सुई
थोड़ी मुश्किल से सज्ज होती हैं
उँगलियाँ
बटन वाली छोटी सुई पर
चुभ जाए सहसा तो दर्द होगा
रक्त में शर्करा नापते अक्कु चेक जितना
वैसे ही सुई की नोक बराबर
घाव देता है
असफलता का सहज संबोधन
घर या बाहर जब कभी घेर लेते हैं
असफलता के सांकेतिक संबोधन
यदा कदा तो
चींटी बराबर घावों से भर जाता है
देह का ओर छोर
दूर से प्रतिध्वनित होती है
हास्य की कालिमा
तब व्यर्थ होता है समय का आगणन
और व्यर्थ होता है यह कथन भी कि
जगह नहीं बची है
देह पर
और घावों के लिए।
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ग़रीबी
पहले वह सोख लेगा
हवा से बेहिसाब ऑक्सीजन
जब बिगड़ जाएगा
हवा में गैसों का अनुपात तब
भारी बेचैनियों और जद्दोजहद के बीच
वापस करेगा सिलिंडर भर ऑक्सीजन
किश्तों में लेनी होगी साँस
किस्तों में साँस दर साँस ही
गिरवी होता जाएगा जीवन
छूटी साँसों को वापस करने का
कोई क़ानून भी नहीं
यह नई ग़रीबी है।
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साँस
हौंकने भर साँस चाहिए होती है
हर डूबने वाले को
बार-बार हाथ पैर मारकर
पानी की सतह से ऊपर आते ही
कितना देख पाता है जगत
डूबता हुआ आदमी
मछुआरे के जाल में आते ही अथवा
बंशी से जल के बाहर झटके से खींची गई
मछलियों की देह
साँस के लिए उछलती गिरती है कई बार
महामारी में हर क्षण छीजते फेफड़े
खींचते हैं प्राण वायु दम भर
पर रसोइयों के हाथ में तलवार होती है
खो जाती है हवा अंदर ही कहीं देह में
शहर में सलीके से लिपे-पुते चौड़े मार्ग
लील गए सालों साल पुराने छायादार पेड़
महल सदृश्य घरों के बोनसाई बगीचों में
अंतिम साँस ले रहे हैं देशी-विदेशी पौधे
हवा से ऑक्सीजन सोखने की मशीनें
धनिकों का नया व्यापार हैं
सभी को नहीं मारती महामारी
नया नहीं मुर्दा शरीरों से व्यापार
आदमी के लिए
जीने को पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं
लकड़ी नहीं जलाने को मुर्दा देह
जेठ-वैशाख की मरइल नदी
कहाँ तक ढोएगी मृत शरीरों का बोझ
इतने पर भी नाराज़ नहीं प्रकृति
जल्दी आएगा मानसून इस साल
पुनर्यौवना होगी नदी और
पानी में बह जाएँगे सारे गुनाह!
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यह समय
नहीं पता
यह समय
अगर केवल इंतज़ार है तो
इसके बाद और इंतज़ार है
या और कुछ!
नहीं पता
यह समय
अगर केवल दुःख है तो
इसके बाद और दुःख है
या और कुछ!
नहीं पता
यह समय
अगर केवल सन्नाटा है तो
इसके बाद और सन्नाटा है
या और कुछ!
नहीं पता
इस समय
अगर यह जीवन है तो
इसके बाद यही जीवन है
या और कुछ!
नहीं पता।
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साइकिल वाला कवि
मेरे पास
कविता की कार नहीं
मैं जानता हूँ
नहीं बनती कोई कार
बिना बाहरी कल पुर्ज़ों के
अथवा विदेशी रंग-रूप के
मेरे पास
कविता की साइकिल है
जिसके कल पुर्ज़े
मेरे अपने हैं
रंग रूप मेरा है
खाँटी देसी है
मेरी कविता
मैं चाहता हूँ
मैं जाना जाऊँ
साइकिल वाले
कवि के रूप में।
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पहेली
एक कवि आता है
अकसर मुझसे मिलने
वही चुनता है
आने का समय
आते ही हर बार
एक पहेली पूछता है
मैं उत्तर खोजता हूँ तो
एक कविता आती
मेरी सारी कविताएँ
उसकी पहेलियों के उत्तर हैं
प्रतीक्षा करता हूँ
बाक़ी समय
उसके आगमन की
उत्कंठित रहता हूँ
उसकी अगली पहेली
बूझने के लिए
वह पहेली प्रदेश का
नागरिक लगता है
मैं जानता हूँ
वह आएगा एक दिन
तब नहीं होंगी
पहेलियाँ उसके पास
और माँग लेगा
मेरी सारी कविताएँ
जो वास्तव में उसकी
पहेलियों के उत्तर हैं
तब मैं सोचता हूँ
कैसी लगेंगी कविताएँ
फिर से पहेली बनकर!
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सपने
सपने
जितने भी देखे मैंने
कोई समय नहीं था
कोई भाषा नहीं थी
सपनों की
मुझे नहीं पता
सपनों में
मैं था या नहीं
सपनों की प्राथमिकता
भाषा या मैं
कभी नहीं थे
सपनों में
कभी नहीं थी
जीत या हार
वो मैं था
जिसने गढ़ी
स्वप्न भाषाएँ और
बदल कर प्राथमिकता
सपनों की
जीतता हारता रहा
जीवन भर
कभी भी
कहीं भी।
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आवाज़
एक आवाज़
गीली मिठास वाली
जुकाम में हो जैसे
मेरा नाम लेती है
सूने-सूखे रास्तों पर
एक मैले कुचैले कपड़ों और
उलझे बालों वाला आदमी
अकसर मिलता है
तेज़ कदमों से चलता हुआ
जैसे बहुत ज़रूरी हो
जल्दी पहुँचना
नामालूम लौटता कब है
मैं मानसूनी बादलों के सामने
खड़े ठूँठ पेड़ सा
अपनी इच्छाओं से निर्धारित
स्पेक्ट्रम में जीता हूँ
चेतना के सघन बोझ से
थका दिहाड़ी मज़दूर
पीकर पड़ा है
दारू अड्डे पर
एक टाँग पर
लंगड़ाती हुई मुर्गी
घूर पर कीड़े खोजती हुई
अभिशप्त है
किलो भर होने तक
एक सायरन बजाती एम्बुलेंस
बहुत देर से फँसी है
दफ़्तर से घर लौटने की जल्दी में
जाम हुए रास्ते पर
घर नहीं लौटा हूँ
मैं भी।
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लड़कियाँ
लखनऊ के हज़रतगंज चौराहे की ओर
बेतहाशा दौड़ते वाहनों की
अनवरत क़तारों के किनारे
खुद को बचाते हुए
खड़ी हैं
दो पुलिसवर्दी लड़कियाँ
एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए
सड़क पार करने की कोशिश में
ना जाने कबसे!
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चुप्पियाँ
चुप्पियाँ
गूँगी थीं सदा से
नहीं बोलने की आदत
धीमे से छीन लेती है
सुनने की शक्ति भी
चुप्पियाँ
राज करती हैं
गूँगे-बहरेपन की ताक़त से
अभी हाल ही में
दुनिया के कुछ बड़े लोगों ने
विस्तारित किया है
चुप का साम्राज्य
चुप्पी की संपूर्णता के लिए
बंद करना होगा कुछ भी देखना
अब दुनिया के उन्हीं लोगों को
नहीं दिखते
हवाई जहाज़ के पीछे भागते
लटकने की कोशिश करते
जहाज़ के डैनों पर सवार होकर
देश छोड़ने पर आमादा
डरे हुए लोग
जब बहुत अनिश्चित हो
डर की अगली सुबह
वह तुरंत मर जाना चाहता है
शायद इसलिए दौड़ रहा है
उड़ते हवाई जहाज़ों के आगे
इन सब भागते-मरते लोगों में
स्त्रियाँ और बच्चे भी होंगे ही
कहीं न कहीं
जब सब तरफ़ बंदूक़ें हैं तो
शव भी होंगे ही
कहीं न कहीं!