यदि आपको चाहिए
‘प्रगतिशीलता’ की प्रतिनिधि
कोई कविता
जो हो ‘अकादेमी’ के लिए सर्वोत्कृष्ट!
जिसे पढ़कर सजी-धजी किसी सभा में
की जा सके अच्छी-खासी कमाई।
जिसके तेज से दीप्त हो उठे
क्रांति।
तो लीजिये एक पंक्ति‒
‘लोकतंत्र खतरे में है!’
खोजिये
एक अन्य पंक्ति‒
‘यह संघर्ष का दौर है।’
उठाइये एक और
(जैसे ‘पीते’ वक्त चिमटी से उठाते हैं बर्फ)‒
‘इस कठिन समय में’
अतिशय बैद्धिक
वेदना से अटी,
चिंतन से सरोबार
दशकों से ऋचा- सम उच्चारित
इन तीन पंक्तियों को शब्दों की लसलसी गोंद से
परस्पर चिपकाइये
चिपकाते वक्त
तुक न बने तो चलेगा
बस! तुनक का ज़रा खयाल रखिये।
और हाँ,
आँखें जरा बंद।
(खुली आँखों से कविता में ‘जाना हुआ’ किन्तु
‘अनचाहा’ भी आ सकता है।)
चिपकाने के
‘पुरस्कृत कवियों’ के
इस फार्मूले के तहत जोड़ी गयी ये पंक्तियाँ
यदि ढंग से चिपकी तो कुछ ऐसे
मटकती-सी दिखाई देगी‒
“संघर्ष के इस दौर में
हमें, आगे बढ़ना है साथी।
संघर्ष के इस दौर में
हाथी बन अड़ना है साथी
संघर्ष के इस दौर में
भेड़िया बन भिड़ना है साथी”
* * * * * * * * * * * *
“यह समय
लोकतंत्र पर खतरे का
समय है
यह समय
कठिनाई से भरा
प्रमेय है
इस समय में
लड़ने वाला अभय है”
अब
भुजिये-सी चटपटी, ताजा
और गरमा-गरम इस कविता को
हर ‘उत्तर’ के विरुद्ध सवाल की तरह पटकिये,
जब-जब जी मचले या हो जाय आफरा खुन्नस का,
त्रिफला समझ- गटकिये।
जागते- सोते हुए
भागते- बोते हुए ( बीज को)
उठते हुए
कूटते हुए (अनाज को)
“हर-क्षण दोहराइये‒
‘लड़ना है
अड़ना है
भिड़ना और
बढ़ना है।”
कोरस में गाइये
कवि कहलाइये।