समीक्ष्य पुस्तक ‘क्षितिज पर एक पगडंडी’ कविवर वरुण कुमार तिवारी की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन है। डॉक्टर शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी द्वारा संपादित इस कविता-संग्रह में छोटी-बड़ी कुल 83 रचनाएँ हैं, जो कविश्री वरुण के तीनों काव्य-संकलनों से चयनित हैं। कुल 182 पृष्ठों की इस कविता-पुस्तक को प्रकाशित किया है गाजियाबाद के विकास पब्लिशर्स और डिस्टीब्यूटर्स ने।
कविता समाज-जीवन में मानवीय चेतना का संविस्तार करती है। मानवीय संवेदना को जगाने के पर्यायवाची के रूप में भी इसे रेखांकित किया गया है। वस्तुतः कविता रचनाकार की अनुभूतियों की रसात्मक अभिव्यक्ति होती है। यह ठीक है कि कविता में ‘स्व’ का ही संप्रसारण होता है, किंतु वह होता तो समाज के लिए ही है। कविता रचनाकार की आत्मा से अभिव्यक्त होकर पाठक की आत्मा को गढ़ती है। रचना जब पाठक तक पहुँचती है तो साधारणीकृत हो जाती है। अर्थात् रचनाकार और पाठक के बीच तादात्म्य स्थापित होने के कारण यह विभावन ही रचना को सार्वजनीन बना देता है। काव्योन्मेष का क्षण किसी कवि के लिए कितना भी कष्टसाध्य क्यों न हो, पाठक तक पहुँचकर उससे आनंद की ही सृष्टि होती है। यही कारण है कि संवेदनशील समाज की सर्जना में रचना की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। रचनाकार की जीवन की सार्थकता इसी बात में है कि वह समाज को जीना सिखाता है। इसलिए महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि कवि कितने बड़े समाज में जीता है, महिमापूर्ण तो यह हो जाता है कि किसी कवि की कविताओं में कितना बड़ा समाज द्योतित है।
कविता की शाश्वतता और जीवंतता के मापदंड का निर्धारण उसमें समाज की उपस्थिति से ही होता है। मानवीय जीवन को अर्थवत्ता प्रदान करने में ही कविता अपनी सार्थकता पाती है। कवि समाज के जिन यथार्थों को स्वयं के जीवन में भोगता है, अनुभव करता है, उन्हीं अनुभूतियों का गर्भस्थीकरण रचनाकार में होता है और वह समय के साथ परिपक्व होने के बाद लेखन के किसी विधा-विशेष में शिल्पित होकर रचना के रूप में अवतरित हो जाता है। ऐसे में समाज-जीवन के कारण कवि की चित्तस्थ अनुभूतियों का रचना में होना स्वाभाविक ही है। अनुभूतियों की खुरदरी जमीन और उसे साधारणीकृत करने का कौशल ही रचना में सौंदर्य की सृष्टि करता है। इस दृष्टिकोण से यदि विचार करें तो कविवर वरुण कुमार तिवारी की कविताएँ कथ्य के साथ-साथ शिल्प और सौंदर्य के दृष्टिकोण से भी श्रेष्ठ हैं; क्योंकि उनका अनुभव-जगत् संवेदनात्मक होने के कारण काफी समृद्ध है और भाषा के माध्यम से अपने भाव-लोक को सम्यक् रूप से अभिव्यंजित करने में वे सर्वथा समर्थ हैं।
समीक्ष्य पुस्तक ‘क्षितिज पर एक पगडंडी’ कविवर वरुण कुमार तिवारी की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन है। डॉक्टर शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी द्वारा संपादित इस कविता-संग्रह में छोटी-बड़ी कुल 83 रचनाएँ हैं, जो कविश्री वरुण के तीनों काव्य-संकलनों से चयनित हैं। कुल 182 पृष्ठों की इस कविता-पुस्तक को प्रकाशित किया है गाजियाबाद के विकास पब्लिशर्स और डिस्टीब्यूटर्स ने। इस संग्रह की अधिकतर कविताओं में कवि की वेदनानुभूति कलात्मकता के साथ अभिव्यक्त हुई है, जिससे यथार्थ का अनुभव संवेदना के धरातल पर प्रतिबिंबित होता हुआ प्रतीत होता है। जगत् और जीवन की अनुभूतियों का मर्मस्पर्शी चित्रण कर कविवर वरुण ने अपने होने का बोध कराया है, जो उनके कवि-कर्म की सार्थकता को संसिद्ध करता है। सुकवि वरुण कुमार तिवारी का ‘स्व ‘ उनकी कविताओं में गुंफित होकर समाजसापेक्ष हो गया है। बारीक अनुभूतियों के इस कवि ने बड़ी निपुणता के साथ अपने भावों और विचारों को सार्थकता प्रदान की है।
‘क्षितिज पर एक पगडंडी’ की पहली कविता है : ‘नहीं मिलेगा आकाश’। इस कविता के माध्यम से कवि ने आकाश में स्वच्छंद उड़ान भरनेवाली चिड़ियों का सहारा लेकर समाज-जीवन की विवशताओं और विडंबनाओं को रेखांकित करने का सुंदर, सुष्ठु, सटीक तथा सार्थक प्रयास किया है। कविवर वरुण कुमार तिवारी की इस कविता में समय की त्रासदी का सजीव और जीवंत चित्रण हुआ है। सच तो यह है कि समय की संवेदना को आकार देनेवाली यह कविता पाठकों के मन-प्राणों को स्पर्श करनेवाली है। देश में बढ़ रहे अपराध, महँगाई, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद इत्यादि विभीषिकाओं और विडंबनाओं से जनता त्राहिमाम कर रही है, फिर भी समाज-जीवन में कोई बड़ा उथल-पुथल नहीं दीख रहा है, किसी प्रकार का कोई विस्फोट होता हुआ दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है, जनजीवन आंदोलित नहीं हो रहा है तो यह कवि की चिंता और चिंतन का कारण बनना स्वाभाविक है। सामाज-जीवन की इन्हीं विवशताओं को कवि ने नन्ही चिड़ियों की बेचारगी के रूप में अभिव्यंजित किया है। शीशे के महल में बंद चिड़ियों के लाख-लाख चोंच मारने के बावजूद शीशा-रूपी व्यवस्था किस तरह दरकने का नाम तक नहीं ले रही है, उसका चित्रण कवि ने अग्रलिखित पंक्तियों में किया है :
नन्ही चिड़िया!
मत समझना शीशे के महल को आकाश
फिर तो टकराती रहोगी शीशे से चोंच
लेकिन नहीं मिलेगा रास्ता
और नहीं मिलेगा कभी आकाश।
‘बदलती आँखों की रोशनी में’ शीर्षक कविता के माध्यम से कवि ने समाज-जीवन के बदलते हुए रूप को अपनी दृष्टि से देखा और भाव-प्रवणता के साथ चित्रित किया। यह ठीक है कि वे गाँव की संवेदनाओं में आज भी जीते हैं, किंतु अब उन्हें वहाँ के चेहरे पर मोहभंग चस्पाँ दृष्टिगोचर होता है। कविश्री वरुण समाज-जीवन के मूल्यों और मानदंडों में हो रहे ह्रास को सूक्ष्मता तथा दृष्टि-निपुणता के साथ देखते हैं एवं सटीक आत्माभिव्यंजना के कारण एक श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में स्थापित होते हैं। बदली हुई आँखों की रोशनी के बीच भी कवि अपनी छाती पर अपराध-बोध का चट्टान लिए शहर लौट आता है, किंतु यहाँ भी उसे चैन नहीं है। इसलिए तो वह अपने होने और नहीं होने के बीच घात-प्रतिघात से आक्रांत है। अतएव ऐसी कविता की सर्जना स्वाभाविक ही है। शहर की चकाचौंध के बीच भी कवि को अपनी माँ की आँखों में देखी गई आस्था की स्मृति अभी भी जीवंत है। कवि सामाज-जीवन की त्रासद स्थितियों के बीच अपनी मनोव्यथा को अभिव्यंजित करने में भी आशावादी दृष्टि रखता है, सदैव सकारात्मक बना रहता है, तभी तो वह अनास्था के द्वीप में आस्था का दीप लिए हुए चल रहा है। इस संदर्भ में कवि की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :
बदल गया है अब रोटी का चेहरा
बदली आँखों की रोशनी में
अब तो स्मृति में भी केवल माँ की आँखें
जो अपनी सजलता में द्वीप थी
आस्था का।
‘कुछ दूर रेत पर चलकर’ शीर्षक कविता में बारीक अभिव्यंजना को कवि वरुण कुमार तिवारी ने एक लड़की के दम तोड़ते सपने को अनुकूल भाव और प्रभाव के साथ साकार कर दिया है। कवि की इस कविता में उनकी भाषिक कला-चेतना अपनी सार्थकता के साथ साकार हो रही है। यह सच है कि भारत की आधी आबादी को सशक्त किए बिना समाज का सर्वतोभद्र कल्याण संभव नहीं है, किंतु इसे दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ क्रियान्वित किए जाने की भी आवश्यकता है। ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:’ जैसी ऋचाओं की रचना करनेवाले राष्ट्र तथा उदात्त चिंतनवाले देश में और सनातन परंपरा में आस्था व्यक्त करनेवाले भारत में महिलाएँ घर, घूँघट और घुँघरू की पर्याय हो गईं। नवरात्रों में देवी के रूप में पूजी जानेवाली लड़कियाँ भोग-विलास की वस्तु बना दी गईं। स्त्रियों को प्रजनन का साधन मात्र घोषित कर दिया गया। यह शोध का विषय हो सकता है कि प्राचीन भारत में जिन लड़कियों का इतना महिमामंडन किया जाता था, गौरवगान किया जाता था, वहीं आधुनिक भारत में उसे अनंत आकाश में उड़ान भरने की जगह केवल पुरुषों का मनोरंजन करने और संतानोत्पत्ति के साधन बनने तक कैसे सीमित कर दिया गया। संभवत: व्यथित होकर कवि ने इस कविता की सर्जना की होगी। इस कविता के माध्यम से कवि ने समय का दंश झेल रही लड़की की तुलना भींगी हुई लकड़ी से की है, जो आखिरी साँस तक तिल-तिल कर सुलगती रहती है। इस सटीक और सुंदर बिंब के माध्यम से कवि ने आधी आबादी की अंतर्व्यथा और बेचारगी को निरूपित किया है। इस संदर्भ में कविवर वरुण कुमार तिवारी की निम्नलिखित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :
एक बार स्थिति बोध के बाद
फिसलने-सी लगती है जिंदगी
लगातार हाथ से
तब सोचने लगती है लड़की
क्यों कोई लड़की लेती है फैसला
खजूर या बबूल पर गिरने का
विषैले अँधेरे को ओढ़ने का
और भीगी लकड़ी की तरह आखरी साँस तक
तिल-तिलकर सुलगने का
‘खतरे में सृजनरत रहना’ शीर्षक कविता में कविवर वरुण ने समाज-जीवन के निर्मम यथार्थ को टटोलने का भरसक प्रयास किया है। कवि ने इस कविता के माध्यम से जीवन की आपाधापी और भागदौड़ के बीच मनुष्य के तनाव तथा दबाव को मार्मिक तरीके से अभिव्यंजित किया है। मानव-मन के अंदर दम तोड़ती संवेदनाओं का सटीक और सम्यक् चित्रण करने में कवि सर्वथा समर्थ है। मर्माहत मन की पीड़ा, वेदना और करुणा को छंदों में गुंफित किया है। समाज-जीवन की विसंगतियों और विडंबनाओं का दंश कवि को टीसता रहा, तड़पाता रहा। बारीक अनुभूति और अभिव्यंजना के कविश्री वरुण ने इस कविता में अपने मन की पीड़ा को सार्थक और सामर्थ्यवान् शब्द प्रदान किए हैं। समाज-जीवन में फैल रही कुंठा, संताप और संत्रास को शब्दित करते-करते मानो कवि का अस्तित्व-बोध ही तिरोहित होने लगा है। ऐसी ही मनोदशा को वाणी देते हुए देखिए वे क्या लिखते हैं :
नहीं पता था
माँ आँकती थी जिस ललाट पर चुंबन
बन जाएगी उस ललाट पर
तनाव की अनगिनत रेखाएँ
* * * *
पता नहीं था
निचोर ली जाएगी आदमी से
इस तरह उनकी संवेदनाएँ
कि रिश्ते बन जाएँ।
‘बनावटी एहसास के खटोले
‘चक्रव्यूह में’ शीर्षक-कविता में यशोधन काव्य-पुरुष वरुण कुमार तिवारी ने उदारीकरण और वैश्वीकरण से उपजी दृष्टि-दिशाहीनता को आड़े हाथों लिया है। कवि मानता है कि इससे लोकचेतना पर समय के वज्रपात से ऐसी भयावह स्थिति उत्पन्न हो गई है, जिससे जनजीवन के सुहाने सपने मानो तार-तार होते हुए दृष्टिगोचर हो रहे हों। कवि ऐसी सुकुमार कविता लिखना चाहता है, जिसमें मोनालिसा की पेंटिंग जैसी मुस्कान और शिशु के अंग-अंग में माँ की चुंबन का कोमल स्पर्श हो, किंतु इस भूमंडलीकरण के युग में कवि के सपने चकनाचूर हो जाते हैं। समय की भयावहता मानो कवि की जिजीविषा को ही खंडित करने पर आमादा हो रहा हो। कवि के मन की पीड़ा और नैराश्य देखिए किस प्रकार निम्नलिखित काव्य-पंक्तियों में छलक पड़ा है :
लिखना चाहता हूँ आज अपनी सबसे सुकुमार कविता
जितनी कोमल मोनालिसा की मुस्कान
जितना कोमल शिशु के अंग-अंग में माँ का चुंबन
जितनी कोमल धरती की धड़कनें
जितने कोमल जवान होती लड़कियों के सपने,
लेकिन ग्लोबल युग की आपाधापी में
अदृश्य हो गए हैं सारे सुनहरे सपने।
‘आदमी बने रहने की खातिर’ शीर्षक कविता में कवि ने मानवीय चेतना के अंतर्द्वंद को रेखांकित किया है। कवि जनजीवन की व्यथा-कथा से त्रस्त है। वह समाज-जीवन में व्याप्त छल-कपट, कश्मकश और कुटिलता से क्रंदित होकर भी कुछ नहीं कर पाने से परेशान है। कवि किसी अनहोनी की आशंका से व्यथित है। उसके अंदर सपने तो मचलते हैं, किंतु समाज-जीवन के मरते मूल्य तथा सिसकती संवेदनाएँ उसे संघर्ष करने के लिए उत्प्रेरित करते हैं। संभव है कि समय की दुर्व्यवस्था तथा अराजकता से उपजी पीड़ा और कलेजे की हुक से उद्भूत चित्र को आत्मसात् करने के कारण उनकी कलम से ये काव्य पंक्तियां उतर आई हों :
चारों ओर मरने के इस हाहाकार क्रंदन में
अपने मन पतंग को
कैसे उड़ने दूँ मैं
धुँध भरे आकाश में।
‘दृश्य’ शीर्षक कविता में सुकवि वरुण कुमार तिवारी ने ठेठ ग्रामांचल का बड़ा ही सुंदर और सजीव चित्रण किया है। यह ठीक है कि कवि अनेक दशकों से शहर में रह रहा है, किंतु गाँव का मोहक और मनोभावन दृश्य उसे बार-बार अपनी ओर आकर्षित करता रहता है। कवि ने इस कविता के माध्यम से अस्ताचल की ओर जाते सूर्य की गोधूलि बेला में रंभाती गायों के झुंड, बैलों के गले में बँधी घंटी की आवाज, धान के हरे-भरे खेत और मैदान में गेंद खेलते बच्चों के दृश्यों का सम्मोहक, सुशोभन और सुललित चित्रण किया है। कविश्री वरुण की भाषा में पैनापन और तीखापन है, जो अनुकूल भाव और प्रभाव पैदा करने में पूरी तरह समर्थ है। कवि की भाषिक चेतना ने उसके अतीत को जिस कौशल के साथ अभिव्यंजित किया है, वह प्रशंसनीय है, श्लाघनीय है। यह ग्रामीण जीवन के प्रति कवि के आकर्षण और रागात्मक अनुराग के साथ-साथ सकारात्मक सोच को भी उजागर करता है। देखिए कवि की निम्नलिखित काव्य-पंक्तियों को :
दर्द-गुबार भरे गाँव की कच्ची डगर पर
घास का गट्ठर माथे पर सँभाले
हाँक रहे हैं चरवाहे
रंभाती गायों और बछड़ों को
और गाँव के जीर्ण-शीर्ण पाठशाला के अहाते से
निकल रहा है एक शिक्षक छाता और थैला लेकर
पड़ोसी गाँव की ओर
यह कोई दृश्य नहीं है,
लेकिन तरस रही हैं आँखें आज भी
स्मृति के बियाबान अतीत में बसे इन दृश्यों के लिए।
‘वैश्वीकरण के इस युग में’ शीर्षक कविता के माध्यम से कवि ने भारत में फैल रही अपसंस्कृति पर कुठाराघात किया है। वे हरे-भरे खेत, कलकल बहती नदियों और शीतल मंद हवाओं के झोंकों को भी कहीं अँधेरी गुफा में छुप जाने को कहते हैं; क्योंकि यह वैश्वीकरण का युग है। कविवर वरुण को अपनी सांस्कृतिक अस्मिता पर संकट के बादल मँडराते हुए नजर आ रहे हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति को तेजी से अपना पैर पसारते हुए देखकर कवि का मन खिन्न हो उठता है। कवि की बेबसी और बेचारगी के बीच अब खीजने के सिवा उनके पास कुछ उपाय भी नजर नहीं आ रहा है, कुछ शेष बचा भी नहीं है। कवि को अपनी विरासत पर गर्व है, उसकी स्थिति अशक्त तथा बूढ़े बाप की तरह है। कवि को अपने मूल्यों और मर्यादाओं के क्षरण कचोटते हैं। युग-जीवन का यथार्थ कवि को टीसता है, जिसे महसूस किए बिना कोई कैसे रह सकता है? इन्हीं मनोदशा को अभिव्यंजित करती हैं, उनकी निम्नलिखित काव्य पंक्तियाँ :
अपनी अंतिम साँसों में कराहती मानवता को
कल मुआवजे में शायद तुम तौल दोगे
बाजारवादी अर्थव्यवस्था की तरह
फिर बोलो बंधु!
संवेदनहीनता की इस संस्कृति को
कैसे कहोगे संस्कृति?
‘भूख कुनमुनाती है’ शीर्षक कविता में कविवर वरुण ने अस्त्र-शस्त्र के तेजी से हो रहे उत्पादन पर चिंता व्यक्त की है। तीसरी दुनिया के अभावग्रस्त लोगों के लिए वे शस्त्रों के उत्पादन बढ़ाने की जगह पेट की भूख मिटाने की आवश्यकता पर बल देते हैं। कवि का आकुल-व्याकुल मन बेचारगी का भाव लिए जीने को अभिशप्त है। यथार्थपरक उपमाओं के माध्यम से डाॅक्टर वरुण ने शब्दों में वेधकता को गुंफित किया है। जन-जीवन का कष्ट देखकर वे भाव-विह्वल हो जाते हैं, तभी तो वह भूख मिटाने को देश की पहली जरूरत बताते हैं। इस संदर्भ में कवि की ये काव्य-पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :
भूख कुनमुनाती है और कहती है
कि देखा नहीं जिन्होंने गरीबीग्रस्त प्रदेश
महसूसते नहीं कभी आँतों के कुलबुलाने की ऐंठन
समझते नहीं कभी कि जीने के जद्दोजहद में
नीरस दिन और खामोश रातों को
अपनी पीठ पर लदी हुई जिंदगी
किस कदर बन गई है अपाहिज और बीमार ।
‘रोजनामचा’ शीर्षक कविता में कविवर वरुण कुमार तिवारी ने महानगर की लड़की की व्यथा-कथा को चित्रित किया है। महानगर में एक कामकाजी महिला के जीवन के सपने कैसे टूट कर बिखरते हैं, इसकी मर्मस्पर्शी अभिव्यंजना इस छोटी-सी कविता में हुई है। समाज के ताने सुन-सुनकर जब महिला का मन कुंठित हो जाता है तो ऐसे में महिला-सशक्तीकरण की बात करना बेमानी है । कवि ने कामकाजी महिला की वेदना और करुणा को निपुणता के साथ अभिव्यंजित किया है। इस कविता की ये पंक्तियाँ इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं :
तनावों के बेताल को कंधे पर डाले
भोर घर से निकलना काम पर पहुँचना
कामुक नजरों, व्यंग्य-बाणों
जहर-भरी मुस्कानों को चुपचाप सह लेना
कुंठित मन, क्लांत तन, साँझ घर लौटना
न तड़पना, न रोना
सपनों का उल्टे पाँव लौट जाना।
कुल मिलाकर कविवर वरुण कुमार तिवारी की प्रतिनिधि कविताओं का यह काव्य-संकलन समाज-जीवन को समग्रता के साथ देखने और फिर उसे रचने के लिए पूरी तरह समर्थ है। उनकी भाषा सहज सरल और बहुगम्य है। कथ्यों की सटीक अभिव्यंजना के लिए उन्होंने अनेक रचनाओं में सुंदर बिंबों का प्रयोग किया है। उनकी कुछ कविताएँ जन-मन को आंदोलित करनेवाली हैं। यह भी सच है कि इस संग्रह की कुछ कविताएँ कमजोर हैं। कुछ कविताओं में जहाँ-तहाँ सपाटबयानी भी दृष्टिगोचर होता है, किंतु समग्रता की दृष्टि से विचार करने पर अधिकतर रचनाओं में वस्तु-तत्त्व और प्रभाव के साथ-साथ अभिव्यक्ति कौशल की दृष्टि से भी कविवर वरुण की वरेण्यता संसिद्ध होती है। ऐसे श्रेष्ठ रचनाकार का अभिनंदन तो होना ही चाहिए ।