1. राहतकाल
गिलहरियाँ अपने कोटरों से निकलकर
किटकिट करती
अमरूद औ आम के पेड़ों पर धमाचौकड़ी मचाती
औंचक हो खेल रही हैं धूप-छांव
मनमोहक तितलियों संग
मोगरा, चमेली, जूही, गुलाब कर रहे हैं वार्ता
गौरैया लौट आई हैं।
पपीहे, बुलबुल, कठफोड़वा भी दिखे हैं
उड़हुल की टहनियों के आस-पास।
सूरज उगा है नौ तल्ले की खिड़की पर साफ-साफ
सुना है।
नदियों के फेफड़ें ठीक हो गए अपने-आप
मनुष्य डरा हुआ समेट रहा है।
अपना फैलाया जाल
अकाल मृत्यु की धमक से
उसकी धमनियों में रक्त के साथ
बह रहा है भय
सीमाओं का अतिक्रमण करनेवाला
आज बंद है पहली बार
होगा उसके लिए कोरानाकाल
यह है प्रकृति का राहतकाल।
2. बंधन
सितारों ने मुस्कराकर कहा चांदनी से
हमसे ही है वजूद तुम्हारा
चाँद ने हॅंसकर कहा -झूठ!
हमसे है बॅंधी तक़दीर तुम्हारी
मैं नहीं तो तुम कहाँ
तुम्हारी झिलमिल और चांदनी की उज्ज्वलता कहाँ
मैं हूँ रातों का राजा।
तुम सब हो मेरे दरबारी।
मेरे कदमों में है मंजिल तुम्हारी!
मैं न रहूँ तो ये रात कालिमा की हो जाती है दासी
कवि की कल्पना भी हो जाती है मरुवासी
रात भर चाँद का चलता रहा एकालाप
भोर की किरणों ने भी सुना उसका प्रलाप
दौड़ी गयीं सूर्य के पास
सुना डाला सब हाल
सूर्य ने मुस्कुराकर कहा- “प्यारी किरणों!”
हम सब बॅंधे हैं एक दूसरे से
बेकार है ये अहम की दिवार
एक दूसरे के बिना नहीं चलता यह संसार
3. कविता
कविता यहाँ-वहाँ से जोड़े गए शब्दों का जमघट नहीं होता है।
उसमें होता है,अनछुआ दर्द, ख़ामोशियों में जज्ब अहसास
न जाने कब से दबाए गए टूटे हुये सपनों की राख
कविता में होती है सुनहरी यादों की खुशबू
जिये गए सपनों की तासीर
कभी किसी खिलखिलाती धूप में, कभी बारिश में
किसी सुहानी शाम भींगते हुए
कॉफी के साथ –“एक लड़की भींगी भागी सी”
सुनते हुए होंठो पर आई मीठी मुस्कान
कभी शीतल रेत पांव के निशान बनाते हुए
समुद्र की गहराइयों और चंचलता को
एक साथ महसूसते हुए
गुजारे गये दिनों की तस्वीर
कविता
बीते पलों का, गुजरते दिनों का,
समाज का आईना होता है
जिसमें उसके टूटने का दर्द और जुड़ने का उल्लास
दोनों शामिल होते हैं।
4. हिस्से का सुख
कोई भी नहीं बदलता
चीजें भी नहीं बदलती
बदलती है फिजां, मौसम, हवा, चेहरे
और सुख के मायने
अपने हिस्से की धूप झेलो
अपने हिस्से की हवा भी लेलो
अपनी जिंदगी जी लो
पड़ोस में पीपल का पेड़
नई कोंपले, नए पंछी, मधुमक्खी का छत्ता
मैना, बुलबुल, गौरैया बसेरा सबका
अपने हिस्से की जमीन ढूढ़ते
बसेरा बसाने की जद्दोजहद करते लोग
जैसी कीमत वैसा बसेरा
अपने हिस्से का सुख सॅंवारते-सजाते लोग
जन्म-मरण का सिलसिला चलता रहता ।
कुछ भी नहीं बदलता।
5. काल का बाण
जमीन से जुड़ा हर आदमी
आज पुरानी दीवारों की मानिंद चटकने लगा है
मगर चटचट सी कोई आवाज नहीं होती
ख़ामोशी के शामियाने के नीचे हो रहा ये षड्यंत्र
काल का छोड़ा गया कोई बाण है।
जो सबको बींधता ही जा रहा है।
शायद कोई बच नहीं पाए।
चूँकि निशाना है अचूक!
मगर कैसे मान ले हम
हमारी जिंदगी की यह अंतिम शाम है।
हमारे मस्तिक पर तो किसी का वश नहीं है
अतः आस्था के विशाल सागर में गोते लगाना होगा
कि सूरज अपनी रोशनी के साथ
एक दिन अवश्य उदित होगा
जो काल के इस षड्यंत्र को जलाकर राख कर दे
और हम अपनी गलतियों को ठीक कर
फिर से अपनी जिंदगी जी सके