उन्मुक्त हवा का झोंका लगे है मुझको
जिसके आगे रुत भी बहक जाती है
क्या बताऊँ उसकी उदासी का सबब तुमको
वो अकेले में जुगनू सी भटक जाती है
वो उतर जाती है मेरी रूह के भीतर तक
तिशनगी फिर भी चेहरे पे नज़र आती है
(पाँच)
फ़ायदा हिज़ाब का
मिलता है बहुत फ़ायदा उनको हिज़ाब का
खर्चा तमाम बच रहा है उनके ख़िजाब का
कितनी है ठंड दोस्तों इस बार होली पे
उसने तो खोल रक्खा है खंबा शराब का
दिन भर घूमती हैं उँगलियाँ मोबाइल पे
फिर काम क्या बचा है घर में किताब का
बच्चे का नाम रख लिया हमने विकास ही
पूरा न हुआ लक्ष्य जो अपना विकास का
सर्दी ग़ज़ब की लग रही हाथों में इस वक्त
दस्ताना बना लिया है हमने अपने जुराब का
(छह)
सोचता हूँ
इधर सोचता हूँ न उधर सोचता हूँ
ज़िंदगी हर वक्त मैं तुझे सोचता हूँ
मेरी ज़िंदगी का टॉनिक है वो
ये कैसे बता दूँ उसे सोचता हूँ
मसाइल हैं वो सब मिरी ज़िंदगी के
ग़लत क्या अगर मैं उन्हें सोचता हूँ
उन को शिकायत है मुझ से बहुत
हर वक्त मैं इतना क्यों सोचता हूँ
आदमी हूँ इस वजह लाज़िम है यह
सोच कर मैं वापस फिर सोचता हूँ
मोहब्बत में हासिल हुआ क्या मुझे
सब कुछ लुटा के मैं ये सोचता हूँ
तुम्हारे नरम रेशमी एहसास को
जो तुम हो नहीं तो उसे सोचता हूँ
(सात)
कठपुतलियाँ
कुछ दोस्तों का साथ रहा कुछ अपने काम से
पहुँच सके बहुत मुश्किलों से हम इस मुक़ाम पे
घर से चला था साथ मिरी माँ की दुआ रही
सायबां बन के बचाती रही वो मुझको घाम से
अच्छे ख़ासे आदमी थे बन गए कठपुतलियां
नाचते हैं जातियों और मज़हबों के नाम पे
कोशिशें जो कर रहे हम को ख़रीदने की प्रदीप
देख लो करके मुहब्बत बिक जाएँगे बिन दाम के
प्रार्थना या अर्चना के लिए मंदिर ज़रूरी है कहाँ
दिल में बस जाएँगे तुम्हारे जो भरोसा राम पे